देश में 1 फीसदी से भी कम हैं ऐसे मानसिक रोगी जो खुद बताते हैं अपनी परेशानी: स्टडी
ये अध्ययन मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए किए गये खर्च पर भी रोशनी डालता है. अध्ययन के मुताबिक उच्च आय वर्ग वाले व्यक्ति, कम आय वर्ग वाले लोगों की तुलना में स्वास्थ्य समस्याओं की रिपोर्ट करने के लिए 1.73 गुना ज़्यादा इच्छुक थे.
हाइलाइट्स
- ज़्यादातर मानसिक रोगी सामाजिक दबाव के चलते नहीं आते हैं सामने
- भारत में कम आय वाले लोगों की तुलना में अधिक आय वाले लोगों में स्वास्थ्य समस्याओं की रिपोर्ट करने की संभावना 1.73 गुना अधिक पायी गई
- यह अध्ययन नेशनल सैंपल सर्वे 2017-2018 के 75 वें राउंड से मिले आकड़ों के आकड़ों पर लॉजिस्टिक रिग्रेशन मॉडल का उपयोग करके किया गया है
IIT जोधपुर के एक ताज़ा अध्ययन से यह पता चला है कि देश में मानसिक बीमारियों के जूझ रहे कई लोग ऐसे हैं जो अपनी बीमारी के बारे में बताने से कतराते हैं. अध्ययन के मुताबिक ऐसे मानसिक रोगियों की संख्या 1% से भी कम है जो खुद से अपनी परेशानी बताते हैं और अपने इलाज के लिए आगे आते हैं. इस अध्ययन को करने के लिए नेशनल सैंपल सर्वे 2017-2018 के 75वें राउंड से मिले आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया था.
ये सर्वे पूरी तरह से लोगों की सेल्फ रिपोर्टिंग पर आधारित था. सर्वे के लिए कुल 5,55,115 व्यक्तियों के आंकड़े इकट्ठा किये गये जिनमें से 3,25,232 लोग ग्रामीण क्षेत्र से और 2,29,232 लोग शहरी क्षेत्र से थे. सर्वे के लिए प्रतिभागियों का चयन रैंडम तरीके से 8,077 गांवों और 6,181 शहरी क्षेत्रों से किया गया था जहां मानसिक बीमारियों से जुड़े 283 मरीज़ ओपीडी में थे और 374 मरीज़ अस्पताल में भर्ती थे.
ये अध्ययन मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए किए गये खर्च पर भी रोशनी डालता है. अध्ययन के मुताबिक उच्च आय वर्ग वाले व्यक्ति, कम आय वर्ग वाले लोगों की तुलना में स्वास्थ्य समस्याओं की रिपोर्ट करने के लिए 1.73 गुना ज़्यादा इच्छुक थे. यह अध्ययन इंटरनेशनल जर्नल ऑफ मेंटल हेल्थ सिस्टम्स में प्रकाशित हुआ है. इसे आईआईटी जोधपुर के स्कूल ऑफ लिबरल आर्ट्स (SoLA) में सहायक प्रोफेसर डॉ. आलोक रंजन और स्कूल ऑफ हेल्थ एंड रिहैबिलिटेशन साइंसेज, ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी, कोलंबस, संयुक्त राज्य अमेरिका के डॉ. ज्वेल क्रैस्टा ने मिलकर किया है.
वर्ष 2017 में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य एवं तंत्रिका विज्ञान संस्थान (NIMHANS-National Institute of Mental Health and Neuro science) द्वारा किये गये नेशनल मेंटल हेल्थ सर्वे से ये बात निकल कर सामने आई थी कि देश में लगभग 19.73 करोड़ लोग ऐसे हैं जो मानसिक रोगों से परेशान हैं.
अध्ययन के कुछ प्रमुख निष्कर्ष
मानसिक विकारों के बारे में बताने से झिझक: अध्ययन से पता चला हैं कि देश में मौजूद कुल मानसिक रोगियों में ऐसे रोगियों की संख्या काफी कम है जो खुद से बीमारी की रिपोर्टिंग के लिए आगे आते हैं. यह असमानता मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों की पहचान करने और उनका समाधान खोजने की दिशा में एक बड़े अंतर की ओर इशारा करती है.
सामाजिक-आर्थिक असमानताएँ: शोध ने एक सामाजिक-आर्थिक विभाजन को उजागर किया, जिसमें भारत में सबसे गरीब लोगों की तुलना में सबसे अमीर आय वर्ग की आबादी में मानसिक विकारों की स्व-रिपोर्टिंग 1.73 गुना अधिक थी.
निजी क्षेत्र का प्रभुत्व: निजी क्षेत्र मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के एक प्रमुख प्रदाता के रूप में उभरा, जिसका बाह्य रोगी देखभाल (OPD) में 66.1% और आंतरिक रोगी देखभाल (IPD) में 59.2% योगदान है.
सीमित स्वास्थ्य बीमा कवरेज: मानसिक विकारों के लिए अस्पताल में भर्ती केवल 23% व्यक्तियों के पास राष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य बीमा कवरेज था.
ज़रूरत से ज़्यादा खर्च: अध्ययन से पता चला हैं कि अस्पताल में भर्ती और ओपीडी दोनों के लिए खर्च निजी क्षेत्र के अस्पतालों में सार्वजनिक क्षेत्र अस्पतालों की तुलना में कहीं ज़्यादा था.
मानसिक रोगियों में सेल्फ रिपोर्टिंग को लेकर झिझक के बारे में आईआईटी जोधपुर के स्कूल ऑफ लिबरल आर्ट्स (SOLA) के सहायक प्रोफेसर डॉ. आलोक रंजन ने बताया, "हमारे समाज में अभी भी मानसिक बीमारी से जुड़े मुद्दों पर बात करने में या इसका इलाज करवाने को लेकर लोग झिझकते हैं. मानसिक रोगों से पीड़ित लोगों को ऐसा लगता है कि अगर उनकी बीमारी के बारे में सबको पता चल गया तो समाज में लोग उनके बारे में क्या सोचेंगे. इसीलिये हमें समाज में ऐसा माहौल बनाना होगा कि मानसिक बीमारियों से पीड़ित लोग बिना किसी झिझक के अपनी बीमारी के बारे में बात कर सके और इलाज के लिए आगे आ सकें."