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तमाम बाधाओं को पार कर पिता-पुत्र की जोड़ी ने खड़ी की कारपेट कंपनी, आज 60 देशों में करते हैं निर्यात

राजस्थान स्थित जयपुर रग्स (Jaipur Rugs) की स्थापना 1978 में नंद किशोर चौधरी ने की थी। कंपनी देशभर के 600 गांवों के 40,000 से अधिक बुनकरों और कारीगरों को रोजगार देती है, और 60 से अधिक देशों को कालीन (carpet) निर्यात करती है।

तमाम बाधाओं को पार कर पिता-पुत्र की जोड़ी ने खड़ी की कारपेट कंपनी, आज 60 देशों में करते हैं निर्यात

Wednesday April 14, 2021 , 7 min Read

"जयपुर रग्स ने एक लंबा सफर तय किया है। आज, यह देश भर के 600 गांवों के 40,000 से अधिक बुनकरों और कारीगरों को रोजगार देता है। जयपुर रग्स के साथ काम करने वाला एक कारीगर प्रति माह 8,000 रुपये से 12,000 रुपये के बीच कमाता है। उन्हें तैयार की गई कालीन के प्रति वर्ग फुट के अनुसार भुगतान किया जाता है।"

70 के दशक की शुरुआत में, नंद किशोर चौधरी के पिता राजस्थान के एक छोटे से जिले चूरू में जूते की दुकान चलाते थे। जब 1975 में स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद नंद किशोर दुकान से जुड़े, तब उनका कारोबार घाटा में चल रहा था। इसलिए, उन्होंने दुकान बंद करने, और बैंक में कैशियर के रूप में काम करने का फैसला किया। यहां तक कि बैंक में काम करने के दौरान, वह बड़े और बेहतर अवसरों की खोज करते रहे। उनके पास एक विजन था कि किसी दिन वह अपना खुद का व्यवसाय चलाएंगे।


लगभग उसी समय, एक मित्र ने सुझाव दिया कि वह कालीन उद्योग में अपना हाथ आजमाएं, जो 70 के दशक के अंत और 80 के दशक की शुरुआत में भारत में एक आगामी सेक्टर था। नंद किशोर ने तुरंत ही आइडिया पर काम किया, और 1978 में जयपुर रग्स को लॉन्च करने के लिए अपने पिता से 5,000 रुपये उधार लिए और फिर कबी पीछे मुड़कर नहीं देखा।


नंद किशोर के बेटे, और दूसरी पीढ़ी के उद्यमी व जयपुर रग्स ग्रुप के निदेशक, योगेश चौधरी, योरस्टोरी को बताते हैं कि कैसे उनके पिता ने अपना व्यवसाय को आगे बढ़ाया और चलाया व कैसे इतने वर्षों के दौरान प्रासंगिक बने रहने में कामयाब रहे।


व्यक्तिगत यात्रा

योगेश का कहना है कि उनके पिता एक बेहद रूढ़िवादी मारवाड़ी परिवार से ताल्लुक रखते थे जहाँ "जाति व्यवस्था बहुत ही प्रमुख थी।" दूसरी ओर, राजस्थान के बुनकर, अछूत माने जाने वाले रैगर जाति के थे। यह उनके परिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों के बीच संघर्ष और विवाद का कारण बन गया।


योगेश कहते हैं, "मेरे पिता को कई सामाजिक समारोहों में आमंत्रित नहीं किया जाता था और उनको लगभग बहिष्कृत कर दिया गया था, क्योंकि वे तथाकथित अछूतों के साथ काम कर रहे थे।"


वह कहते हैं कि 1990 में उनके पिता ने अस्थायी रूप से गुजरात में बेस शिफ्ट करने का फैसला किया क्योंकि वहां कुशल श्रमिकों की उपलब्धता अधिक थी। इसके अलावा, उन्होंने महसूस किया कि बुनकरों और कारीगरों के साथ सीधे बातचीत करने से उन्हें बिजनेस में बिचौलियों को खत्म करने में मदद मिली, जिससे बेहतर वित्तीय नतीजे मिले।


यह दोनों पार्टी के लिए एक जीत का सौदा था और बुनकरों की आय में 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई, और कुछ मामलों में 200 प्रतिशत भी। यह महत्वपूर्ण था क्योंकि एक कालीन बनाने में तीन महीने से लेकर एक साल तक का समय लगता है।


योगेश बताते हैं, "कारीगरों ने तब और मेहनत करना शुरू किया जब उन्हें बेहतर मुआवजा दिया गया।"


2006 में योगेश 19 साल की उम्र में इस व्यवसाय में शामिल हो गए। कंपनी में उनके प्रवेश के लिए जो परिस्थितियां बनीं, वे बहुत उज्ज्वल नहीं थीं। टेक्नोलॉजी के प्रति उत्साही, योगेश वर्ष 2006 में अपने गृहनगर में थे। दरअसल वह मैसाचुसेट्स के बोस्टन कॉलेज में पढ़ रहे थे, और एक महीने के लिए अपने परिवार के साथ रहने के लिए आए हुए थे।


हालांकि, इस अवधि के दौरान एक डकैती और संगठन के कई वरिष्ठ लोगों द्वारा कंपनी को छोड़कर चले जाने ने योगेश को कॉलेज बीच में ही छोड़ने और बिजनेस को फुल टाइम ज्वाइन करने के लिए मजबूर किया।


अन्य चुनौतियों की ओर इशारा करते हुए, योगेश ने 2008-2009 के वित्तीय संकट के बारे में बात की। उनका कहना है कि उस समय कंपनी को लगभग 20 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था, और चूंकि यह आकार में अपेक्षाकृत छोटी थी, इसलिए कंपनी के अस्तित्व का बहुत कुछ दांव पर लग रहा था।


हालाँकि, जयपुर रग्स ने तब से एक लंबा सफर तय किया है। आज, यह देश भर के 600 गांवों के 40,000 से अधिक बुनकरों और कारीगरों को रोजगार देता है। जयपुर रग्स के साथ काम करने वाला एक कारीगर प्रति माह 8,000 रुपये से 12,000 रुपये के बीच कमाता है। उन्हें तैयार की गई कालीन के प्रति वर्ग फुट के अनुसार भुगतान किया जाता है।


शुरुआती वर्षों में दो करघों (Looms) से, कंपनी अब 7,000 करघों की मालिक है, इसके फाइनेंशियल्स के अनुसार, कंपनी ने वित्त वर्ष 2015 में 142 करोड़ रुपये से अधिक का राजस्व कमाया।

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बिजनेस मॉडल

एक कंपनी के रूप में जयपुर रग्स हाथ से तैयार की जाने वाली कालीनों में माहिर है। ब्रांड ने अपने सफर की शुरुआत हैंड-नॉटेड कालीनों के साथ की और पिछले 15 वर्षों में केवल हाथ से बने कालीनों में विशेषज्ञता का निर्माण किया।


पिछले कुछ वर्षों में कंपनी ने बड़े पैमाने विस्तार किया और डिजिटल रूप से भी अपनी स्थिति मजबूत की है। इसने ईआरपी सिस्टम को लागू किया है और डिजाइन और प्रिंटिंग के लिए कंप्यूटर एडेड डिजाइन (सीएडी) का उपयोग करता है, जिससे मैनुअल काम का भार कम हो गया है।


जयपुर रग्स ने 2018 में एक ऐप भी लॉन्च किया - ताना बाना। यह ऐप बुनकरों की गतिविधियों पर नजर रखने में मदद करता है, जिसमें काम करने की दर और कच्चे माल और रंगों की उपलब्धता शामिल है।


योगेश कहते हैं, "ऐप वास्तविक समय में हेड ऑफिस को अलर्ट भेजता है और शारीरिक हस्तक्षेप के बिना जमीनी स्तर पर समस्याओं को हल करने में मदद करता है।"


जयपुर रग्स मुख्य रूप से एक B2B बिजनेस है लेकिन कंपनी ने हाल के वर्षों में अपनी वेबसाइट भी लॉन्च की है। इसके दिल्ली, बॉम्बे, जयपुर, अहमदाबाद और लखनऊ में स्टोर हैं। इनके कारपेट की कीमत 5,000 रुपये से 5 लाख रुपये के बीच है।

आयात-निर्यात की बहस

भारत में कई प्रसिद्ध कालीन निर्माता हैं जैसे सैफ कारपेट्स, याक कारपेट्स (YAK Carpets) और ओबीटी रग्स। यहां तक कि भारतीय कालीन शिल्प कौशल दुनिया भर में लोकप्रिय है। फिर भी, जब बात नंबर्स की आती है तो इसमें एक अंतर दिखाई देता है।


मोर्डोर इंटेलिजेंस की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में निर्मित लगभग 90 प्रतिशत कालीनों का निर्यात किया जाता है। अप्रैल से नवंबर 2019 के बीच निर्यात 64,000 करोड़ रुपये ($916.15 मिलियन) से अधिक रहा।


योगेश खुद बताते हैं कि कंपनी का 85 प्रतिशत राजस्व अंतर्राष्ट्रीय बाजारों से आता है। जयपुर रग्स का निर्यात 60 से अधिक देशों में होता है, जिनमें अमेरिका, जापान, मध्य पूर्व, जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील आदि शामिल हैं।


आयात-निर्यात की बहस पर अपना दृष्टिकोण देते हुए, योगेश कहते हैं, "निर्यात बाजार से इतना अधिक व्यापार हो रहा था कि सबसे लंबे समय तक हम निर्यात में व्यस्त थे और घरेलू बाजार में देखने के लिए बहुत कम समय था।" भविष्य में यह ट्रेंड कम हो सकता है क्योंकि कंपनी खुदरा पर ध्यान केंद्रित करने की योजना बना रही है।

COVID-19 और भविष्य की योजनाएँ

कोरोनावायरस महामारी ने दुनिया भर के व्यवसायों को वर्क फ्रॉम होम यानी घर से काम करने के मॉडल को अपनाने के लिए मजबूर किया है। योगेश का कहना है कि बिजनेस को प्रोडक्शन साइड में अधिक व्यवधान का सामना नहीं करना पड़ा क्योंकि अधिकांश बुनकर और कारीगर शुरू से ही दूरस्थ रूप से काम कर रहे थे। हालाँकि, व्यापार को डिमांड साइड पर बड़ा झटका लगा।


यूरोपीय देशों से आने वाली मांग में कमी आई है, हालांकि जयपुर रग्स ने अमेरिका से मांग में 20 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की, जो इसका सबसे बड़ा बाजार भी है। योगेश का कहना है कि आगे जाकर, यह बैंगलोर और जयपुर में स्टोर खोलने की योजना बना रहा है। इस साल, यह "भारतीय बाजार में अपनी ब्रांड की उपस्थिति को मजबूत करने" पर भी ध्यान केंद्रित करेगा।


Edited by Ranjana Tripathi