लोगों ने कहा 'एक नौकरी मिलती नहीं, बनने चले हैं आईएएस'... हिंदी मीडियम से बनकर दिखाया IAS
नौ बार कोशिश की, ग़रीबी देखी, संघर्ष देखा, लेकिन कामयाबी मिल ही गई. आशीष कुमार ने अंतिम कोशिश तक अपना हौसला बनाए रखा.
आज बात करते हैं एक ऐसे विद्यार्थी की, जिसने ख़राब आर्थिक स्थिति और प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद लगातार प्रयास किए, कुछ नौकरियाँ भी कीं और आख़िरकार अपने आख़िरी अटेम्प्ट में सफलता हासिल की।
मैं उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले से हूँ। वर्ष 2017 की सिविल सेवा परीक्षा में हिंदी माध्यम और हिंदी साहित्य विषय के साथ रैंक 817 के साथ चयनित हुआ हूँ। यह मेरा नवां और अंतिम प्रयास था। इससे पहले पाँच मुख्य परीक्षा और दो इंटरव्यू दे चुका था।
उन्नाव जिले के मुख्यालय से करीब 35 किलोमीटर दूर मेरा गांव है। मेरी पूरी पढ़ाई गांव व उन्नाव जिले में ही हुई है। गणित विषय के साथ स्नातक, इतिहास विषय के साथ परास्नातक हूँ। मैं कभी भी पढ़ने में बहुत अच्छा नहीं रहा हूँ, प्रायः द्वितीय श्रेणी में ही पास होता रहा हूँ।
अगर मैं यह कहूँ कि सिविल सेवा में आने का मेरा बचपन से सपना रहा है, तो गलत होगा।
दरअसल एक आम ग्रामीण परिवार की तरह मेरी इच्छा बस एक अदद सरकारी नौकरी तक ही थी। इसीलिए मैंने पहले वनडे प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी से शुरुआत की थी। उन दिनों में ही सिविल सेवा के बारे में पता चला तो मैं 2009 से ही इस परीक्षा में बैठने लगा। तमाम रिश्तेदारों, मित्रों ने मजाक उड़ाया कि ‘एक नौकरी तक मिलती नहीं, सीधे आईएएस बनने का ख्वाब देखने लगे?’
घर के आर्थिक हालत बहुत अच्छे नहीं थे। इसे सौभाग्य कहे या मेहनत कहे, मुझे 23 साल की उम्र में ही सरकारी नौकरी मिल गयी। इससे पहले भी मैं 17 साल की आयु से ट्यूशन पढ़ाकर, काफी हद तक आत्मनिर्भर हो चुका था।
सरकारी नौकरी मिलने से आर्थिक सम्बल तो मिला, पर अब समय कम पड़ने लगा। 1 साल अध्यापक की नौकरी, 1 साल ऑडिटर (कर्मचारी चयन आयोग) के बाद, 2010 में एक्साइज एंड कस्टम विभाग में इंस्पेक्टर की नौकरी के साथ मैंने एक दिवसीय परीक्षाएं देना बंद कर दिया। अब इकलौता लक्ष्य सिविल सेवा था।
मेरी नौकरी गैर हिंदी भाषी राज्य (गुजरात) में होने के चलते, हिंदी से जुड़ी सामग्री मिलना जरा मुश्किल था। धीरे-धीरे चीजें व्यवस्थित हुई। सिविल सेवा में लगातार उतार-चढ़ाव लगे रहे। 2010 में मुख्य परीक्षा, 2011 में इंटरव्यू, 2016 में फिर प्रारंभिक परीक्षा फेल होना, मुझे कुछ हद तक अंदर से तोड़ चुका था।
2017 में अंतिम बार सिविल में बैठना था। पिछले अनुभव, से, कमजोरियों को दूर करते हुए, अपना सर्वोत्तम देने का प्रयास किया। अंततः मुझे अपना नाम चयनित सूची में देखने को मिला। रैंक अपेक्षा के अनुरूप न मिली, पर मैं बहुत खुश हूँ। मुझे हमेशा से चीजों के सुखद पक्ष को देखने की आदत है। इस साल मुझे हिंदी साहित्य में 296 अंक मिले हैं, इसका श्रेय अपने साहित्य के प्रति रुझान को दूंगा।
मैं ‘रुक जाना नहीं’ कॉलम के पाठकों से एक विशेष बात साझा करना चाहूंगा कि मैं मुखर्जी नगर, दिल्ली से दूर, बगैर कोई कोचिंग किये, नौकरी करते हुए सिविल सेवा में सफल हुआ हूँ। इसलिए तमाम मिथकों यथा अच्छे विश्वविद्यालय, महंगी कोचिंग, बहुत मेधावी होना की ज्यादा परवाह करने की जरूरत नहीं है। हर साल UPSC में कम संख्या में ही सही, पर बेहद सामान्य परिवेश में पले-बढ़े जैसे लोग सफल होते ही हैं।
निशान्त जैन को अनंत धन्यवाद देना चाहता हूँ, उनकी स्वर्णिम सफलता हिंदी माध्यम के सैकड़ों सफल उम्मीदवारों की तरह मेरे लिए भी बहुत बड़ी प्रेरणा रही है।
गेस्ट लेखक निशान्त जैन की मोटिवेशनल किताब 'रुक जाना नहीं' में सफलता की इसी तरह की और भी कहानियां दी गई हैं, जिसे आप अमेजन से ऑनलाइन ऑर्डर कर सकते हैं।
(योरस्टोरी पर ऐसी ही प्रेरणादायी कहानियां पढ़ने के लिए थर्सडे इंस्पिरेशन में हर हफ्ते पढ़ें 'सफलता की एक नई कहानी निशान्त जैन की ज़ुबानी...')