इनोवेशन के लिए झुग्गियों में दिन बिता रहे, रिक्शे पर सो रहे आईआईटी स्ट्युडेंट्स
इनोवेशन के लिए अब आईआईटी के छात्र कैंपस से बाहर जाकर ऐसे मुश्किल हालात से सामना कर रहे हैं, जिन पर यकीन नहीं हो पाता। वे मजदूरों, किसानों, रिक्शा चलाने वालो के साथ झुग्गियों में रहकर नई टेक्नॉजी से उनकी मुश्किल आसान करने के हुनर सीख रहे, रिक्शे पर सो रहे, खेतों से मंडियों तक उनके साथ-साथ रह रहे।
आईटी सेक्टर में, आज जबकि परम्परागत ज्ञान बहुत प्रासंगिक नहीं है, रह गया है, नए समय से जूझते आईआईटी छात्र अब गरीब रिक्शे वालों, किसानों, बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें बना रहे मजदूरों के बीच रह कर उनकी जिंदगी आसान करने के लिए तरह-तरह के इनोवेशन करने के दौरान श्रमिकों के बीच ज्यादातर वक्त गुजारने लगे हैं।
आईआईटी बॉम्बे के प्रोफेसर अनुराग मेहरा, आईआईटी दिल्ली के कोर्स इन्क्लूसिव इनोवेशन फैक्ल्टी प्रोफेसर पीवी मधुसूदन राव भी भविष्य की जरूरतों के हिसाब इन प्रतिभाओं के रुख देखकर हैरत करते हैं। राव बताते हैं कि पिछले पांच साल में दिल्ली आईआईटी में गरीब और मजदूर तबके से संबंधित पचास से ज्यादा इनोवेशन हो चुके हैं। यह कोर्स करने वाले करीब एक चौथाई छात्र कॉर्पोरेट कंपनी केप्लेसमेंट में हिस्सा लेने की बजाय सोशल प्लेटफार्म पर सक्रिय सामाजिक संस्थाओं से जुड़ने में ज्यादा दिलचस्पी रख रहे हैं।
राव बताते हैं कि उनके यहां हर साल चालीस छात्र छह माह के लिए सोशल इनोवेशन आइडिया के लिए लैब से बाहर निकलकर ऐसे वैकल्पिक कोर्स कर रहे हैं। अब तक इस कोर्स को करीब 200 छात्र कर चुके हैं। ये कैंपस से बाहर न जाएं तो समाज के बहुसंख्यक उपभोक्ता वर्ग गरीबों, मजदूरों, किसानों के लिए कोई नया इनोवेशन आइडिया संभव नहीं होगा।
अब आईआईटी दिल्ली प्रबंधन सामाजिक विज्ञान और इनोवेशन के इस कोर्स की अवधि बढ़ाकर एक साल करने पर विचार कर रहा है। दिल्ली आईआईटी से इन्क्लूसिव इनोवेशन कोर्स कर रहे स्ट्युडेंट्स मजदूरों के साथ काम करते हैं। उनके साथ रहकर पत्थर ढोते हैं। उनकी मुश्किलों से साथ-साथ गुजरते हैं। झुग्गियों में रहते हैं।
राव बताते हैं कि कैंपस से बाहर जाकर ये छात्र खेतों से लेकर मंडियों तक किसानों के साथ उनकी प्रैक्टिल जिंदगी के तजुर्बे लेते हैं। वे इसलिए रिक्शों पर सोते हैं कि थक जाने पर रिक्शा चलाने वाले कैसे सुस्ताएं, उनके लिए रिक्शे की सीटों की कोई नई तकनीक विकसित की जाए। इसी तरह दिल्ली की कंस्ट्रक्शन साइटों पर जाकर हफ्तों उनके साथ बिता रहे हैं ताकि भारी सामान ढोने-उठाने का उनका रिस्क कौन सी नई तकनीक विकसित कर कुछ कम किया जाए।
ऐसे ही एक छात्र ने ऐसे छोटे, सस्ते उपकरण का प्रोटो टाइप बनाया, जिसके सहारे मजदूर बिना झुके सामान उठा पाए। अब यह प्रोटोटाइप अमेरिकी एमआईटी यूनिवर्सिटी ने भी ले लिया है। इसी तरह दिल्ली आईआईटी के छात्रों ने राजस्थान के लहसुन के किसानों के साथ खेत से लेकर मंडी तक यह जानने के लिए सक्रिय रहे कि उनकी उपज की मोटी कमाई खा रहे दलालों, बिचौलियों के चंगुल से उन्हे मुक्त कराने के लिए लहसुन स्टोरेज की कौन सी कूलिंग तकनीक विकसित की जाए, जिससे वे डिमांड बढ़ने पर स्टोर लहसुन से ज्यादा कमाई कर सकें।
मेहरा बताते हैं कि ज्यादातर भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में अंडरग्रेजुएट पाठ्यक्रमों का फोकस विज्ञान तथा इंजीनियरिंग की परम्परागत शाखाओं की पढ़ाई परम्परागत तरीके से ही देने पर रहता है, जबकि दुनिया ऑटोमेशन, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तथा असॉर्टेड डिजिटल तकनीकों के साथ बहुआयामी होती जा रही है। उन्हें स्टार्टअप की तकनीकी क्वालिटी के बारे में, उनकी नकल की प्रवृत्ति (आप टमाटर बेचते हैं, हम प्याज़ बेचेंगे) या रूटीन ऐप-आधारित सेवाप्रदाताओं, ऑनलाइन विक्रेताओं वगैरह के वर्चस्व के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं पढ़ाया जा रहा है।
इसीलिए प्लेसमेंट प्रक्रिया के दौरान ज्यादातर छात्रों का ध्यान सिर्फ इस बात पर रहता है कि सैलरी पैकेज का आकार क्या है, और उन्हें कितनी जल्दी ऑफर हासिल हो सकता है। ऐसे ही एक छात्र को जब 30 लाख का पैकेज मिला तो उसके मां-बाप उससे एक करोड़ के पैकेज की उम्मीद करने लगे। ऐसे में हाइपर-कॉम्पिटीशन का यह अमानवीय एहसास, तनाव और चिंता के साथ आईआईटी अंडरग्रेजुएट छात्रों के भीतर घर कर गया है।