ताज़ा रिसर्च: फेसबुक पोस्ट की भाषा से पता चल जाएगी यूजर की मेंटल पोजिशन
एक शोध रिसर्च में साबित हुआ है कि किसी भी यूजर की फेसबुक पोस्ट से पता चल सकता है कि उसमें डिप्रेशन या किसी तरह का तनाव होने की किस हद तक आशंका है। शोधकर्ताओं ने पोस्ट की भाषा, यूजर की उम्र और लिंग को अपने रिसर्च का आधार बनाया। मेडिकल क्षेत्र के लिए इसे एक महत्वपूर्ण खोज माना जा रहा है।
फेसबुक, गिनीजबुक, यूट्यूब पर ज्यादातर लोग शौकिया तैरते रहते हैं लेकिन आज ये माध्यम सूचनाओं का भी इतना व्यापक महत्व पा चुका है कि कई बार बड़े मीडिया हाउस भी उन्हे अपना खास इंफॉर्मेशन सोर्स मानने के लिए विवश हो जाते हैं। इसके अलावा इन तीनो माध्यमों ने तमाम लोगों, संगठनों, एजेंसियों, संस्थाओं को शख्सियत के चेहरे ही नहीं दिए हैं, उनके आर्थिक आधार को भी मजबूत किया है।
जब पहली बार भारत की म्यूजिक कम्पनी 'टी-सीरीज' के यूट्यूब पर 100 मिलियन सब्सक्राइबर्स के साथ वर्ल्ड रिकॉर्ड अपने नाम करने का अवसर मिलता है, अभिभूत होते हुए टी-सीरीज के मालिक भूषण कुमार कहते हैं- 'टी सीरीज को इस मुकाम पर पहुंचाने के लिए हम काफी एक्साइटेड और आभारी हैं। गिनीज वर्ल्ड रिकार्ड में अपना नाम दर्ज कराकर हमने वैश्विक स्तर पर कामयाबी का एक बेंचमार्क सेट किया है।' लेकिन अभी हम बात कर रहे हैं फेसबुक से जुड़ी एक ताज़ा और हैरान कर देने वाली दूसरी तरह की सूचना से।
पेनिसिलवेनिया विश्वविद्यालय (अमेरिका) और स्टोनी ब्रूक विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों एवं शोधकर्ताओं के रिसर्च में साबित हुआ है कि किसी भी व्यक्ति की फेसबुक पोस्ट से पता चल सकता है कि उसमें मधुमेह, तनाव, डिप्रेशन जैसी बीमारी होने की किस हद तक आशंकाएं हैं। इसका सोर्स फेसबुक पोस्ट की भाषा को माना गया है। यानी सोशल मीडिया पर प्रस्तुत पोस्ट की भाषा से सम्बंधित व्यक्ति की मानसिक स्थिति और मानसिक संतुलन का पता लगाया जा सकता है। वैज्ञानिकों ने तो यहां तक उम्मीद जताई है कि फेसबुक पोस्ट से सामने आने वाले नतीजों के जरिए मरीजों को उनकी सेहत के बारे में भी बेहतर जानकारी दी जा सकेगी।
इस खोज के दौरान वैज्ञानिकों ने ऑटोमेटेड डेटा कलेक्शन तकनीक के सहारे एक हजार फेसबुक यूजर्स की सभी पोस्ट का पूरी बारीकी से विश्लेषण किया। अपने मेडिकल रिकॉर्ड और फेसबुक पोस्ट को लिंक करने की उन एक हजार यूजर्स से इजाजत लेने के बाद शोधकर्ताओं ने उनकी पोस्ट की भाषा, उनकी उम्र और लिंग को अपनी रिसर्च का मुख्य आधार बनाया तो उन्हे इसके कुल लगभग दो दर्जन तरह के नतीजे मिले। यह रिसर्च इसलिए भी बेहद महत्वपूर्ण माना जा सकता है कि उससे यूजर्स की कुल जो इक्कीस तरह की अलग-अलग स्थितियों का पता चला है, उनमें से दस स्थितियां ऐसी रही हैं, जिनका पता उम्र या लिंग से नहीं, बल्कि फेसबुक से बेहतर लगाया जा सकता था।
इन शोधकर्ताओं के मुताबिक, सोशल मीडिया पोस्ट लोगों की जीवनशैली और अनुभवों से जुड़े होते हैं। वे बताना चाहते हैं कि वे कैसा महसूस कर रहे हैं। यह कुछ बीमारियों के प्रबंधन के लिए अतिरिक्त जानकारी साबित हो सकती है। शोध के दौरान बड़ी मजेदार किस्म की जानकारियां मिलीं। मसलन, 'ड्रिंक' और 'बॉटल' जैसे शब्द शराब और नशे के मामलों में काफी कारगर साबित हुए। जिन लोगों ने 'ईश्वर' और 'प्रार्थना' जैसे शब्दों का इस्तेमाल अपनी पोस्ट में किया, उन्हें मधुमेह होने की संभावना सामान्य से पंद्रह गुना अधिक पाई गई। जिन लोगों ने अभद्र अथवा गाली-गलौज की भाषा का इस्तेमाल किया, उन पर ड्रग्स या पागलपन का असर अधिक देखने को मिला।
चूंकि डिजिटल माध्यम पर इस्तेमाल होने वाली भाषा यूजर्स के जीवन का अहम हिस्सा रही होती है, जो मेडिकल आंकड़ों में नजर नहीं आती है, फलतः जिन्होंने भाषा और किसी बीमारी के बीच के अंतरसंबंधों को प्रत्यक्ष रूप से स्थापित किया है, भाषा का संबंध सिर्फ डिप्रेशन से ही नहीं, बल्कि कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों से भी है। शोधकर्ताओं का कहना है कि ऐसी जानकारियों का इस्तेमाल दवा के क्षेत्र में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में किया जा सकता है। मेडिकल प्रक्रिया की तुलना में फेसबुक पोस्ट पर की गई रिसर्च यूजर्स के डिप्रेशन का आंकलन तीन महीने पहले ही कर देती है।