उत्तर प्रदेश के मुदिता और राधेश ने मुर्गे के पंखों से बनाया खास फाइबर, इस फाइबर से हो रहा है कई उत्पादों का निर्माण
मुर्गे के पंखों से फाइबर बना कर मुदिता और राधेश ने अपने आइडिया को एक नए आयाम तक पहुंचाया है। आज इस खास फाइबर से दोनों कई तरफ के उत्पादों का निर्माण कर रहे हैं।
आप जब भी मुर्गे के बारे में सोचते होंगे तो आपके दिमाग में सबसे पहले अंडा या मांस आता होगा। या फिर मुर्गी पालन, जिसे ग्रामीण इलाकों में कई लोगों द्वारा किया जाता है। लेकिन क्या आपको पता है कि चिकन के पंखों से रेशा यानी फाइबर बनाने का भी एक तरीका है?
हम आपकी मुलाकात मुदिता और राधेश श्रीवास्तव से करा रहे हैं, जिन्होंने मुर्गे के पंखों से फाइबर बनाने का एक तरीका खोज लिया है। उत्तर प्रदेश के रहने वाले और टेक्सटाइल डिजाइनिंग की पढ़ाई करने वाले इस कपल ने 2018 में खनक डिजाइन स्टूडियो की स्थापना की।
सोशलस्टोरी से बात करते हुए मुदिता कहती हैं,
“मुर्गे के पंख से बना हुआ फाइबर किसी भी अन्य प्राकृतिक फाइबर की तुलना में बहुत नरम, हल्का और टिकाऊ होता है। दुनिया भर में बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए इससे इनोवेटिव और टिकाऊ किसी दूसरे फाइबर का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है।”
मुर्गे के पंखों को बिजनेस का स्रोत बनाना
चिकन खरीदते समय राधेश ने एक दिन ध्यान दिया कि एक किलो मुर्गे में सिर्फ 650 ग्राम मांस निकलता है और बाकी का 350 ग्राम 'अपशिष्ट' निकलता है। दंपत्ति ने पाया कि इस अपशिष्ट में मुर्गे की आंतरिक कोशिकाएं, त्वचा और पंख शामिल हैं।
दुर्भाग्य से इस 'अपशिष्ट' को कसाई अमूमन गटर, गंदे जलाशयों, कूड़े के ढेर और खुले क्षेत्रों में फेंक देते हैं। इससे जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, फ्लू और अन्य स्वास्थ्य से जुड़े अन्य खतरे पैदा होने की संभावना रहती है।
राधेश उस समय जयपुर में स्थित IICD से पोस्ट-ग्रेजुएशन कर रहे थे। मुदिता ने तब तक उसी संस्थान से टेक्सटाइल डिजाइनिंग में अपनी ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी कर ली थी।
मुदिता याद करते हुए बताती हैं,
“अगली सुबह उन्होंने कहा कि वह अपना प्रोजेक्ट रिसर्च इस अपशिष्ट पर करने के बारे में सोच रहे हैं। वह IICD में अपनी क्सास में गए और अपने दोस्तों और फैकल्टी के साथ अपने विचार साझा किए। उनके विचार सुनके सब लोग हंसने लगे और उनका मजाक बनाया।”
हालांकि राधेश इससे विचलित नहीं हुए और इस कपल ने प्रोजेक्ट को एक चुनौती के तौर पर लेने का फैसला किया।
राधेश बताते हैं,
“हम मुर्गीपालन के केंद्रों से निकलने वाले अपशिष्ट पर काम नहीं, बल्कि हम कसाई के यहां से निकलने वाले अपशिष्ट पर काम करते हैं। चिकन से मांस निकालने वाली भारत में तीन प्रकार की दुकानें हैं - फ्रोजेन मीट शॉप्स, चिकन मार्केट, और छोटी-छोटी झोपड़ियों में खुली दुकानें। हालांकि अपशिष्ट को डंपिंग ग्राउंड तक भेजने में सभी को बराबर समस्या को सामना करना पड़ता था। अब वे खुश हैं क्योंकि हमने उनसे सीधे अपशिष्ट लेते हैं, जिससे उनकी समस्या हल हो गई है।”
पंख से फाइबर तक की यात्रा
दोनों कॉलेज के लाइब्रेरी में गए और प्रोजेक्ट पर करना शुरू कर दिया। राधेश ने अपने काम के कुछ हिस्से को अपने रिसर्च में शामिल किया था। दुर्भाग्य से उनका फिर से मज़ाक उड़ाया गया और फैकल्टी ने केवल उन्हें पास होने लायक अंक और खराब प्रतिक्रिया दी।
इसके बाद भी ये दोनों हतोत्साहित नहीं हुए और इन्होंने अपना काम जारी रखा। 2014 में अपने अंतिम प्रोजेक्ट के तहत राधेश ने ज्यूरी के सामने इस रिसर्च को प्रस्तुत किया जिसमें इन दोनों ने अपशिष्ट से फाइबर को बनाया था।
मुदिता कहती हैं,
“जब उन्होंने अपनी प्रस्तुति पूरी की, तो ज्यूरी सदस्यों में से एक चंद्र शेखर भेड़ा ने खड़े होकर उन्होंने राधेश को सलामी दी। उन्होंने कहा कि यह पहली ज्यूरी है जिसमें उन्होंने कोई सवाल नहीं पूछा क्योंकि उन्होंने इस इनोवेशन के बारे में कभी सोचा ही नहीं था। यह हमारे लिए प्रेरणा और गर्व का क्षण था।”
बाद में बुंकारी के एक डिजाइन कंसल्टेंटें, कुर्मा राव ने इस कपल की मुलाकात हुई, जिन्होंने इन्हें बताया कि रिसर्च अभी तक पूरा नहीं हुआ है।
उन्होंने फिर से रिसर्च शुरू किया और आखिरकार वे कच्चे धागे का उत्पादन करने में कामयाब रहे। 2015 में उन्होंने धागे को हैंडलूम पर सेट किया और इसे फैब्रिक यानी कपड़े में बदल दिया। उन्होंने इस प्रक्रिया को "चिकन ऑन लूम" नाम दिया।
आदिवासियों और गरीबों को सशक्त बनाना
राधेश के अनुसार फाइबर की कीमत लगभग 2,000 रुपये प्रति किलोग्राम है। कपल का दावा है कि यह प्रोजेक्ट न केवल अपने आप में अनूठा है, बल्कि असनवार गांव के आदिवासी लोगों, कचरा उठाने वाले और कसाईयों को भी फायदा पहुंचा रहा है।
पावरलूम के आने से हथकरघा उद्योग को लगभग बंद हो गया है। इसके चलते असनवार गांव के आदिवासी बुनकर काम की तलाश में दूसरे क्षेत्रों में पलायन कर रहे थे। हालांकि खनक डिजाइन स्टूडियो की कोशिशों के चलते अब वही लोग अपने मूल क्षेत्रों में दोबारा काम पर लौटने लगे हैं।
पहले पांच से छह सदस्यों वाला एक आदिवासी परिवार 200 से 250 रुपये प्रति दिन कमाता था। हालांकि कपल का दावा है कि अब परिवार का प्रत्येक सदस्य इतने ही रुपये कमा रहा है। इससे पूरे परिवार की आय में कई गुना की बढ़ोतरी हुई है। दूसरी ओर प्रति दिन 40 रुपये से 50 रुपये कमाने वाले रैगपिकर्स अब प्रति दिन 150 रुपये से 200 रुपये कमा रहे हैं।
इसी तरह पहले जो कसाई अपशिष्ट के निपटान की समस्या से परेशान रहते थे, उन्हें भी इस उद्यम से लाभ मिल रहा है।
राधेश कहते हैं,
“हम एक समय में 20 लोगों के समूहों को ट्रेनिंग देने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रमों की योजना बनाते हैं। कारीगरों को उनके कौशल के अनुसार ट्रेनिंग दिया जाता है। इन ट्रेनिंग कार्यक्रमों को दो चरणों में बांटा जाता है - बेसिक और एडवांस ट्रेनिंग कार्यक्रम। बेसिक कार्यक्रम की अवधि एक महीने है जबकि एडवांस कार्यक्रम 15 दिनों का है। सिर्फ कारीगर ही नहीं, बल्कि रैगपिकर्स भी इन कार्यक्रमों का हिस्सा हैं।”
आगे की योजना
यह टीम स्टार्टअप ओएसिस की INVENT नाम के इनक्यूबेश प्रोग्राम में शामिल है, जिसकी अवधि एक साल की है। यह प्रोग्राम विल्ग्रो, यूके सरकार और प्रौद्योगिकी विकास बोर्ड के समर्थन से आयोजित कराया जा रहा है। इसके अलावा स्टार्टअप को CIIE से स्ट्रैटेजी सपोर्ट के साथ 50 लाख रुपये की फंडिंग भी मिली है।
राधेश कहते हैं,
“हम विल्ग्रो और स्टार्टअप ओएसिस के समर्थन के साथ अपनी ए सीरिज की फंडिग राउंड को आगे बढ़ाने की प्रक्रिया में भी हैं। हमारा सपना भारत के प्रत्येक हिस्से में इस परियोजना को शुरू करना है। अगले दो वर्षों में हम अधिक कारीगरों और रैगपिकर्स को जोड़ने, कच्चे माल की क्षमता बढ़ाने, नए उत्पादों को लॉन्च करने और निर्यात बाजार को साधने की योजना पर काम करेंगे।”