...तुम्हारे आंसुओं को कमजोरी क्यों न समझें चारू!
खादी ने फटकारा और खाकी फफक पड़ी। वरिष्ठ अधिकारियों, पूरे अमले और मीडिया के जाग्रत, सजीव कैमरों की उपस्थिति में महिला आईपीएस अधिकारी चारू निगम का फफकना सोशल मीडिया जगत को भावुक कर गया। कोई चारु में बेटी देखने लगा तो कोई बहन। भावनाओं के ज्वार में ये तथ्य कि वो एक पुलिस अधिकारी भी है, कुछ यूं बह गया जैसे पूर्वी उत्तर प्रदेश की मौसमी बाढ़ में किसी गरीब का झोपड़ा।
क्या किसी आईपीएस अधिकारी का सरेआम ऐसे रोना उचित है? क्या जनप्रतिनिधि और महिला आईपीएस के मध्य का संवाद तात्कालिक कारणों परिणाम नहीं था, जिसमे दोनों पक्ष अपनी-अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय करते नजर नहीं आये? क्या क्षेत्रीय जनप्रतिनिधि के आक्रोश को उसी स्वर में जवाब देकर एक नयी विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती थी?
वैसे खाकी और खादी में जंग और जुगलबंदी की सैकड़ों मिसालें, दास्तानें यूपी की सियासी फिजाओं में तैरती, मचलती सुनाई-दिखाई पड़ जाएंगी या यूं कहें, कि उत्तर प्रदेश में खाकी और खाकी की जंग और जुगलबंदी के मंजर खासा माहौल बनाते रहे हैं और आज बना भी रहे हैं। कुछ ऐसा ही मसला गोरखपुर जिले में हुआ जब खाकी बिलख उठी। आंसू यूं ही बेवफा नहीं होते, कुछ तो था जो अंदर तक दरक गया और महिला आईपीएस चारू निगम ने अपने आंसुओं का सबब आभासी दुनिया के मंच फेसबुक पर साझा कर दिया। अब सवाल ये है, कि क्या किसी आईपीएस अधिकारी का सरेआम ऐसे रोना उचित है? क्या जनप्रतिनिधि और महिला आईपीएस के मध्य का संवाद तात्कालिक कारणों परिणाम नहीं था, जिसमे दोनों पक्ष अपनी-अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय करते नजर नहीं आये? क्या क्षेत्रीय जनप्रतिनिधि के आक्रोश को उसी स्वर में जवाब देकर एक नयी विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती थी? यद्यपि उ.प्र. के पूर्व डीजीपी श्रीराम अरूण कहते हैं, कि सार्वजनिक मंच पर रोना तो किसी को शोभा नहीं देता, किंतु मानवीय संवेगों से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
सवाल ये है, कि वरिष्ठ अधिकारियों के समर्थन, पूरे अमले की मौजूदगी और मीडिया के जाग्रत, सजीव कैमरों की उपस्थिति भी जब महिला पुलिस अधिकारी चारू निगम में साहस, सम्बल और आत्मविश्वास नहीं भर पा रही थी, तो वो रात की निस्तब्धता में अकेले पूर्वांचल के दुर्दांत मूंछधारी बदमाशों से सामना कैसे करेंगी?
एक आईपीएस अधिकारी की मौजूदगी कानून-व्यवस्था के सुव्यवस्थित होने की जमानत होती है। व्यवस्था की शक्ति का मानवीय प्राकट्य होती है। आला अधिकारी पुलिस और पुलिस के लिए प्रेरणा का पुंज होता है।
क्या आईपीएस चारू निगम का भावुक आचरण मातहतों के लिए कोई सकारात्मक सन्देश देने में सफल हो पाया? समस्त आचार सहिंता और वरिष्ठता के क्रम को दरकिनार करते हुए आभासी दुनिया के मंच पर अपनी वास्तविक पीड़ा को साझा करना क्या किसी नियोजित दृष्टि का हिस्सा था? आज पूरा सोशल मीडिया संवेदना के आंसुओं के सैलाब में कुलांचे मार रहा है, लेकिन बहैसित आईपीएस अॉफिसर चारू निगम, किरण बेदी अथवा बिहार की महिला आईपीएस अधिकारी, जिसने मीटिंग में कबीना मंत्री को निरूत्तर कर दिया था, की भांति आचरण कर पाती तो शायद हम सब कह रहे होते कि कोमल है कमजोर नहीं, शक्ति का नाम ही नारी है लेकिन अब तो कुल दास्तां इतनी ही रह गई है, कि ये आंसू मेरे दिल की जुबां हैं।
काश चारू तुम समझ पाती, कि जब बात अना पर आये आंसू नहीं शोले उगलना चाहिये। काश तुम शोले उगल पाती तब यह बहस औरत बनाम मर्द की छिछली सतह पर न हो कर जनप्रतिनिधि बनाम अधिकारी जैसे सार्थक मुद्दे का कारण बनती।