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1995 में भारत में ये तीन चीजें एक साथ छा गई थीं– इंटरनेट, दिल्‍ली मेट्रो और करवा चौथ

एक सर्वे के मुताबिक आज करवा चौथ की मार्केट वैल्‍यू 44 लाख करोड़ है. करवा चौथ ने बिजनेस और व्‍यापार को मजबूत किया है, लेकिन क्या इसने औरतों को भी इतना मज़बूत किया है?

1995 में भारत में ये तीन चीजें एक साथ छा गई थीं– इंटरनेट, दिल्‍ली मेट्रो और करवा चौथ

Thursday October 13, 2022 , 6 min Read

साल 1995 में बहुत कुछ हुआ था. केंद्र में नरसिम्‍हा राव के नेतृत्‍व वाली कांग्रेस की सरकार थी. भारत के इंडिया और इंडिया के मॉडर्न होने का वो शुरुआती साल था. उसी साल भारत को वर्ल्‍ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन की सदस्‍यता मिली. देश में पहली बार इंटरनेट ने कदम रखे. दिल्‍ली मेट्रो बनने की शुरुआत हुई. कुल मिलाकर ग्‍लोबलाइजेशन देश के दरवाजे पर दस्‍तक दे रहा था. दुनिया जो एक बड़े से गांव में तब्‍दील हो रही थी, भारत शहरी और आधुनिक होकर उस गांव का हिस्‍सा बनने को तैयार था.

इन ऐतिहासिक बदलावों के साथ उस साल एक बात और हुई. 23 साल के एक फर्स्‍ट टाइम डायरेक्‍टर की एक फिल्‍म रिलीज हुई और इस देश के इतिहास में सबसे लंबे समय तक सिनेमा हॉल में चलने वाली फिल्‍म बन गई. ये फिल्‍म थी- “दिलवाले दुल्‍हनिया ले जाएंगे (DDLJ).”

इस फिल्‍म के खाते में और जो भी रिकॉर्ड और उपलब्धियां दर्ज हों, उन सबसे बढ़कर एक काम जो DDLJ ने किया, वो ये कि देश के उत्‍तर के एक राज्‍य में सीमित एक त्‍योहार को पैन इंडिया फेस्टिवल बना दिया. हम बात कर रहे हैं करवा चौथ की.

आज करवा चौथ है. पुरुष के पति रूप की महिमा को समर्पित एक त्‍योहार. इस दिन हिंदुस्‍तान के पतियों की लंबी उमर के लिए औरतें पूरे दिन निर्जला व्रत रखती हैं और शाम को छलनी से चांद के साथ-साथ पति का मुंह देखकर अपना व्रत तोड़ती हैं. अब मीडिया, सोशल मीडिया से लेकर आसपास की जिंदगी में इस त्‍योहार की मौजूदगी की हलचल होली-दिवाली की तरह ही महसूस की जा सकती है. विभाजन से पहले पंजाब और सिंध प्रांत और उसके बाद सिर्फ पंजाब और हरियाणा तक सीमित ये त्‍योहार अब राज्‍य, संस्‍कृति और भाषा की सीमाओं को तोड़कर पूरे देश में मनाया जाने लगा है. तमिल, तेलगू और मलयालम के टीवी विज्ञापनों में भी चांद, छलनी और करवा चौथ गिफ्ट का प्रचार हो रहा है.

लेकिन 1995 से पहले के त्‍योहार और सांस्‍कृतिक हलचलें पंजाब के अलावा देश के बाकी हिस्‍सों में रहने वाले जिन भी लोगों की स्‍मृति में दर्ज है, उन्‍हें याद होगा कि अपने बचपन में उन्‍होंने करवा चौथ जैसी किसी चीज के बारे में सुना भी नहीं था. बिलकुल वैसे ही जैसे हम वैलेंटाइन डे के बारे में कुछ नहीं जानते थे. हिंदी प्रदेशों में छठ का त्‍योहार होता था, उत्‍तर प्रदेश में ललही छट नाम का एक व्रत होता था. हिंदी बेल्‍ट के अन्‍य हिस्‍सों में अलग-अलग व्रत, त्‍योहारों की परंपरा थी, जो कभी पति तो कभी बेटे की लंबी आयु के लिए स्त्रियां रखती थीं. लेकिन करवा चौथ नहीं हुआ करता था.

करवा चौथ को पूरे देश में पॉपुलर करने में बॉलीवुड की बड़ी भूमिका है. अपनी ही शादी के घर में पति के बहाने चुपके से अपने प्रेमी (शाहरुख खान) को छलनी से देखती प्रेमिका (काजोल) की तस्‍वीर हिंदी जनमानस में कल्‍ट बन गई. उसके बाद तो हाई क्‍लास फैमिली ड्रामा वाली तकरीबन सभी फिल्‍मों में छलनी से पति को देखने का सीन कॉमन हो गया. प्रेम का ऐसा अभूतपूर्व महिमामंडन देखकर लोगों ने खूब तालियां बजाईं और आंसू बहाए. ये बात अलग है कि प्रेम करने वाली लड़की को समाज ने स्वीकार करने की बजाय अक्सर दंड देना बंद नहीं किया.

फिलहाल DDLJ से शुरू हुई करवा चौथ के महिमांडन की परंपरा साल दर साल और मजबूत होती गई. ऐश्‍वर्या राय से लेकर प्रीती जिंटा, रानी मुखर्जी, काजोल सभी बेहोश होने की हद तक निर्जला व्रत करने को तत्‍पर थीं और उन्‍हें देखकर असल जिंदगी की औरतें भी करवा चौथ दीवानी हुई जा रही थीं. भूखी-प्‍यासी औरत की छलनी को अपना मुंह दिखाते, अपनी आरती उरवाते और अपने पैर छुआते असल जिंदगी के शाहरुख खानों को एक फिल्‍म ने रातोंरात ईश्‍वर का दर्जा दे दिया था. यूं तो इस देश की सांस्‍कृतिक विरासत में पति को परमेश्‍वर का दर्जा पहले से ही हासिल था, लेकिन करवा चौथ ने उसे जितने रंग, शोर और ग्‍लैमर के साथ पेश किया, पति प्रजाति उसकी चमक से अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकती थी.

इतिहास गवाह है कि वक्‍त जितना आगे जाता है, उतना ही पीछे भी. 1995 का साल इस लिहाज से ऐतिहासिक है क्‍योंकि वो इस देश के लिए एक टर्निंग प्‍वॉइंट था. व्‍यापार के लिए देश के दरवाजे खुल गए थे. दुनिया भर की कंपनियां अपने सामान बेचने हिंदुस्‍तान आ रही थीं और यहां की कंपनियां विदेश जा रही थीं. एक साल पहले ही दुनिया को पता चल गया था कि धरती ही नहीं, पूरे ब्रम्‍हांड की सबसे सुंदर स्‍त्री भारत में जन्‍मी है. 1994 में सुष्मिता सेन मिस यूनिवर्स बनी थीं. 1995 में अपने ब्‍यूटी प्रोडक्‍ट बेचने के लिए हिंदुस्‍तान आने वाली रेवेलॉन पहली कंपनी थी.  

इंटरनेट आ गया था. मेट्रो बन रही थी. भारत को अंतर्राष्‍ट्रीय संस्‍थाओं की सदस्‍या मिल रही थी. वो सबकुछ हो रहा था, जिसे आधुनिक भारत के निर्माण की नींव कहा जा सकता है. लेकिन इस सारी आधुनिकता में औरतों की जगह इतनी ही थी कि वो मिस यूनीवर्स बना दी गई थीं और उन्‍हें बताया जा रहा था कि करवा चौथ करने में ही उनके जीवन की सार्थकता है. सिनेमा ने निर्जल रहने की प्रथा को प्रेम और समर्पण का प्रतीक बना दिया था.  

आधुनिक भारत में औरतों को और भी हिस्‍सेदारी मिली. शिक्षा में, नौकरियों में उनका योगदान बढ़ा. उन्‍हें कानून में संपत्ति का अधिकार मिला, लेकिन किसी सिनेमा ने इस अधिकार को इस तरह पैन इंडिया पॉपुलैरिटी नहीं दिलाई. सच तो ये है कि 90 साल के इतिहास में हिंदी में आज तक एक भी ऐसी फिल्‍म नहीं बनी, जिसमें फिल्‍म की नायिका पिता की संपत्ति में समान अधिकार के लिए न्‍यायालय का दरवाजा खटखटाती हो.

स्त्रियों की सामाजिक और सांस्‍कृतिक जकड़न को ग्‍लोरीफाई करने वाला एक त्‍योहार जितनी रफ्तार से पूरे देश में फैला, उस रफ्तार से उन्‍हें सबल और सक्षम बनाने वाला एक भी विचार नहीं फैला. पॉपुलर कल्‍चर ने कभी उसकी बात नहीं की, कभी उसकी कहानी नहीं सुनाई.

एक सर्वे के मुताबिक आज करवा चौथ की मार्केट वैल्‍यू 44 लाख करोड़ है यानि करवा चौथ के दौरान गहनों, कपड़ों और पूजा के सामानों से लेकर जितनी चीजें बिकती हैं, उसने बिजनेस और व्‍यापार को मजबूत किया है, लेकिन कहीं औरतों को कमजोर बनाने की कीमत पर तो नहीं?

ऐसा कोई सर्वे या आंकड़ा नहीं है, जो बता सके कि कल सुबह से ब्‍यूटी पार्लरों के चक्‍कर लगा रही और आज सुबह से भूखी बैठी इस देश की कितनी औरतों के पास उनके नाम पर घर, मकान, जमीन और बैंक बैलेंस है. कितनी औरतों को पिता की संपत्ति में भाई के बराबर हिस्‍सा मिला है. कितने पिताओं ने आधा खेत, आधी जमीन, आधा मकान अपनी ब्‍याहता बेटी के नाम किया.

असली सवाल छोड़कर स्त्रियां भूखी-प्‍यासी बैठी हैं. भूखे पेट तो दिमाग भी काम नहीं करता. व्रत तोड़ने और दो रोटी जीमने के बाद सोचना कि जब देश आधुनिकता के रास्‍ते पर कदम बढ़ा रहा था तो औरतों को पीछे ढकेलने का यह सिनेमाइ खेल क्‍यों और कैसे शुरू हुआ.

जवाब इतिहास की किताबों में मिलेगा.