गहराते जलवायु संकट के मद्देनजर भारतीय वैज्ञानिकों ने की गुफाओं को संरक्षित करने की अपील
पूरे भारत में हजारों गुफाएं फैली हुई हैं. वैज्ञानिकों का मानना है कि गुफाओं के आसपास रहने वाले स्थानीय लोगों के साथ मिलकर इन गुफाओं के भू-स्थान और जैव विविधता का मैपिंग करना चाहिये. वैज्ञानिकों ने गुफाओं के इकोसिस्टम का प्रबंधन करने में स्थानीय समुदायों की भागीदारी का सुझाव भी देते हैं.
जस्टिन सुमित कुमार का काम अंधेरी गुफाओं की खाक छानना है, लेकिन उनकी दिनचर्या काफी दिलचस्प और रोमांचक होती है. इस समय वह अंडमान की अंधेरी गुफाओं में एक वैज्ञानिक दल के साथ खोज पर निकले हैं. वे वैज्ञानिकों को इन गुफाओं में ऐसे पक्षियों को खोजने में मदद करते हैं जिन तक आसानी से पहुंचा नहीं जा सकता है. उन पक्षियों की खोज में कुमार गुफाओं में भटकते हैं. इस दौरान वे न सिर्फ पक्षियों की जानकारी रिकॉर्ड करते हैं बल्कि अपने काम के बारे में नोट्स भी बनाते हैं.
कुमार जो काम कर रहे हैं उससे पक्षियों के संरक्षण में काफी मदद मिलती है. अपनी ट्रैकिंग की इस कला का इस्तेमाल वह पहले गैर कानूनी शिकार के लिए करते थे. कुछ साल पहले उन्होंने गलत राह छोड़ संरक्षण का रास्ता अपनाया और देखते ही देखते उनकी पहचान जाने-माने संरक्षक के रूप में होने लगी. वह वैज्ञानिकों के साथ मिलकर अंडमान द्वीप में गुफाओं का संरक्षण और उसके जैव-विविधता को बरकरार रखने के लिए काम कर रहे हैं.
घोंसला उजाड़ने वाले बन गए संरक्षक
कुमार का कहानी एक शिकारी का संरक्षक बनने की कहानी है. सलीम अली पक्षी विज्ञान और प्राकृतिक इतिहास केंद्र (SACON) के मुख्य वैज्ञानिक मंची शिरीष, एस कुमार के बारे में बताते हैं, “कुमार हमेशा गुफाओं में रहने वाले प्रजातियों के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने के लिए उत्सुक रहते थे. वह जानना चाहते थे कि हम क्या करते हैं और क्यों करते हैं.” शिरीष और उनके गुरु दिवंगत रवि शंकरण ने कुमार जैसे भूतपूर्व शिकारियों के साथ मिलकर दो दशकों तक अंडमान के एडिबल नेस्टस्विफ्टलेट (ऐरोड्रमस फुकीफगस) नामक पक्षी को संरक्षित करने का काम किया.
इस गुफा में रहने वाली प्रजाति को तस्करी से खतरा था, क्योंकि इसका घोंसला अपने स्वयं के जमी हुई लार से बनता है. इसकी मांग चीन में बहुत अधिक है. वहां यह काफी प्रचलित व्यंजन है. टीम ने एक महत्वपूर्ण संरक्षण सफलता की कहानी लिखी, क्योंकि इसने घोंसले के संग्राहकों को घोंसला रक्षक बनने के लिए प्रशिक्षित किया. साथ ही उन्हें एक वैकल्पिक आजीविका का वादा किया. इन कोशिशों से पक्षी की संख्या में इजाफा हुआ. इस काम के बाद शिरीष ने कुछ बड़ा करना शुरू किया. अब उन्होंने यह खोजने की कोशिश की कि गुफाओं के जीव किस तरह से प्रभावित हो रहे हैं. अपने अध्ययन में शिरीष ने गुफा में रहने वाले अन्य चमगादड़ों की प्रजातियों को भी शामिल किया.
“गुफाएं एक ओलिगोट्रॉफ़िक पारिस्थितिकी तंत्र बनाती हैं, जिसका कोई प्रत्यक्ष ऊर्जा स्रोत नहीं है. यहां न धूप है न ही कोई वनस्पति. उनकी ऊर्जा का प्राथमिक स्रोत पक्षी या चमगादड़ के गुआनो या मल होता है. चमगादड़ के विपरीत, स्विफ्टलेट दिन के दौरान चारा की खोज में निकलते हैं और रात में आराम करते हैं,” शिरीष कहते हैं.
अपने शोध में, उन्होंने पाया कि गुफा में अकशेरुकी (बिना रीढ़ वाले प्राणी) विशेष रूप से स्विफ्टलेट (एक तरह की चिड़िया) के मल पर निर्भर थे. गुफाओं का अपना एक माइक्रॉक्लाइमेट होने के कारण, उनका कहना है कि गुफा में रहने वाले जीव छोटे बदलावों के प्रति और भी अधिक संवेदनशील हो सकते हैं और जलवायु परिवर्तन स्थानीय विलुप्त होने को बढ़ा सकता है. जलवायु संकट को लेकर शिरीष कहते हैं कि गुफा प्रणालियों को संरक्षित करना आवश्यक है क्योंकि यह विभिन्न जीवों के लिए इकलौता निवास स्थान हैं.
जलवायु परिवर्तन को समझने में गुफाओं के आंकड़ों का महत्व
दुनिया भर के भूवैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन के बारे में बेहतर समझ बनाने के लिए गुफाओं के पारिस्थितिक तंत्र का अध्ययन करते हैं. जयश्री सनवाल भट्ट, जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस साईंटिफ़िक रिसर्च के जियोडाइनामिक इकाई के एक वैज्ञानिक हैं. जलवायु को समझने में गुफाओं के आंकड़े के उपयोगी होने के बारे में जयश्री कहती हैं “गुफाओं में, आपके पास स्टैलेक्टाइट जैसी संरचनाएं होती हैं जो छत से गुफा के तल तक लटकती हैं और स्टैलेग्माइट जो फर्श से छत की ओर बढ़ती हैं. स्टैलेग्माइट को आसान भाषा में किसी गुफ़ा की छत से लटका चट्टान का लंबा पतला टुकड़ा कह सकते हैं. ये स्टैलेग्माइट बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये जलवायु के इतिहास को संरक्षित करते हैं. स्टैलेग्माइट्स मूल रूप से हर साल परत दर परत जमा होते रहते हैं. वे अपने निर्माण के समय अपने पर्यावरण से डेटा को संरक्षित करते हैं. उदाहरण के लिए, 20 सेंटीमीटर लंबे स्टैलेग्माइट में कुछ सदियों का डेटा हो सकता है.
जयश्री ने मोगाबे इंडिया को बताया, “कहावत है कि अतीत में वर्तमान की कुंजी है. हमारा मौसम भी चक्रीय है. हम भूवैज्ञानिक वास्तव में अतीत के जलवायु आंकड़ों का पुननिर्माण करते हैं. वर्तमान के लिए हमारे पास उपयोगी सहायक आंकड़ा है और इनका उपयोग करके कम्प्यूटेशनल विशेषज्ञ ऐसा मॉडल विकसित कर सकते हैं जिससे हमें भविष्य में मौसम के स्थिति के बारे में पता चल सके.”
वो कहती हैं, “गुफाओं में कई दशकों के आंकड़े दर्ज है. एक नदी में बहुत तलछट जमा हो सकता है और उन तलछटों के कालखंड को चिन्हित किया जा सकता है, लेकिन बाढ़ और भारी बारिश के समय यह तलछट बहकर कहीं दूर चला जाता है. इससे एक हज़ार साल के डेटा का नुकसान हो सकता है. पानी का अशांत होना भी डेटा को प्रभावित करता है. गुफाओं में, हमारे पास बेहतर कालानुक्रमिक रूप से नियंत्रित डेटा है, जिसमें त्रुटि मार्जिन +10 या -10 हो सकता है. जबकि झीलों या नदियों के पारिस्थितिकी तंत्र में, यह 100 से 1,000 साल के बीच कहीं भी हो सकता है.”
गुफाओं को संरक्षित करना जरूरी है
भट्ट मानते हैं कि गुफाओं के महत्वपूर्ण भूमिका होने और गुफाओं के कमजोर पारिस्थितिक तंत्र होने के बावजूद भारत ने गुफाओं को संरक्षित करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया गया है. भट्ट ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “उत्तर भारत में लोग गुफाओं की पूजा करते हैं. इस दौरान बहुत लोग गुफाओं में जमे महत्वपूर्ण चट्टानों को पूजा करने के लिए घर ले जाते हैं और स्पेलेओथेम को तोड़ देते हैं. स्पेलेओथेम दो ग्रीक शब्द से बना है जिसका मतलब गुफा और जमा है. हम लोगों को अगर गुफाओं के विज्ञान और उसकी कमजोर पारिस्थितिक तंत्र को समझा पाते हैं तो स्थानीय लोग गुफाओं को संरक्षित करने के लिए प्रेरित होंगे और कम से कम नुकसान होगा.”
शिरीष ने भी बताया की गुफाओं के पारिस्थिक तंत्र को समझने और वहां रहने वाले प्रजातियों को समझने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया गया है. वे अफसोस जताते हुए कहते हैं, “भारत में गुफाओं के संरक्षण को लेकर कोई कानून नहीं है.” हाल में शिरीष और एसएसीओएन के वरिष्ठ अनुसंधान जीवविज्ञानी धनुषा कवलकर ने महाराष्ट्र में गुफा में रहने वाले भारतीय स्विफ्टलेट को बचाने के लिए एक शुरुआत की है.
शिरीष से प्रेरित होकर उनके सहयोगी धनुषा कवलकर अन्य शोधकर्ताओं के साथ मिलकर सितंबर 2020 में स्पेलियोलाजिकल एसोसिएशन ऑफ इंडिया का गठन किया है. इसका मकसद गुफाओं के संरक्षण, भारतीय उप –महादेश के भूगर्भीय पारिस्थिक तंत्र और वहां रहने वाले प्रजातियों के बारे में समझ बनाना है.
धनुषा कवलकर एसोसिएशन के निर्देशकों में एक हैं. वह बताती हैं, “हम अनुसंधानकर्ताओं का एक समूह हैं जिसमें नौ लोग शामिल हैं. इसमें शामिल लोगों की अलग –अलग विषयों में रुचि है. सभी अपने अध्ययन क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं. इसमे भूविज्ञान, पुरातत्व, बायो-स्पेलियोलोजी, केव-डाइविंग आदि शामिल है . कवलकर ध्यान दिलाती हैं कि भारत में सदियों से गुफाओं के बारे में एक समझ है लेकिन गुफाओं पर अध्ययन भूविज्ञान पर केन्द्रित रहा और गुफा विज्ञानी अक्सर अपने अध्ययन को एक राज्य या जिला तक सीमित रखते आये है. कवलकर विस्तार से बताती हैं, “हम गुफाओं की खोज और अनुसंधानका समर्थन करने वाले एक उप-महादेशीय एसोसिएशन चाहते थे. यह एसोसिएशन भूमि उपयोग में परिवर्तन के कारण से सतह के ऊपर के खतरों को भी संबोधित कर सके और सामुदायिक पहल के माध्यम से गुफाओं की बहाली करने में सक्षम हो सके.”
कवलकर कई बड़ी नदियों के गुफाओं से निकलने की बात पर रोशनी डालती हैं और कहती है कि यह भूगर्भीय पानी का प्रमुख स्रोत है. इसके बावजूद इन गुफाओं तक पहुंच नहीं होने के कारण इनका अध्ययन नहीं किया गया है.
पारिस्थिक तंत्र के जानकार स्थानीय लोगों का सहयोग
कवलकर याद करती हैं कि गुफाओं में काम की शुरुआत आध्यात्मिक कारण से हुआ था. कहती हैं, “बचपन में मैं अक्सर गुफा के मंदिरों में जाती थी. लेकिन उस समय गुफाओं को जानने का इससे ज्यादा अवसर नहीं मिला था.” अंडमान में स्विफ्टलेट का संरक्षण का काम कर रही एसएसीओएन (SCON) में जब उन्होंने काम करना शुरू किया तो एकबार फिर उनका वास्ता गुफाओं से पड़ा. “उस दौरान मैं करीब 400 गुफाओं में गई थी और पहली बार वहां जाने पर मैं फिर से बच्ची बन गयी. फील्ड सहायक के रूप में काम करने वाले स्थानीय लोगों ने गुफाओं के बारे में जानकारी दी उन्होंने हमे गुफा में कहां बैठना है, गुफा के अंदर किन चीजों को नहीं छूना है, जीवजंतु और वनस्पतियों का स्थानीय नाम और प्रजातियों के विशेषता के बारे में बताया,” वह बताती हैं.
वैज्ञानिको के आने के बहुत पहले से स्थानीय लोग स्विफ्टलेट के घोंसले तस्करी करते आ रहे थे. “35-40 साल पहले लोग लेप लेकर गुफाओं के बाहर पक्षियों का आने का इंतजार करते थे. स्विफ्टलेट अपने घोंसला को ढूंढने के लिए विचित्र आवाज करते थे और इसी तरह से घोंसला संग्रह करने वालों को स्विफ्टलेट के रहने की जगह का पता चल जाता था. आज तक हमारे जैसे अनुसंधान करने वाले लोग इसी तरह से पक्षियों के रहने की जगह का पता करते हैं और उनके संख्या का अनुमान लगाते हैं.” .
पूरे देश में फैले हजारों की संख्या में गुफाओं को देखते हुए कवलकर को लगता है कि गुफाओं की स्थानपता करने और गुफाओं की जैव विविधता की मैपिंग करने के लिए स्थानीय समुदाय को काम में लगाना चाहिए. अंडमान और महाराष्ट्र में शिरीष के साथ मिलकर सौ से ज्यादा गुफाओं का मैपिंग की है, वे अक्सर गुफाओं का पता लगाने के लिए स्थानीय समुदाय पर भरोसा करती हैं. .
स्थानीय समुदाय का गुफाओं के बारे में जानकारी के अलावा शिरीष के मुताबिक टिकाउ रूप से गुफाओं का संरक्षण के किसी कार्यक्रम को चलाने के लिए स्थानीय समुदाय की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है. शिरीष कहते हैं, “संरक्षण का जो भी काम हम कर रहे हैं, वह हम स्थानीय लोगों, वहां के पारिस्थिक तंत्र और वहां के संसाधन के लिए कर रहे हैं. इसलिए स्थानीय लोग प्रमुख हितधारक हैं और संसाधन तथा जमीन का बेहतर करने की ज़िम्मेदारी और अधिकार उन्हीं का होना चाहिए.” कवलकर जोड़ते हैं कि शायद हमे कुछ गुफा बहुल क्षेत्र को समुदाय के लिए आरक्षित क्षेत्र घोषित करना चाहिए जहां समुदाय को इनका प्रबंधन करने का पूरा अधिकार हो.”
(यह लेख मुलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: Shutterstock