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कुछ इस तरह झारखंड की सबर जनजाति को पुनर्जीवित करने में मदद कर रही हैं पूर्व आईएएस अधिकारी सुचित्रा सिन्हा

पूर्व आईएएस अधिकारी सुचित्रा सिन्हा ने पहली बार 1996 में सबर जनजाति का दौरा किया था, उस दौरान उन्होंने स्थानीय रूप से उगाई गई घास के साथ जनजाति द्वारा बनाई गई टोकरियां देखीं थीं। तब से, वे शिल्प को बढ़ावा देने के साथ लुप्तप्राय जनजाति की मदद कर रही हैं।

कुछ इस तरह झारखंड की सबर जनजाति को पुनर्जीवित करने में मदद कर रही हैं पूर्व आईएएस अधिकारी सुचित्रा सिन्हा

Friday February 18, 2022 , 6 min Read

हर वीकेंड 62 साल की सुचित्रा सिन्हा रांची से 96 किमी की ड्राइव कर झारखंड के सरायकेला जिले के गांवों में सबर जनजाति के लोगों से मिलती हैं।

वह अपने बैग मिठाई, कपड़े, फ्लिप फ्लॉप और उनके रिश्तेदारों से दान में मिला हुआ अन्य समान भी पैक कर लेती हैं। जनजाति के लोग उन्हें प्यार से 'माई' (मां) कहते हैं।

ऐसे हुई पहली मुलाक़ात

पूर्व आईएएस अधिकारी दो दशकों से अधिक समय से आदिवासियों का दौरा कर रहे हैं। वह उनसे पहली बार साल 1996 में मिली थी जब उनकी तैनाती जमशेदपुर में थीं।

सुचित्रा ने योरस्टोरी को बताया, “भारत सेवा संघ के कुछ लोग मेरे कार्यालय में सबर आदिवासियों के लिए चंदा मांगने आए थे। मुझे पता था कि जनजाति को विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (पीवीटीजी) में गिना जाता है, लेकिन मैं उनसे कभी नहीं मिली थी। उन लोगों ने कहा कि अगर मुझे आदिवासियों से मिलना है तो वे मुझे उनके पास ले जा सकते हैं और मैं मान गई। उनके क्षेत्र तक पहुंचना आसान नहीं था क्योंकि उस समय यह नक्सल बहुल इलाका था, इसलिए बाहरी लोगों को अनुमति नहीं थी।”

झारखंड में अपनी झोपड़ी में बैठी एक सबर जनजाति की महिला

झारखंड में अपनी झोपड़ी में बैठी एक सबर जनजाति की महिला

जब वह उनके गांवों में पहुंची, तो उन्होंने पाया कि वे "गरीबों में भी सबसे गरीब" थे।

देश के सबसे पिछड़े इलाकों में गिने जाने वाले झारखंड के सरायकेला जिले के निमडीह ब्लॉक की अपनी पहली यात्रा को याद करते हुए वे बताती हैं, “उनके घर एक साथ बंधे हुए बांस से बने थे और चार फीट से अधिक लंबे नहीं थे, जिसमें प्रवेश करने के लिए उन्हें रेंगना पड़ता था। उनके पास खाने के लिए बमुश्किल कुछ था और उन्होंने खाना पकाने के लिए टूटे हुए मिट्टी के बर्तन थे।”

वह आगे कहती हैं, “मुझसे कहा गया कि अगर भारत सेवा संघ के लोग उन्हें खाना बांटना बंद कर देंगे तो उनके पास मरे हुए जानवरों को खाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। बच्चों के पास पहनने के लिए कपड़े नहीं थे।"

बमुश्किल 216 परिवारों के साथ आदिवासियों के बीच एक लुप्तप्राय जनजाति सबर मुख्य रूप से अपने अस्तित्व के लिए जंगल पर निर्भर हैं।

दशकों से ये आदिवासी छह फीट ऊंची कांसी घास बुनकर टोकरियां बना रहे हैं, जो क्षेत्र में बहुतायत में उपलब्ध हैं। सबर ने इन टोकरियों को महज 50 रुपये में बेचते हैं।

सुचित्रा सबरों की स्थिति से बहुत परेशान थीं और उनके द्वारा बनाई गई टोकरियों से भी उतनी ही उत्सुक थीं। जल्द ही, उसने आदिवासियों की भलाई के लिए आरक्षित सरकारी धन को उन्हें भोजन, मुर्गी पालन आदि देने के लिए खर्च कर दिया। हालाँकि, वह जानती थी कि यह उनकी स्थिति को बदलने के लिए कोई स्थायी उपाय नहीं था।

सबर को पुनर्जीवित करना

साल 1998 में, उन्हें नई दिल्ली ट्रांसफर कर दिया गया, जहाँ वह उन्हें उपहार में दी गई पारंपरिक आदिवासी टोकरियाँ लाईं थीं। उन्होंने इसे हस्तशिल्प विकास आयुक्त को दिखाया, जो इसे देखकर बहुत खुश हुए और उन्होंने झारखंड के पारंपरिक शिल्प को उन्नत करने के लिए अपने पांच प्रोजेक्ट्स दिये।

इन प्रोजेक्ट्स के माध्यम से, सुचित्रा दिल्ली में निफ्ट के डिजाइनरों से जुड़ी और उन्हें आदिवासियों के साथ काम करने के लिए उनके शिल्प और डिजाइन को बढ़ाने के लिए गांवों में भेजा।

बाँस की टोकरियाँ बनाती साबर जानजाति की महिलाएँ; फोटो साभार: अंबालिका फेसबुक

बाँस की टोकरियाँ बनाती साबर जानजाति की महिलाएँ; फोटो साभार: अंबालिका फेसबुक

सुचित्रा ने सबरों द्वारा बसाए गए 12 बस्तियों में से तीन बस्तियों- भगत, मकुला और समनपुर के आदिवासियों के साथ अपना काम शुरू किया। धीरे-धीरे वह सभी 12 बस्तियों में पहुंच गई।

उन्होंने बैग, टेबल लैंप, प्लांटर्स, सजावट के सामान, टोकरियाँ आदि सहित 152 प्रोटोटाइप बनाए, जिन्हें वह हस्तशिल्प डिजाइन के अधिकारियों को प्रदर्शित करने के लिए दिल्ली लाईं।

उन्होंने 1986 में दस्तकार हाट समिति की संस्थापक जया जेटली और शिल्प कार्यकर्ता लैला तैयबजी जैसे प्रसिद्ध लोगों को भी उत्पाद दिखाए थे।

सुचित्रा याद करती हैं, "निफ्ट के डिजाइनरों को अंग्रेजी में बात करते देखना दिलचस्प था और आदिवासी हिंदी भी नहीं जानते, लेकिन एक महीने साथ काम करने के बाद दोनों की आंखों में आंसू आ गए।"

अंबालिका की स्थापना

साल 2002 में सुचित्रा ने सबर जनजाति के विकास और उनके शिल्प को बेहतर ढंग से बढ़ावा देने के लिए अंबालिका एनजीओ की स्थापना की।

हालाँकि सरकार और कॉरपोरेट प्रोजेक्ट प्राप्त करना धीरे-धीरे कठिन होता गया, सुचित्रा ने इसे बनाए रखा और सबर को बेहतर रोजगार दिलाने के लिए उन्होंने हर संभव प्रयास किए।

हालांकि, 2005 तक इलाके में नक्सलियों का दबदबा बढ़ गया और उन्हें अपना काम बंद करना पड़ा।

सुचित्रा कहती हैं, “मुझे पीछे हटना पड़ा, प्रशिक्षण रोकना पड़ा क्योंकि डिजाइनरों और अन्य लोगों की सुरक्षा अत्यंत महत्वपूर्ण थी। तब तक सबर लोग घास से अलग-अलग चीजें बनाना सीख चुके थे, लेकिन जब हम इन हस्तनिर्मित उत्पादों को बढ़ावा देने के प्लेटफॉर्म पर पहुंचे, तो हमें अपना काम रोकना पड़ा।”

वह कहती हैं कि अगर सरकारी अधिकारियों ने इलाके का दौरा करने की कोशिश की होती, तो बम विस्फोट हो सकते थे। उन्होंने आदिवासियों के पास जाना बंद कर दिया, लेकिन वह उनके बारे में सोचना बंद नहीं कर सकी।

जया जेटली को सबर लोगों द्वारा बनाए गए हैंडीक्राफ्ट्स दिखाते हुए सुचित्रा सिन्हा

जया जेटली को सबर लोगों द्वारा बनाए गए हैंडीक्राफ्ट्स दिखाते हुए सुचित्रा सिन्हा

वे कहती हैं, "यह साल 2011 का समय था और भारत अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेला नई दिल्ली में शुरू होने वाला था। इस अवसर पर मैंने फिर से स्थानीय लोगों से संपर्क किया और 15-20 सबरों को व्यापार मेले में लाई। उनके उत्पाद उतने बेहतरीन नहीं थे क्योंकि इतने वर्षों में वे डिजाइन को भूल गए थे, लेकिन उन्हें ऐसे वंचित क्षेत्र से व्यापार मेले के लिए शहर में लाना एक उपलब्धि थी।”

फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। सुचित्रा ने सबरों के साथ अपना काम पूरी ताकत से शुरू किया। साल 2012 में, उन्हें उसी वर्ष आयोजित ब्रिक्स सम्मेलन के लिए हाथ से तैयार की गई फ़ाइल फ़ोल्डर बनाने का प्रस्ताव मिला।

जब आदिवासियों ने अपनी आय में वृद्धि देखी तो सुचित्रा पर उनका विश्वास प्रबल हो गया और उन्होंने अपने क्षेत्र से नक्सलियों को खदेड़ दिया।

झारखंड में एक प्रदर्शनी में साबर लोगों द्वारा बनाए गए प्रोडक्ट्स; फोटो साभार: अंबालिका फेसबुक

झारखंड में एक प्रदर्शनी में साबर लोगों द्वारा बनाए गए प्रोडक्ट्स; फोटो साभार: अंबालिका फेसबुक

बहरहाल, आदिवासी अपने क्षेत्र के लिए बेहद सुरक्षात्मक हैं और अतिक्रमण को प्रोत्साहित नहीं करते हैं। इसलिए, जो भी उनसे मिलने जाता है, वे उन पर तीर चलाते हैं। इस वजह से स्वास्थ्य, शिक्षा और स्वच्छता जैसी सरकारी सहायता उन तक नहीं पहुंच पाती है।

महामारी के बीच जब कुछ आदिवासी बीमार पड़ गए, तो सुचित्रा ने स्वास्थ्य कर्मियों को बुलाया। वो जब गांवों में पहुंचे, तो उन्हें प्रवेश करने के लिए सुचित्रा को स्पीकरफोन पर रखना पड़ा।

उन्होंने सरकार से आदिवासियों को जिले में एक अनुपयोगी इमारत दान करने के लिए कहा, जिसे अब एक वर्क सेंटर के रूप में इस्तेमाल किया जाता है जहां वे अपने उत्पाद बनाते हैं।

उनका दावा है कि 90 के दशक के अंत में, जब सबर 500 से 600 रुपये प्रति माह कमाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, तो अब वे सुचित्रा के लगातार प्रयासों के कारण 4000 रुपये से 7000 रुपये हर महीने कमाते हैं।

उनके उत्पादों की कीमत 600 रुपये से 3000 रुपये के बीच है और ये ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म अमेज़न पर सूचीबद्ध हैं। सुचित्रा भी इन उत्पादों को ईकॉमर्स ऑनलाइन प्लेटफॉर्म अंबालिका द्वारा क्राफ्टट्रिब के माध्यम से बेचती हैं।


Edited by Ranjana Tripathi