कहीं अगले सौ साल में हम गर्मी से ख़त्म तो नहीं कर देंगे पृथ्वी को?
संयुक्त राष्ट्र संघ की इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ हवा में कार्बन डाई ऑक्साइड़ को तत्काल कम नहीं किया गया तो परिणाम भयावह होंगे.
संयुक्त राष्ट्र (United Nations) के इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की एक रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर ही रोकने के लिए कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) के उत्सर्जन में तत्काल रूप से कमी लाने की आवश्यकता है, जैसा कि 2015 पेरिस समझौते (Paris Agreement) में तय किया गया था. आईपीसीसी की इस मूल्यांकन रिपोर्ट को पृथ्वी की जलवायु की स्थिति का सबसे व्यापक वैज्ञानिक विश्लेषण माना जाता है. ये रिपोर्ट हर पांच से छह साल के गैप में जारी की जाती है. ये रिपोर्ट पेरिस एग्रीमेंट के लक्ष्यों के अनुरूप 2100 तक ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए उत्सर्जन के वर्तमान रुझानों, भविष्य के वार्मिंग के अनुमानित स्तर और निम्न कार्बन अर्थव्यवस्था में बदलावों की जांच करता है.
इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था है जिसे जलवायु परिवर्तन के विज्ञान का आकलन करने के लिए 1988 में स्थापित किया गया था. IPCC सरकारों को वैश्विक तापमान बढ़ने को लेकर वैज्ञानिक जानकारियां मुहैया कराती है ताकि वे उसके हिसाब से अपनी नीतियां विकसित कर सकें. इसके अलावा पर्यावरण सम्बन्धी मसलों पर एक व्यापक चर्चा प्रस्तुत करती है.
IPCC की इस आकलन रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक के लक्ष्य पर ही रोकने के लिए कार्बन डाइऑक्साइड के ग्लोबल एमिशन को वर्ष 2030 तक मौजूदा स्तर से 43 प्रतिशत तक कम करना होगा. साथ ही, इसमें उन विकल्पों का मूल्यांकन भी किया गया है जिनके सहारे तापमान वृद्धि को तय किए गए लक्ष्य तक ही रोका जा सके. और अगर वर्तमान दर से वैश्विक उत्सर्जन होता रहा तो आगामी वर्षों में किस तरीके से अनुभवों का सामना करना पड़ेगा यह भी बताया गया है. उन तमाम कदमों का आकलन भी पेश किया है जो जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए फिलहाल उठाए गए हैं. रिपोर्ट यह अनुमान भी देती है कि इनके सहारे हम पर्यावरण को कहां तक बचा पाएंगे. पैनल के कुछ दस्तावेज़ बताते हैं कि इंसानों के कारण हुए बदलावों ने असावधानीपूर्ण तरीक़े से पर्यावरण को ऐसा बना दिया है जो कि हज़ारों सालों में भी वापस बदला नहीं जा सकता है. रिपोर्ट में कड़ी चेतावनी दी गई है कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कटौती के साथ-साथ बढ़ते जलवायु प्रभावों के अनुकूल होने और सबसे कमजोर लोगों की रक्षा करने के लिए तुरंत बड़े पैमाने पर कार्रवाई की आवश्यकता है.
जहां तक भारत का संबंध है, 2022 आईपीसीसी रिपोर्ट में भारत में पड़ने वाले प्रभावों के बारे में भी बताया गया है.
जल स्तर:
जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी होगी. इसका भारत में व्यापक असर होगा. मुम्बई में समुद्र के स्तर में वृद्धि हो सकती है, जबकि कोलकाता में तूफ़ान का खतरा है. इसके अलावा तटीय क्षेत्रों में बाढ़ का सामना करना पड़ेगा और खारा पानी खेतों में घुस जाएगा. जिससे खेती योग्य जमीन खराब हो जाएगी. कृषि पर आश्रित होने के कारण जलवायु परिवर्तन का भारत जैसे देश में व्यापक प्रभाव पड़ेगा. भारत की कुछ नदियां जलवायु परिवर्तन के कारण जल के अभाव की गंभीर चुनौतियों का सामना कर सकते हैं.
कृषि उत्पादन:
इन दोनों परिस्थितियों में, खाद्य उत्पादन प्रभावित होगा. 2050 तक चावल गेहूं, दाल और मोटे अनाज की पैदावार 9 फीसदी तक कम हो जाएगी. दक्षिण भारत में मक्का उत्पादन में 17 फीसदी की कमी आएगी. इसके कारण देश भर में अनाज के दाम बढ़ेंगे और आर्थिक विकास प्रभावित होगा.
वेट बल्ब तापमान:
तापमान में बढ़ोतरी होने के कारण भारत को भीषण गर्मी का सामना करना पड़ेगा. रिपोर्ट में इसे वेट बल्ब तापमान (Wet Bulb Temperature) कहा गया है. वेट-बल्ब तापमान एक माप है जो ऊष्मा एवं आर्द्रता को जोड़ता है. रिपोर्ट में अनुमानित तापमान 31 डिग्री सेल्सियस बताया गया है जो मनुष्यों के लिए बेहद खतरनाक बताया गया है. रिपोर्ट के मुताबिक भारत के कई हिस्सों में वेट बल्ब तापमान 25 से 30 डिग्री सेल्सियस ही होता है. रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि इस शताब्दी के अंत तक अधिक उत्सर्जन के कारण पटना और लखनऊ में वेट बल्ब तापमान 35 डिग्री तक पहुंच जाएगा. इसके साथ ही अगर उत्सर्जन और बढ़ता रहा तो भुवनेश्वर, चेन्नई, इंदौर, और अहमदाबाद में भी वेट बल्ब तापमान बढ़ जाएगा. वर्तमान में, भारत में वेट-बल्ब का तापमान शायद ही कभी 31 डिग्री सेल्सियस से अधिक होता है, अधिकांश देशों में 25-30 डिग्री सेल्सियस का अधिकतम वेट-बल्ब तापमान अनुभव किया जाता है.
इस बात को लेकर जागरुकता बढ़ रही है कि जलवायु परिवर्तन से लड़ाई का अवसर तेज़ी से ख़त्म होता जा रहा है. लेकिन इसके बावजूद पिछले दशक 2010-2019 के बीच मानव इतिहास में सबसे ज़्यादा ग्रीन हाउस गैस (जीएचजी) का उत्सर्जन देखा गया. ये स्थिति तब है जब कि ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में औसत सालाना बढ़ोतरी पिछले दशक (2000-2009) के दौरान 2.1 प्रतिशत के मुक़ाबले इस दशक में कम (1.3 प्रतिशत) रही.
आईपीसीसी की रिपोर्ट का एक प्रमुख निष्कर्ष ये है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान के लक्ष्य को हासिल करना बेहद मुश्किल तो है लेकिन ये संभव है. इसके लिए तुरंत क़दम उठाने की ज़रूरत है. इसका ये अर्थ है कि अगर दुनिया में 2025 से पहले अधिकतम उत्सर्जन तक पहुंचना है, ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को 2030 तक लगभग आधा करना है और 2050 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करना है तो भारत समेत अलग-अलग देशों को अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान और शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य में संशोधन करना पड़ेगा. ये भारत जैसे देश के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण है जिसे अपनी प्रति व्यक्ति जीडीपी बढ़ाने की ज़रूरत है और जहां 2050 तक जनसंख्या में वृद्धि होती रहेगी और ये दोनों बातें कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ाने में बड़ा योगदान देती है.
(फीचर इमेज क्रेडिट: IPCC_CH twitter)