वे यादगार किरदार, जिन्होंने उन्हें महान नायिका बना दिया
103 वर्ष पुराने हिन्दी सिनेमा के अब तक के सफर में यूं तो हज़ारों फिल्में बनीं, अनगिनत कहानियां फिर-फिर दोहरायी गयीं और हर बार नायिकाओं ने एक ही तरह के गानों पर दर्शकों के दिलों में थिरकन भी छोड़ दी, लेकिन उन्हीं अदाकारियों में से कुछ ऐसी महान नायिकाएं भी निखर कर सामने आयीं, जो दर्शकों के दिलों में अनंतजीवी हो उठीं।
चयन बेशक एक दुस्साहस का काम है, लेकिन कुछ किरदार ऐसे होते हैं, जिनके लिए दुस्साहस किया जाना चाहिए। नायिकाएं तो हिन्दी सिनेमा में कई हुईं, किसी ने अपनी खूबसूरती से दर्शकों को दिवाना बनाया, तो किसी ने अपनी एक्टिंग के बल पर वाह-वाह करने को मजबूर कर दिया, लेकिन उन्हीं सब में से कुछ ऐसी भी हुईं, जिन्होंने परदे पर अपने फिल्मी किरदारों को इस तरह जिया कि उनके अभिनय की गहराई और सजीवता ने फिल्मी परदे पर स्वर्ण अक्षरों में उनका नाम हमेशा-हमेशा के लिए लिख दिया। यहां हम उन दस नायिकाओं और उनकी उस खास फिल्म के बारे में चर्चा करेंगे जिन्होंने उन्हें महान नायिका बना दिया।
सबसे पहले बात करते हैं उन अदाकारा की, जिनके मां-पिता ने उनका नाम महजबीं बानों रखा था... फिल्म इंडस्ट्री और व्यक्तिगत संबधों ने उन्हें ट्रेजडी क्वीन बना दिया और उनके चाहने वाले उन्हें मीना कुमारी के नाम से पुकारने लगे। चर्चा जब उम्दा अदाकारी की होती है, तो मीना कुमारी का नाम सबसे पहले ज़ेहन में आता है। मीना कुमारी ने यूं तो कई बेजोड़ फिल्में कीं। बैजू बावरा से लेकर पाक़ीज़ा तक उन्होंने हर फिल्म में अपनी अदाकारी के निशां छोड़े, लेकिन जिस फिल्म ने मीना कुमारी को एक अलग ही ऊंचाई पर ले जाकर बिठा दिया वह फिल्म थी "साहब बीवी और गुलाम"।
साहब बीवी और गुलाम साल 1962 में आयी थी। इस फिल्म में मीना कुमारी ने 'छोटी बहू' की भूमिका निभाई। एक ऐसी पत्नी जो अय्याश पति को घर की ओर मोड़ने के लिए शराब का सहारा लेती है।
इस तरह की सशक्त भूमिका को उस दौर में निभाना आसान नहीं था, लेकिन मीना कुमारी की खूबसूरत रेशमी आवाज़ ने उस चरित्र की छवि को अलौकिक बना कर उसमें जान भर दी। ये फिल्म गुरुदत्त साहब ने बनाई थी। आरती, मैं चुप रहूंगी और साहब बीवी और गुलाम साल 1962 की बेहतरीन फिल्मों में से एक थीं, जिनमें साहब बीवी और गुलाम बेजोड़ साबित हुई। यह एक ऐसी फिल्म रही जिसने फिल्मी दुनिया के इतिहास में अपना नाम दर्ज़ करवा लिया। कहा जाता है, कि साहब बीवी और गुलाम का रोल मीना कुमारी ने अपनी असल ज़िंदगी में भी अदा किया। मीना कुमारी एक बेहतरीन शायरा भी थीं, उनकी चंद पंक्तियां...
'तुम क्या करोगे सुनकर मुझसे मेरी कहानी, बेलुत्फ ज़िंदगी के किस्से हैं फीके-फीके...'
अब आते हैं, दूसरी यादगार अदाकारा के पास। प्यासा की गुलाबो तो आपको याद ही होगी? नहीं? तो फिर गाइड की रोज़ी को तो आप बिल्कुल नहीं भूले होंगे? जी हां, यहां बात हो रही है पद्मश्री (1972) पद्मभूषण (2011) वहीदा रहमान की। वहीदा रहमान ने भी फिल्म इंडस्ट्री को एक से बढ़कर एक फिल्में दीं। बात चाहे तीसरी कसम (राज कपूर) की हो या फिर खामोशी (राजेश खन्ना) की, वहीदा ने अपने अभिनय से दर्शकों के दिलों के भीतर तक बैठ जाने वाली जगह बनाई है, लेकिन जिस फिल्म को उनकी यादगार फिल्म कहा जाता है, वह फिल्म है 'गाइड'।
गाइड में वहीदा रहमान ने रोज़ी की भूमिका निभाई थी। यह फिल्म 1965 में, विजय आनंद के निर्देशन में आई थी। इस फिल्म में इन्होंने ऐसी औरत का किरदार निभाया था, जो अपने वैवाहिक जीवन से नाखुश पति से अलग होकर एक छोटे से शहर के गाइड राजू (देव आनंद) के साथ रहने का साहस जुटा लेती है।
साठ के नैतिकतावादी दशक में इस तरह की बोल्ड भूमिका स्वीकार करना किसी अभिनेत्री के लिए एक साहस का काम था। रोज़ी के किरदार को वहीदा ने चुनौती के रूप में लिया था। मनमोहक मुस्कान, शालीनता और नफीस आकर्षण वाली वहीदा के लिए अभिनय एक स्वाभाविक क्रिया रही है। फिल्म गाइड में इन्होंने स्वतंत्रचेता स्त्री की भूमिका बड़ी खूबी से निभाई। जो दिखावे के लिए भी अपने खड़ूस पति को खुश करके अपनी आकांक्षाओं और खुशियों की बलि चढ़ाने को तैयार नहीं है। 70 के दशक तक आते आते वहीदा रहमान ने अपने किरदारों के साथ कई तरह के प्रयोग भी करने शुरु कर दिये थे। भारतीय सिनेमा के इतिहास में वहीदा रहमान को एक कंपलीट एक्ट्रेस माना जाता है।
अब आते उस अदाकारा के पास जो अपने असली नाम से कम अपने फिल्मी नाम अनारकली से ज्यादा जानीं जाती हैं। जिनकी मुस्कुराहट की दुनिया दिवानी थी। जी, यहां हम बात कर रहे हैं अनिंद्य सुंदरी मधुबाला की। मधुबाला सिनेमा का एक ऐसा नाम हैं, जिन्हें देखने के लिए लोग बेचैन हो जाया करते थे और जिनकी ब्लैक एंड व्हाईट तस्वीरों के लोग आज भी दिवाने हैं। वे हिन्दी सिनेमा का एक ऐसा अंग हैं, जिनके बिना क्लासिक सिनेमा अधूरा है। यही एकमात्र ऐसी हिरोईन थीं, जिन्हें देखने के लिए उस दौर में भीड़ इकट्ठी हुआ करती थी। कहा जाता है, कि मधुबाला के लिए उनके चाहने वालों में जितना उतावलापन और मोहब्बत थी, उतनी किसी और अदाकारा के लिए नहीं थी। इन्होंने 1942 से लेकर 1960 तक सिनेमा में अपना योगदान दिया। महल, अमर, मिस्टर एंड मिसिज़ 55 और बरसात की रात जैसी फिल्मों से शोहरत हासिल की, लेकिन जिस फिल्म ने मधुबाला को एक ब्रांड के रूप में विकसित किया वह फिल्म थी "मुग़ले-आज़म"।
के. आसिफ की फिल्म मुग़ले आज़म 1960 में आयी थी। इस फिल्म में मधुबाला ने एक ऐसी कनीज की भूमिका निभाई, जो शहजादे सलीम (दिलीप कुमार) से बेपनाह मोहब्बत करती है।
कहते हैं खूबसूरती हमेशा प्रतिभा के आड़े आ जाती है, लेकिन अनारकली बनी मधुबाला पर यह बात बिल्कुल लागू नहीं होती।बड़ी प्रेम कहानियों में प्रेम का अंतिम लक्ष्य ईश्वर को पाना होता है और मधुबाला ने फिल्म मुग़ले-आज़म में अनारकली के उस चरित्र की यही व्याख्या प्रस्तुत की है। अनारकली बेहद मादक और गहरे रूप में आध्यात्मिक है। जज़्बाती प्रेम की जटिलताओं की इतनी प्रभावी अभिव्यक्ति शायद ही कभी कोई हिन्दी सिनेमा की अदाकार पेश कर पाये। बहुत कम समय में ही मधुबाला ने पूरी दुनिया का दिल जीत लिया और जो आज भी अपने चाहने वालों के दिलों में बसती हैं। मधुबाला हमेशा हिन्दीं सिनेमा का एक ऐसा नाम रहेंगी, जिसे चाह कर भी कभी नहीं भूलाया जा सकता।
अब बात करते हैं हिन्दी सिनेमा की मशहूर मारूफ अभिनेत्री जिनका नाम रखा गया था फातिमा रशीद, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री ने इन्हें नाम दिया नरगिस। 6 साल की उम्र से फिल्मों में काम करने वाली नरगिस ने आगे चलकर जहां बतौर रोमांटिक हिरोईन पांव जमा लिये थे, वहीं महबूब खान नरगिस के लिए एक बहुत ही अनोखी फिल्म प्लान कर रहे थे और ये फिल्म थी "मदर इंडिया"।
मदर इंडिया फिल्म में नरगिस ने राधा का किरदार निभाया था और इस किरदार में जवानी से लेकर बुढ़ापे तक की कहानी थी, जो नरगिस ने ब्रिलियंटली निभायी। ऐसी भूमिका किसी कलाकार के जीवन में एक ही बार मिलती है और उसकी पहचान बन जाती है।
सुक्खी लाल (कन्हैयालाल) के कर्ज़ में डूबे गरीब किसान श्यामू (राजकुमार) की पत्नी राधा का जीवन संघर्षों की दास्तान है। महबूब खान का यह अद्भुत आख्यान नरगिस को छोटे-बड़े, सभी तरह के दृश्य उपलब्ध कराता है, लेकिन नरगिस के अभिनय की महानता यह थी कि इस फिल्म में उन्होंने हर दृष्य को पूरे संतुलन के साथ निभाया। किसी भी सीन में अतिरेक नहीं हुआ। कहीं भी कमज़ोर नहीं दिखीं। इस फिल्म के लिए नरगिस को नेशनल अवॉर्ड से भी नवाज़ा गया था। हिन्दुस्तानी सिनेमा के इतिहास में नरगिस का नाम अमर रहेगा।
क्या आपको याद है वो अभिनेत्री, जिसने टेलीविजन पर बतौर न्यूज़ रीडर भी काम किया और उसके बाद बन गयी एक ज़बरदस्त अभिनेत्री? बात चाहे कमर्शियल सिनेमा की रही हो या फिर पैर्लल सिनेमा, वे हर किरदार में उतर गयीं। यहां, बात हो रही है स्मिता पाटिल की। स्मिता पाटिल का चेहरा था तो बड़ा आम सा, जिससे हर आम लड़की खुद को को-रिलेट कर पाती है, लेकिन इस चेहरे को खास बनाया श्याम बेनेगल के निर्देशन और स्मिता पाटिल की अदाकारी ने। स्मिता पाटिल की बेहतरीन फिल्मों में से एक फिल्म है "भूमिका"।
भूमिका में स्मिता पाटिल ने एक अभिनेत्री का ही किरदार निभाया था। यह फिल्म स्मिता की असाधाराण अभिनय प्रतिभा की एक मिसाल है। चालीस के दशक की मराठी अभिनेत्री हंसा वाडकर के जीवन पर बनी इस फिल्म की कहानी उषा (स्मिता पाटिल) को एक लड़की के मध्यवय की महिला बनते दिखाती है।
फिल्म भूमिका में स्मिता पाटिल ने खुशनुमा प्यार कर बैठने वाली लड़की के बुद्धिमान स्त्री में तब्दील होने के किरदार को बड़ी सहजता से निभाया है, जिसके माध्यम से उन्होंने एक शक्तिशाली स्त्री की बेहद मानवीय और आधुनिक छवि पेश की और उसे ईमानदारी से निभाया भी।
बात जब खूबसूरती, मुस्कुराहट और अभिनय की एक साथ हो रही हो, तो नूतन को कैसे भूल सकते हैं! नूतन ने फिल्मी परदे पर अपनी मुस्कुराहट की मौजूदगी से एक खुशबूदार जादू बिखेर दिया था। इनकी सादगी, इनका स्टाईल और इनकी अदा हमेशा के लिए लोगों के दिलों में घर कर गयी। यह बात बहुत ही कम लोग जानते हैं, कि 1952 में नूतन ने मिस इंडिया का टाइटिल भी जीता था। वैसे तो नूतन ने एक से बढ़कर एक फिल्में हिन्दीं फिल्म इंडस्ट्री की झोली में डालीं, लेकिन जिन फिल्मों में इनके अभिनय को सबसे ज्यादा सराहा गया, वे फिल्में थी बिमल रॉय की बंदिनी और सुजाता। जिनमें बंदिनी उनकी ज़िंदगी की बेस्ट फिल्म साबित हुई। इस फिल्म में काम करने के बाद नूतन की प्रतिभा एक अलग ही ऊंचाई पर पहुंच गयी थी।
1963 में आयी फिल्म बंदिनी में नूतन ने कल्याणी नाम की महिला का किरदार निभाया था, जिसकी कहानी 1930 के दशक की पृष्ठभूमि पर आधारित थी, जो स्वतंत्रता सेनानी की पत्नी की हत्या के आरोप में जेल काट रही कल्याणी के इर्दगिर्द घूमती है।
प्रेम, समर्पण, हताशा, पश्चाताप और अपराध बोध का रंग लिये हुए फिल्म बंदिनी में कल्याणी के किरदार को नूतन ने बड़ी कुशलता से परदे पर उकेरा था। इस फिल्म के लिए नूतन ने खासतौर पर इस बात का अध्ययन किया, कि उस तरह की विपरीत परिस्थितियों में कोई महिला क्या महसूस करती है। नूतन में खूबसूरती और शालीनता का अनूठा मेल था। भारतीय सिनेमा के इतिहास में इनका नाम हमेशा गर्व के साथ लिया जायेगा।
अब रुख करते हैं एक ऐसी अदाकार की ओर, जिन्हें उतनी प्रशंसा नहीं मिली, जितने की वे हकदार थीं। हालांकि, एक से बढ़ कर एक फिल्में इन्होंने भी दीं और वह अदाकारा थीं वैजयंतीमाला। इनकी बेहतरीन फिल्मों में सबसे पहले नंबर पर आती है फिल्म गंगा-जमुना, जिसने वैजयंतिमाला को महान नायिकाओं की श्रेणी में शुमार कर दिया।
1961 में नितिन बोस के निर्देशन में बनी फिल्म गंगा-जमुना में वैजयंतीमाला ने धन्नो नाम की एक साहसी, मजबूत, दिल को छू लेने वाली ग्रामीण बाला के किरदार को जिया था। इस फिल्म में इनके अभिनय को बहुत सराहा गया।
वैजयंतीमाला ने दिलीप कुमार के साथ कई फिल्मों में काम किया औऱ बड़े आत्मविश्वास के साथ वह बार-बार हिन्दी सिनेमा के इस दिग्गज अभिनेता के सामने अपनी अभिनय क्षमता सिद्ध करती रहीं। नितिन बोस की इस फिल्म में वैजयंतीमाला के नृत्य कौशल का भरपूर प्रयोग किया गया है।
जया भादुड़ी की फिल्म कोशिश भी उन यादगार फिल्मों में से एक है, जो इस उम्दा अदाकारा की सफलता की वजह बनी।
गुलज़ार की फिल्म कोशिश 1972 में आयी थी, जिसमें जया भादुड़ी ने आरती नाम की मूक-बधिर लड़की का किरदार निभाया था।
फिल्म कोशिश में जया भादुड़ी ने बेहद प्रभावशाली अभिनय किया था। पूरी फिल्म में वह किरदार से क्षण भर को भी अलग नहीं हुईं। हिन्दी फिल्मों में अपाहिज पात्रों को दयनीय अथवा हास्यास्पद रूप में पेश करने की लीक से हट कर इस फिल्म में आरती (जया भादुड़ी) को विश्वसनीय सम्मानित पात्र के रूप में पेश किया गया था, जो कि प्रशंसनिय और जया भादुड़ी के लिए मील का पत्थर साबित हुयी।
1983 में मंडी फिल्म की रुक्मणी बाई ने एक बार फिर रील अभिनय को रियल अभिनय की चुनौती दी। वही रुक्मणी बाई, जिसने शबाना आज़मी को गंभीर सिनेमा की अव्वल नायिकाओं में शुमार कर दिया। यह फिल्म श्याम बेनेगल के निर्देशन में बनी थी। शबाना के बारे में बेनेगल साहब की पहली प्रतिक्रिया थी, "उनमें गजब की एकाग्रता है।"
फिल्म मंडी में शबाना आज़मी ने चकला चलाने वाली औरत के किरदार को बनावटी, लेकिन स्वाभाविक रूप से निभाया है। इस फिल्म में इन्होंने अपने अभिनय का लोहा मनवाया था, जिसे आगे चलकर कई नायिकाओं ने अपनी बोल्ड फिल्मों में जीने की कोशिश की।
शबाना आज़मी की एकाग्रता ही करुण हास्य की यादगार भूमिका में परिलक्षित होती है, यही शबाना की अदाकारी की पहचान भी थी, जिसे फिल्म मंडी में बेहद खूबसूरती से इन्होंने प्रस्तुत किया।
और अंत में बात करते हैं देवदास की उस चंद्रमुखी की, जिसने 2002 में हिन्दी सिनेमा में धमाल मचा दिया था। जी, यहां बात हो रही है बेहतरीन अदाकारा, बेमिसाल डांसर और बेइंतेहा ख़ूबसूरत अभिनेत्री माधुरी दीक्षित की। यूं तो माधुरी ने कई बेजोड़ फिल्मों में अपनी अदाकारी का लोहा मनवाया लेकिन फिल्म देवदास की चंद्रमुखी में इन्होंने अपनी अभिनय की आत्मा को खोलकर रख दिया, जिसके चलते यह फिल्म माधुरी की बेहतरीन फिल्मों में सबसे ऊपर रखी जाती है और इसी फिल्म ने इन्हें महान नायिका के रूप में स्थापित किया।
माधुरी दीक्षित ने लाजवाब अभिनय का परिचय अपनी हर फिल्म में दिया, लेकिन देवदास (चंद्रमुखी) ने माधुरी को अभिनय के शिखर पर पहुंचा दिया।
फिल्म देवदास में चंद्रमुखी की अदायें दर्शकों के ज़ेहन में आज भी जिंदा हैं। संजय लीला भंसाली ने चंद्रमुखी के किरदार को दुनियादारी समझनेवाली महिला के रूप चित्रित किया था। फिल्म में चंद्रमुखी एक ऐसी रहस्यमयी औरत की भूमिका में दिखायी पड़ी थी, जिसे यह मालूम है कि उसकी बेइज्जती करने वाले को कैसे सबक सीखाना है। माधुरी दीक्षित ने अपनी संपूर्ण अभिनय क्षमता के साथ चंद्रमुखी के इस किरदार को भीरत तक डूब कर निभाया था। माधुरी की मखमली आवाज़ में हर शब्द का वजन और हर काव्यात्मक वाक्य का भाव बेहद खूबसूरती से उभरा है। उनकी खूबसूरती और व्यक्तित्व फिल्म के दौरान क्लोजअप शॉट में दर्शकों के मन को बांधे रखता है।
मार डाला... गाने में माधुरी के नृत्य के पद-ताल और उनकी भावाभिव्यक्ति ने इसे भारतीय सिनेमा का यादगार गाना बना दिया है।
इन दस अनंतजीवी आदर्श किरदारों और किरदारों में छुपी बैठी महान नायिकाओं को भूल पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। हिन्दी सिनेमा जब तक रहेगा, ये दस नायिकाएं हमेशा-हमेशा दर्शकों के ज़ेहन में मौजूद रहेंगी। जो कभी किसी की आदर्श बनेंगी, तो कभी कहीं किसी व्यक्ति विशेष की डायरी और यादों में कैद सकारात्मकता से भर देने वाली खुशी मात्र।