कागज से नहीं तो किस चीज़ से बनते हैं भारतीय करेंसी नोट?
रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया 1935 में स्थापित हुआ और तब से ही करेंसी नोट छापने के लिए कागज या प्लास्टिक का इस्तेमाल नहीं कर रहा है. पर्यावरण को बचाने वाली इस प्रैक्टिस की कहानी लेकिन सवा तीन सौ साल पहले इंग्लैंड और स्कॉटलैंड में शुरू हुई थी.
चाहे जितने डेबिट-क्रेडिट कार्ड आ जाएँ, यूपीआई और क्रिप्टो हो जाएँ आज भी जब कोई रुपये-पैसे या करेंसी के बारे में सोचता है तो उसके दिमाग़ में सबसे पहले कागज का नोट ही आता है. यह और बात है कि यह कागज का नोट असल में कागज का नहीं होता. आपने ठीक पढ़ा, हमारे नोट कागज के नहीं बने होते.
तो फिर किस चीज़ से बनते हैं नोट?
कॉटन से बनते हैं नोट, काग़ज़ से नहीं.
भारत में नोट छापने का काम रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया करती है और वह करेंसी नोट्स बनाने के लिए पेपर या प्लास्टिक का यूज नहीं करती है. बल्कि करेंसी नोट्स, जिन्हें हम पेपर नोट्स कहते हैं, असल में कॉटन पेपर से बनाए जाते हैं जो 75 प्रतिशत कॉटन और 25 प्रतिशत लिनन से बने होते हैं. इस फार्मूले को तैयार करने के बाद इसे लम्बी लाईफ देने के लिए इसमें जेलाटीन एडहेसिव मिलाया जाता है.
काग़ज़ की जगह कॉटन और लिनन को इस्तेमाल करने के कई कारण रहे हैं. सिक्यूरिटी के लिहाज से यह बेहतर ऑप्शन है क्यूंकि नकली नोटों को पहचानना आसान हो जाता है. कॉटन फाइबर्स पेपर से कहीं ज्यादा मज़बूत होते हैं, और नोट्स को फटने से बचाता है. कॉटन और लिनन के कारण नोट हल्के और ज्यादा फ्लेसिबल होते हैं. और यह एक सस्टेनेबल विकल्प है क्यूंकि पेपर की तरह इसके लिए पेड़ काटने की जरुरत नहीं पड़ती.
पर्यावरण और सस्टेनेबिलिटी को लेकर सजगता पिछले पचास साल की बात है. उससे पहले उद्योगों, सरकारों और लोगों में इसको लेकर जागरूकता नहीं थी, अध्ययन भी उतने नहीं थे. ऐसे में यह कह पाना मुश्किल है कि रिज़र्व बैंक द्वारा नोट छापने के लिये काग़ज़ और प्लास्टिक का इस्तेमाल नहीं करने के निर्णय में पर्यावरण या सस्टेनेबिलिटी सम्बन्धी चिंताएँ शामिल थीं या नहीं लेकिन उसकी यह प्रैक्टिस पिछले नब्बे सालों में पर्यावरण को बचाने में योगदान दे रही है. दिलचस्प यह है कि अंग्रेज़ी राज में शुरू हुई इस प्रैक्टिस की जड़ें रिज़र्व बैंक की स्थापना से सवा दो सौ साल पहले स्कॉटलैंड में हैं.
एक लिनन कम्पनी जो बैंक बन गयी
बैंक नोट्स को स्थायी रूप से इस्तेमाल करने वाले पहले बैंक का नाम बैंक ऑफ इंग्लैंड था और उसने 1695 तक लिनेन से बने बैंक नोट्स बनाये और यूज किये.
1704 में स्कॉटलैंड में लिनेन के ट्रेड को बढ़ावा देने के लिए एडिनब्रा में ‘द एडिनबरा लिनन कंपनी’ की स्थापना हुई जिसका बाद में नाम बदलकर ‘द ब्रिटिश लिनन कंपनी’ हुआ. 1740 के दशक में कम्पनी ने बैंक की तरह काम करने की दिशा में सोचना शुरू किया. 1747 में उन्होंने जुलाहों, उत्पादकों और अन्य ग्राहकों के भुगतान के लिए हुंडी [promissory note] का इस्तेमाल करना शुरू किया और 1750 तक बैंक नोट छापने लगे.
शुरू में क़ानूनी अनिश्चतितता के बाद यह बैंक 1971 तक चला. एक लिनन कम्पनी को बैंक बनने पर, नोट छापने के लिये लिनन का इस्तेमाल करना ही था. उसके लिए यह लागत बचाने वाला कदम तो था ही क्योंकि वह लिनन उत्पादन में बचे पल्प से नोट बना रही थी, उसे यह भी पता था कि लिनन मज़बूत होता है और उसका बना नोट जल्दी से फटेगा नहीं.
तो यह है ज़रा-सी लम्बी कहानी उस नोट की जिसे आप कागज का समझ रहे थे.