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मेहसाणा की मित्तल पटेल बनना चाहती थीं आईएएस, लेकिन उनके जुनून और कोशिश ने बंजारों की जिंदगी में ला दिया क्रांतिकारी बदलाव

आईएएस तो नहीं बन पाईं मित्तल पर बंजारों की जिंदगी में ला दिया क्रांतिकारी बदलाव

मेहसाणा की मित्तल पटेल बनना चाहती थीं आईएएस, लेकिन उनके जुनून और कोशिश ने बंजारों की जिंदगी में ला दिया क्रांतिकारी बदलाव

Thursday November 28, 2019 , 5 min Read

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मित्तल पटेल

"एक वक़्त में मेहसाणा की मित्तल पटले का सपना आईएएस बनना था। हालात और जुनून ने उनको कहीं और पहुंचा दिया। उनकी कोशिशों से आज गुजरात के घुमंतू, पचास लाख की आबादी वाले बंजारा समुदाय की जिंदगी में क्रांतिकारी बदलाव आ चुका है। ज्यादातर के पहचान पत्र बन चुके हैं। उनके बच्चे हॉस्टल में रहकर पढ़ रहे हैं।"

गुजरात में 'विचरता समुदाय समर्थन मंच' नाम से एनजीओ चला रहीं मित्‍तल पटेल घुमंतू जातियों और बंजारों की जिंदगी संवार रही हैं। उनकी कोशिशों का ही नतीजा है कि बनासकांठा जिले का वाडिया गांव आज देह व्‍यापार के चंगुल से निकलते हुए बदलाव की राह पर है। मित्तल पटेल बताती हैं कि एक वक़्त में जब वह ग्रेजुएशन करने के बाद अहमदाबाद में यूपीएससी की तैयारी बीच में ही छोड़कर मैं पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही थी, डिग्री पाने से पहले की जाने वाली रिसर्च के लिए उन्हे घुमंतू आदिवासियों के बीच जाकर उनकी दिनचर्या को समझना था। तकरीबन दो महीने तक वह उनके साथ रहीं।


आजाद भारत की उतनी शर्मनाक तस्वीर उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थी। वह तो महज एक झलक भर थी, बंजारों की इससे भी बुरी स्थिति से वाकिफ होना अभी उनके लिए बाकी था।


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वर्ष 2004 तक मेहसाणा के एक समृद्ध किसान परिवार की मित्तल का सपना गुजरात विद्यापीठ से मास्टर डिग्री लेने के बाद आइएएस बनना था लेकिन हालात की जद्दोजहद ने उनको कहीं और पहुंचा दिया। 


मित्तल बताती हैं कि जब वह स्टडी के लिए वाडिया गांव जा रही थीं तो लोगों ने यह कहते हुए उन्हे वहां जाने से मना किया कि वहां तो बड़े बुरे लोग रहते हैं, देह व्यापार करते हैं, वे उन्हे लूट लेंगे, मर्डर कर देंगे लेकिन बंजारों की जिंदगी में दिलचस्पी लेने के बाद वह एक-एक करके इनके सभी समुदायों से मिलने लगीं।


वह दक्षिण गुजरात में इनकी ढाई दर्जन से अधिक जातियों की अलग-अलग दास्तान समेटने की कोशिश में जुट गईं। तभी किसी ने उन्हे चोरी-बदमाशी जैसे अपराधों के लिए कुख्यात डफेर समुदाय के बारे में बताया।


दिलचस्पी बढ़ने पर उन्होंने इस समुदाय के लोगों को करीब से जानने का निर्णय लिया लेकिन हर कोई उन्हे डफेरों से न मिलने की हिदायत देता रहा।


उस वक्त उनकी उम्र 24 साल थी। ऐसी किसी शहरी लड़की के उस इलाके में जाने के बारे में तो उस समय कोई सोच भी नहीं सकता था लेकिन वह बिना किसी मदद के डफेर समुदाय की बस्ती ढूंढने अकेले निकल पड़ीं।


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इस घुमंतू समुदाय का कोई एक ठिकाना तो था नहीं, सो उनको बड़ी मुश्किल से पहली बार उसी इलाके की एक महिला ने उन्हे डफेरा डेंगा (बस्ती) तक पहुंचाया।


हैरतअंगेज आपबीती सुनाती हुई मित्तल पटले कहती हैं कि जब वहां पहुंची तो देखा कि वहां के लोग बहुत बुरे हाल में हैं। किसी के शरीर पर ढंग के कपड़े नहीं। पक्‍के मकान तो किसी के नहीं।


ऐसे में यह तो साफ हो गया कि पैसा कमाना इनके लिए आसान नहीं है।


यह मजबूरी में ही देह व्यापार जैसे घृणित काम से जुड़े हैं। वे बाकी समाज से अलग कर दिए गए हैं।


उनके पास कोई सरकारी दस्‍तावेज नहीं था। रोजगार की कोई व्‍यवस्‍था नहीं थी।


देह व्‍यापार के चलते गांव का नाम इतना खराब था कि अगर कोई बाजार में सामान लेने जाता तो वाडिया गांव के होने की वजह से उसे सामान देने से मना कर देता था। उसके बाद वह जब उस समुदाय के मुखिया से बात ही कर रही थीं कि पास में एक महिला अपने रोते नवजात बच्चे पर चिल्लाने लगी। 


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उन्होंने उससे कहा कि बच्चा रो रहा है, इसे दूध क्यों नहीं पिलाती! उसने जवाब दिया कि दो दिन से कोई बिल्ली तक नहीं दिखी, जिसे मारकर वह बच्चे को दूध पिला दे।


उसके बाद अब स्थायी रूप से सिर्फ इसी समुदाय के लिए आजीवन काम करने का उन्होंने संकल्प लिया।


मित्तल पटेल वर्ष 2010 में विचरता समुदाय समर्थन मंच गठित करने से पहले बंजारा जातियों की सभी तरह से जानकारी जुटाकर उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ती रहीं। इनके उत्थान के लिए सबसे पहला काम इनके लिए वोटर कार्ड बनवाना रहा।


पर उनका निश्चित ठिकाना न होने की वजह से यह भी आसान नहीं था। राज्य के निर्वाचन आयोग के अधिकारियों से बात करने पर यह तय किया गया कि मानसून में उनके ठिकाने को उनका स्थायी पता माना जाएगा, क्योंकि इसी मौसम में ही वह थोड़ा ठहरते हैं।


इसके बाद विभिन्न सरकारी योजनाओं को लाभ उन तक पहुंचाना ही मित्तल का लक्ष्य बन गया। वह अब तक हजारों लोगों के वोटर और राशन कार्ड बनवा चुकी हैं। 


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मित्तल बताती हैं कि गुजरात में बंजारों की आबादी लगभग 50 लाख है, जिनमें से अब तक वह नब्बे फीसद को पहचान पत्र दिला चुकी हैं। वह उन्हे रोज़गार दिलाने में भी जुटी हुई हैं।


ढाई हजार से ज़्यादा परिवारों को रोजी-रोटी में मदद कर चुकी हैं। उनका संगठन ढाई सौ से ज़्यादा बच्चों की पढ़ाई का जिम्मा उठा रहा है। अहमदाबाद में उनके बच्चों के रहने के लिए दो हॉस्टल भी हैं।


वह अब तक ऐसे 47 गांवों में 87 तालाब खुदवा चुकी हैं। गुजरात के पिछले चुनाव में राज्य की दोनों प्रमुख पार्टियों ने पहली बार उनकी सुध ली। उस समय मित्तल ने राजनेताओं पर उनके लिए वायदे करने का दबाव बनाया। इस समय मित्तल बंजारा जातियों के मानवाधिकार, शिक्षा, उनके  पारंपरिक व्यवसाय और आवास के लिए प्रयासरत हैं।