“यह सिर्फ मेरा नहीं, बल्कि समूची हिंदी भाषा और संस्कृति का सम्मान है” : गीतांजलि श्री
गीतांजलि श्री का उपन्यास ‘टूम ऑफ सैंड’ न सिर्फ हिंदी, बल्कि किसी भी भारतीय और दक्षिण एशियाई भाषा से अनूदित पहली कृति है, जिसे प्रतिष्ठित इंटरनेशनल बुकर सम्मान से नवाजा गया है. यह सम्मान हिंदी के लिए नई संभावनाओं के दरवाजे खोलेगा.
हिंदी की प्रतिष्ठित लेखिका गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘टूम ऑफ सैंड’ को इंटरनेशनल बुकर सम्मान से नवाजा गया है. टूम ऑफ सैंड मूल रूप से हिंदी में लिखे गए उपन्यास रेत समाधि का अंग्रेजी अनुवाद है. अनुवाद वेरमॉन्ट, अमेरिका में रहने वाली डेजी रॉकवेल ने किया है, जो इसके पहले भी हिंदी और उर्दू की महत्वपूर्ण कृतियों का अंग्रेजी में अनुवाद कर चुकी हैं.
इंटरनेशनल बुकर प्राइज हर वर्ष अंग्रेजी में अनूदित और ब्रिटेन या आयरलैंड में प्रकाशित किताब को दिया जाता है. मूल हिंदी किताब भारत में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है. अंग्रेजी अनुवाद लंदन के एक स्वतंत्र प्रकाशक टिल्टेड एक्सेस प्रेस ने छापा है. बुकर की लांग लिस्ट और शॉर्टलिस्ट में चुनी जाने वाली यह दोनों ही प्रकाशकों की पहली किताब है. सम्मान राशि 50 हजार पाउंड की है, जो लेखक और अनुवादक में बराबर विभाजित होगी.
यह किताब न सिर्फ हिंदी भाषा, बल्कि किसी भी भारतीय और दक्षिण एशियाई भाषा से हुआ पहला अनुवाद है, जो इंटरनेशनल बुकर की लांग लिस्ट और शॉर्ट लिस्ट से होता हुआ पुरस्कार प्राप्त करने के सुनहरे मुकाम तक पहुंचा है.
हिंदी भाषा और साहित्य दोनों के लिए यह खासतौर पर बहुत खुशी का मौका है. रेत समाधि को यह सम्मान मिलने पर राजकमल प्रकाशन समूह के प्रबंध निदेशक अशोक माहेश्वरी ने योर स्टोरी से बात करते हुए कहा, “रेत-समाधि’ को इंटरनेशनल बुकर प्राइज़ दिया जाना हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं में लिखे जा रहे साहित्य के लिए विशिष्ट उपलब्धि है. इससे स्पष्ट हो गया है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का उत्कृष्ट लेखन दुनिया का ध्यान तेजी से आकर्षित कर रहा है.”
राजकमल के संपादकीय निदेशक सत्यानंद निरूपम ने योर स्टोरी के साथ अपनी खुशी जाहिर करते हुए कहा, “हिंदी साहित्य का एक समृद्ध इतिहास रहा है. गीतांजलि श्री के उपन्यास 'रेत समाधि' को इंटरनेशनल बुकर पुरस्कार मिलने से हिंदी साहित्य और भाषा का गौरव वैश्विक स्तर पर बढ़ा है. पहचान की स्वीकार्यता रेखांकित हुई है. निश्चित रूप से इस परिघटना से हिंदी की युवा और युवतर पीढ़ी अपनी भाषा की साहित्यिक समृद्धि से नए सिरे से परिचित होगी. यह हमारे लिए उत्सव और नई चुनौतियों को स्वीकार कर उत्साह से आगे बढ़ने का समय है.”
टूम ऑफ सैंड एक अस्सी साल की बूढ़ी औरत की कहानी है, जो अपने पति की मौत के बाद गहरे अवसाद में चली जाती है. फिर धीरे-धीरे उस दुख से उबरकर अपने जीवन और अस्तित्व को एक नई रौशनी में देखना शुरू करती है. वह इतिहास के जिस दौर में पैदा हुई, उसने विभाजन को बहुत करीब से देखा था. विभाजन की वो त्रासद स्मृतियां उसकी किशोरावस्था से जुड़ी हुई हैं. वही उसका सबसे बड़ा ट्रॉमा है. एक उम्र जी चुकने और जिंदगी देख चुकने के बाद वो वापस पाकिस्तान जाती है और एक बार फिर से किशोरवय की उन घटनाओं और उन सबके बीच अपने स्त्री होने, मां होने, बेटी होने और उन सबसे बढ़कर एक मनुष्य होने के अर्थ को फिर से खोजती है.
इंटरनेशनल बुकर सम्मान मिलने पर गीतांजलि श्री कहती हैं, “यह सिर्फ मेरे बारे में नहीं हैं. मैं एक भाषा और संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती हूं. यह सम्मान समूचे भारतीय साहित्य और खासतौर पर हिंदी साहित्य का वृहत्तर सम्मान है.”
अनुवादक डेजी रॉकवेल के लिटरेररी एजेंट कनिष्का गुप्ता इसे एक ऐतिहासिक घटना के रूप में देखते हैं. कनिष्का कहते हैं, “यह न सिर्फ हिंदी, बल्कि पूरे भारत के लिए ऐतिहासिक पल है. निश्चित तौर पर इससे नई संभावनाओं के द्वार खुलेंगे. न सिर्फ हिंदी बल्कि भारतीय भाषाओं से अनुवाद का फलक व्यापक होगा, लेकिन फिर भी भविष्य में अन्य किताबों के लिए रास्ता आसान नहीं होने वाला क्योंकि पहला बेंचमार्क ही इतना ऊंचा सेट हुआ है. टूम ऑफ सैंड एक बेहद गंभीर विषय को इतनी सादगी, सरलता और हास्य के साथ परखता है कि भविष्य के लेखकों के लिए लेखन के इस ऊंचे फलक को हासिल करना आसान तो नहीं होगा.”
इस उपन्यास की सादगी और हास्यबोध की चर्चा हर जगह है. पुरस्कार की चयन समिति के सदस्यों में से एक फ्रैंक वायन ने इस उपन्यास को “एक्स्ट्राऑर्डिनरिली फनी एंड फन” कहा. द गार्डियन ने अपनी स्टोरी में उन्हें कुछ इस तरह कोट किया है, “जबर्दस्त रूप से बांधकर रखने वाला, खुशमिजाज, मजेदार, आसान और रस से भरपूर उपन्यास है. बावजूद इसके कि इसकी विषयवस्तु बहुत गंभीर है. हर कोई समंदर के किनारे बैठकर इस किताब का लुत्फ उठा सकता है.”
हिंदी पब्लिक स्फीयर की सबसे प्रमुख और प्रखर आवाजों में से एक पत्रकार और लेखक रवीश कुमार इस मौके की खुशी और उत्साह को कुछ इन शब्दों में बयां करते हैं, “आज मेरी हिन्दी के पांव थिरक रहे हैं. आज वह किसी पार्टी में जाने के लिए तैयार नज़र आ रही है. गीतांजलि श्री को इंटरनेशनल बुकर पुरस्कार मिलने की इस खुशी से मैं आज हिन्दी के तमाम दुखों को जोड़कर घटाना चाहता हूं. ताकि बचे हुए हिस्से की मिठाई हम सब बांट कर खा सके.
“इसलिए आज का दिन अगर-मगर की शर्तों का नहीं है. हिन्दी की ग़रीबी ने उल्लास में भी उदासी का एक अंश जोड़ दिया है. इसके बाद भी बिना किसी संकोच के यह पुरस्कार सभी का है. गीताजंली श्री ने हिन्दी साहित्य को एक तोहफ़ा दिया है. सभी पाठकों को इसे खुले मन से स्वीकार करना चाहिए. गीतांजली श्री के उपन्यास ख़ास तरह के पाठकीय समझ की मांग करते हैं. उनकी रचनाओं से मैं अभी परिचित हो रहा हूं. देख पा रहा हूं कि उनकी लिखाई को पहले-पहल समझने वाले कितने गहरे पारखी रहे होंगे. आज उनका भी दिन है.”
अपनी लंबी टिप्पणी में रवीश आगे कहते हैं, “किसी ने कहा था या यह बात कहीं से मेरे ज़हन में बैठ गई है कि हिन्दी समाज के दो ही हीरो हैं. एक उसके मज़दूर और दूसरा उसके साहित्यकार. हिन्दी के पत्रकारों को भी एक अवसर मिला था जिसे उन्होंने गंवा दिया. आज हिन्दी की पत्रकारिता पूरे मानव समाज को शर्मसार कर रही है. उनकी हिन्दी हत्या के औजारों की तरह किसी कमज़ोर का पीछा कर रही है. उसी दौर में गीतांजली श्री की हिन्दी रेत के ढेर में बदल रहे इस समय में मानवता और करुणा को समेट रही है. हिन्दी साहित्य की महिला साहित्यकार आज अगर कुछ अलग से इतरा लेना चाहें तो ये उनका हक बनता है. बस उनके इतराने में हम भी शामिल होने का टिकट चाहते हैं.”