'विश्व आदिवासी दिवस' पर जल-जंगल-जमीन के लिए संघर्ष करते लोगों के हिस्से की बात होनी चाहिए
यूनाइटेड नेशन्स के मुताबिक़, पुरे विश्व में लगभग 476 मिलियन की आदिवासी आबादी है, जो 90 देशों में निवास करते हैं. ये दुनिया की कुल आबादी के 5 प्रतिशत हैं.
दिसंबर, 1994 को संयुक्त राष्ट्र महासभा के द्वारा पहली बार 9 अगस्त को ‘विश्व आदिवासी दिवस’ के रूप में घोषित किया गया, और अब तीन दशकों से 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस के रूप में पूरी दुनिया में मनाया जाता है.
यूनाइटेड नेशन्स के मुताबिक़, पुरे विश्व में लगभग 476 मिलियन की आदिवासी आबादी है, जो 90 देशों में निवास करते हैं. ये दुनिया की कुल आबादी के 5 प्रतिशत हैं. 7,000 से अधिक भाषाएँ इनके द्वारा बोली जाती हैं और ये विश्व भर में 5000 से अधिक संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं.
दुनिया भर के आदिवासी अपने परम्परागत अधिकारों के आधार पर लगभग 22 प्रतिशत भूभाग पर अपना सामूहिक दावा पेश करते हैं और यही भूभाग दुनिया की 80 प्रतिशत जैव विविधताओं से भरा हुआ है. इन विविधताओं को इन्होंने अपने परम्परागत ज्ञान और प्रकृति के साथ अपने लगाव के कारण बचाकर रखा हुआ है.
भारत और आदिवासी समुदाय
चाहे राजस्थान के रबारी, छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़, या ओडिशा के सौरा आदिवासी हों, पुरे विश्व में आदिवासियों की सबसे बड़ी जनसंख्या भारत में रहती है. 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की कुल आबादी का लगभग 8.6 फीसदी आबादी, आदिवासियों की आबादी है. देश में कुल 705 आदिवासी समुदाय निवास करते हैं. भारत के झारखंड राज्य में 26 फीसदी आबादी आदिवासी है. आजादी के समय झारखंड में आदिवासी जनजाति के लोगों की संख्या 35 फीसदी के करीब थी, जो कि 2011 की जनगणना के अनुसार, 26 फीसदी रह गई है.
कमोबेश हर जगह आंकडें यही कहते हैं कि पहले की तुलना में आदिवासियों की जनसँख्या कम हुई है. ऐसा इसीलिए हुआ क्योंकि औपनिवेशिक दौर में बाहरी लोगों ने आदिवासी बहुल इलाकों में प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों पर कब्जा करना शुरू कर दिया था.
दुनिया भर के आदिवासी समुदाय कई तरह की विभिन्नताओं के बावजूद साझी लड़ाई कर रहे हैं. उनके जंगल, ज़मीन, संस्कृति, मान्यताओं को बचाने के लिए उनका सामाजिक संघर्ष जारी है.
आदिवासियों एवं वनों का घनिष्ठ सम्बंध होता है. स्थानीय वनवासियों द्वारा वन एवं वन्य जीवों को अपने परिवार का अंग माना जाता रहा है. इसी वजह से वनों में स्वंत्रतापूर्वक रहते हुए आदिवासी समाज अपनी मान्यताएँ, पारंपरिक ज्ञान से सदैव वनों को संरक्षित करने का काम भी करते रहे हैं. अगर इस समाज को, इनके ज्ञान को, इनके मान्यताओं को अगर नहीं बचाया गया तो हमारे पर्यावरण पर अपरिवर्तनीय प्रभाव पड़ेगा. निजीकरण और वैश्वीकरण के इस दौर में विकास की राह आदिवासियों के जंगल से होकर ही गुजरती है, उन्हें नष्ट करती हुई, काटती हुई, विविधताओं को ख़त्म करती हुई. भारत के सन्दर्भ में बात करके ही आधुनिक विकास के मॉडल के खतरनाक परिणाम दिखने लग जाते हैं.
1865 के पहले तक भारत के कुल भू-भाग के लगभग 50 प्रतिशत हिस्से पर आदिवासी रहते थे. राष्ट्रीय वन नीति-1894 एवं 1952 द्वारा आदिवासियों को वनों का विरोधी मानते हुए उनके अधिकारों में कटौती की गई. 1980 के आंकड़े बताते हैं कि आदिवासी समुदाय के अधीन मात्र 21 प्रतिशत भू-भाग रह गया है.
हाल ही में भारत सरकार द्वारा अनुसूचित जनजाति व अन्य पारम्परिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम-2006 के माध्यम से पुन: आदिवासियों को उनका पारम्परिक अधिकार दिलाने की दिशा में ठोस कदम उठाया गया. इसके अलावा, गरीबी, शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोज़गारी की समस्याओं पर चर्चा करना और ठोस कदम उठाये जाने की सख्त ज़रुरत है.
(फीचर ईमेज क्रेडिट: UN Development @UNDP)