Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

दफ्तर में आपके साथ काम करने वाली महिलाओं की यह बड़ी जिम्‍मेदारी आपके ऊपर है

WHO की रिपोर्ट कहती है कि महिला और पुरुष में मेंटल हेल्‍थ डिसऑर्डर का अनुपात 1:3 का है यानी हर एक पुरुष पर तीन महिलाएं मेंटल इलनेस की शिकार हैं.

दफ्तर में आपके साथ काम करने वाली महिलाओं की यह बड़ी जिम्‍मेदारी आपके ऊपर है

Saturday October 08, 2022 , 7 min Read

विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन (WHO) की रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में हर 8 में से एक व्‍यक्ति मेंटल इलनेस का शिकार है यानि किसी न किसी तरह के मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य की समस्‍या से जूझ रहा है. WHO की ही रिपोर्ट कहती है कि महिला और पुरुष में मेंटल इलनेस का अनुपात 3:1 का है यानी हर तीन महिला पर एक पुरुष.

पुरुषों के मुकाबले दुगुनी महिलाएं डिप्रेशन या अवसाद और एंग्‍जायटी का शिकार होती हैं. पोस्‍ट ट्रॉमैटिक स्‍ट्रेस डिसऑर्डर, जिसे संक्षेप में PTSD भी कहते हैं, का जेंडर अनुपात 2:1 का है यानी हर दो महिला पर एक पुरुष PTSD की समस्‍या से जूझ रहा है. इंसोम्निया के शिकार पुरुष और ईटिंग डिसऑर्डर की शिकार महिलाएं ज्‍यादा होती हैं. मॉर्डन साइंस इन दोनों हेल्‍थ कंडीशंस को मेंटल हेल्‍थ के दायरे में ही देखता है.

महिलाओं के इस खराब मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य के कारण और चुनौतियां बहुत सारी हैं. महिलाओं के साथ परिवार और समाज के स्‍तर पर होने वाली हिंसा, जेंडर भेदभाव, हेल्‍थकेयर में होने वाला जेंडर भेदभाव, जेंडर पे गैप, केयरगिविंग की प्राइमरी जिम्‍मेदारी औरतों के ऊपर होना आदि कुछ ऐसे प्रमुख कारण हैं, जो महिलाओं के खराब मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य के लिए मुख्‍य रूप से जिम्‍मेदार हैं. इतना ही नहीं, इसका असर उन बीमारियों पर भी देखने को मिल रहा है, जो मुख्‍य रूप से लंबे डिप्रेशन के कारण होती हैं, जैसेकि ऑटोइम्‍यून डिजीज.

डॉ. गाबोर माते अपनी किताब ‘व्‍हेन द बॉडी सेज नो’ (When the Body says No) में लिखते हैं, “आज से 50 साल पहले ऑटो इम्‍यून बीमारियों का जेंडर अनुपात बराबर था. यानी प्रत्‍येक एक पुरुष पर एक महिला इस बीमारी का शिकार होती थी. लेकिन आज यह जेंडर अनुपात 4:1 का है. यानी प्रत्‍येक एक पुरुष पर 4 महिलाओं को ऑटो इम्‍यून बीमारियां होती हैं.”  

इसी किताब में  डॉ. माते लिखते हैं, “आधुनिकता ने स्त्रियों को सिर्फ केयरगिविंग की भूमिका से बाहर निकालकर उन्‍हें ब्रेड अर्नर यानी पैसे कमाने की भूमिका में डाल दिया, लेकिन उनके लिए समुचित सोशल और फैमिली सपोर्ट सिस्‍टम नहीं बनाया गया. मदरहुड एक संयुक्‍त सामाजिक दायित्‍व न होकर आज भी अकेले औरत की जिम्‍मेदारी है.” डॉ. माते लिखते हैं कि मॉर्डन कल्‍चर औरतों को पहले से कहीं ज्‍यादा आइसोलेट और  शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार कर रही है.

हालांकि वो यहां स्‍पष्‍ट करते हैं कि इसकी मुख्‍य वजह आधुनिकता और स्त्रियों का घरों की चारदीवारी से निकलकर पैसे कमाना नहीं, बल्कि असंवेदनशील सोशल सिस्‍टम है, जो अपनी बुनियाद में स्त्रियों के श्रम के शोषण पर टिका हुआ है.    

जहां पहले सिर्फ घर ही महिलाओं का कार्यक्षेत्र हुआ करता था, वहीं आज घर के अलावा दफ्तर या वर्कप्‍लेस भी महिलाओं का कार्यक्षेत्र है, जहां उन्‍हें पुरुषों के मुकाबले ज्‍यादा चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. मैट‍रनिटी लीव से लेकर पैरेंटिंग और केयरगिविंग की अतिरिक्‍त जिम्‍मेदारी उन पर दोहरा बोझ डालती है. वर्कप्‍लेस पर सदियों पुराना जेंडर पूर्वाग्रह तो है ही, जिसका असर महिलाओं की सैलरी, प्रमोशन और कॅरियर ग्रोथ पर पड़ता है.  

 how employers can help and support women’s mental health at work

यूएन विमेन की साल 2019 की एक रिपोर्ट कहती है कि पूरी दुनिया में 72 फीसदी महिलाएं वर्कप्‍लेस पर जेंडर बायस और भेदभाव का शिकार होती हैं. यूएन की ये रिपोर्ट ये भी कहती है कि वर्कप्‍लेस का सारा स्‍ट्रक्‍चर पुरुषों को ध्‍यान में रखकर बनाया गया है, जिसमें महिलाओं की खास जरूरतों के हिसाब से सुविधाएं और जगह नहीं है. इतना ही नहीं, अधिकांश वर्कप्‍लेस महिलाओं की खास जरूरतों के प्रति संवेदनशील भी नहीं हैं. महिलाएं जब उस मेल डॉमिनेटेड और मेल सेंट्रिक स्‍पेस का हिस्‍सा बनती हैं तो उन्‍हें अपनी जरूरतों के साथ समझौते करने पड़ते हैं.   

रातोंरात किसी जादुई बदलाव की उम्‍मीद तो नहीं है. लेकिन फिर भी इस तथ्‍य को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि धीमी गति से ही सही, लेकिन बदलाव हो रहा है. आइए बात करते हैं कि वर्कप्‍लेस को महिलाओं के लिए ज्‍यादा सपोर्टिव और इंक्‍लूसिव कैसे बनाया जा सकता है. इंप्‍लॉयर्स और लीडर्स इस दिशा में क्‍या कोशिश कर सकते हैं.

ऐतिहासिक जेंडर भेदभाव को स्‍वीकार और बराबरी की मंशा

किसी भी बदलाव की शुरुआत सबसे पहले बदलाव के ईमानदार और नेक इरादे से होती है. महिलाओं की अच्‍छी मेंटल हेल्‍थ के लिए जरूरी है कि उनके वर्कप्‍लेस सेफ और सपोर्टिव हो. इसके लिए टॉप बॉस, मैनेजमेंट और एचआर से लेकर सभी निर्णायक पदों पर बैठे लोगों को सम्मिलित रूप से प्रयास करने की जरूरत है. सबसे पहले जरूरी है इस बात को स्‍वीकार करना कि अधिकांश दफ्तरों का मौजूदा स्‍ट्रक्‍चर औरतों की खास जरूरतों को लेकर इंक्‍लूसिव नहीं है.

how employers can help and support women’s mental health at work

वर्कप्‍लेस पर क्रैच की सुविधा

12 साल पहले यूएस में हुई एक स्‍टडी की रिपोर्ट कहती है कि जिन सेक्‍टर्स ने वर्कप्‍लेस को इंक्‍यूसिव बनाने की पहले 90 के दशक में शुरू कर दी थी, वहां महिलाओं की कॅरियर ग्रोथ अन्‍य सेक्‍टर्स के मुकाबले 30 फीसदी ज्‍यादा रही, जैसेकि बैंकिंग सेक्‍टर. यह रिपोर्ट कहती है कि अमेरिका में वर्कप्‍लेस पर क्रैच की शुरुआत करने वाला बैंकिंग पहला सेक्‍टर था. इसका नतीजा हम देख रहे हैं. आज की तारीख में भारत में भी कम से कम तीन बड़े बैंकों की हेड महिलाएं हैं. महिलाएं काम पुरुषों के बराबर और उनसे बेहतर प्रदर्शन कर सकती हैं, बशर्ते मातृत्‍व की जिम्‍मेदारी को दफ्तर और परिवार साझा करने को तैयार हो.  

फ्लेक्जिबल वर्किंग आवर्स और रिमोट वर्किंग

चूंकि हमारे समाज का और परिवार का बुनियादी ढांचा ऐसा है कि उसमें केयरगिविंग की जिम्‍मेदारी आज भी प्रमुख रूप से औरत के कंधों पर है. ऐसे में फ्लेक्जिबल वर्किंग आवर्स और रिमोट वर्किंग महिलाओं के लिए प्रिविलेज न होकर, उनकी बेसिक जरूरत है. WHO की ही रिपोर्ट कहती है कि साउथ एशिया में 79 फीसदी बार बच्‍चों के बीमार पड़ने पर ऑफिस से छुट्टी महिलाएं लेती हैं. यदि महिलाओं को काम के घंटे और काम की जगह चुनने में थोड़ी रियायत दी जाए तो उनका मानसिक बोझ और दबाव थोड़ा कम होगा. 

मेन्‍स्‍ट्रुल लीव और पीरियड्स के दौरान रियायत

समय-समय पर दुनिया के अलग-अलग देशों में यह मांग उठती रही है कि महिलाओं को कम से कम एक दिन की पीरियड लीव मिलनी चाहिए. हालांकि पूरी तरह यह संभव हो पाना अभी दूर की कौड़ी लगती है, लेकिन महिलाओं की जरूरतों के प्रति संवेदनशील कंपनियों और सेक्‍टर्स में महिला कर्मियों का रीटेंशन रेट 22 फीसदी ज्‍यादा है. यह यूके की एक स्‍टडी कहती है. उस स्‍टडी में पीरियड लीव और पीरियड के दौरान काम की फ्लेक्जिबिलिटी भी एक जरूरी पक्ष है.

how employers can help and support women’s mental health at work

मेंटल हेल्‍थ वर्कशॉप

यह सच है कि स्‍त्री-पुरुष के बीच सदियों पुराना सामाजिक और सांस्‍कृतिक भेदभाव महिलाओं के लिए ज्‍यादा मुश्‍किलें और चुनौतियां खड़ी करता है, लेकिन जहां तक मेंटल हेल्‍थ का सवाल है तो पुरुष भी इस समस्‍या से कम नहीं जूझते. इसलिए वर्कप्‍लेस पर मेंटल हेल्‍थ को लेकर एक संवेदनशील और खुला रवैया होना जरूरी है. ऐसे क्‍लोज और ओपेन वर्कशॉप होने चाहिए, जहां लोग खुलकर अपनी समस्‍याओं के बारे में बात कर सकें, अपनी परेशानियां साझा कर सकें. यूएस की एक स्‍टडी कहती है कि ऑफिस में इमोशनल शेयरिंग हमारे काम की गुणवत्‍ता और मात्रा दोनों में इजाफा करती है.

पुरुषों के साथ के बगैर बराबरी मुमकिन नहीं

जो जेंडर गैरबराबरी महिलाओं को मानसिक रूप से तनावग्रस्‍त और बीमार करने के लिए मुख्‍य रूप से जिम्‍मेदार है, उस गैरबराबरी को खत्‍म करना पुरुषों की भागीदारी के बगैर मुमकिन नहीं है. मेगन के. स्‍टैक अपनी किताब ‘वुमेंस वर्क’ में लिखती हैं, “हम ऐसा समाज नहीं चाहते, जहां स्‍त्री और पुरुष दो पोलराइज्‍ड आइडेंटिटी (ध्रुवीय पहचानें) हों, बल्कि ऐसा समाज चाहते हैं, जहां पुरुषों को महिलाओं के साथ हुई ऐतिहासिक गैरबराबरी की समझ और पहचान हो. वो इस अन्‍याय को देख सकें और उसे खत्‍म करने की लड़ाई में हमारे साथ खड़े हों.” इसलिए ऑफिस को इंक्‍लूसिव और जेंडर सेंसिटिव बनाने के लिए जरूरी है कि पुरुषों को भी इस प्रक्रिया का हिस्‍सा बनाया जाए.


Edited by Manisha Pandey