कॉरपोरेट लाइफ छोड़कर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में बच्चों का बचपन संवारने में लगे आशीष श्रीवास्तव
आशीष श्रीवास्तव शिक्षार्थ ट्रस्ट एनजीओ चलाते हैं. बस्तर के संघर्षग्रस्त हालात के बीच शिक्षार्थ ट्रस्ट बच्चों की लाइफ में पॉजिटिव बदलाव लाने का काम कर रहा है. YourStory ने शिक्षार्थ ट्रस्ट के काम और बस्तर जैसे क्षेत्र में काम करने वाली चुनौतियों को लेकर आशीष श्रीवास्तव से विस्तार से बातचीत की.
एक ऐसे समय में जब लोग तेजी से कॉरपोरेट लाइफ की ओर भाग रहे हैं तब आशीष श्रीवास्तव ने आज से करीब 10 साल पहले अपनी कॉरपोरेट लाइफ छोड़ दी थी. उसके बाद से ही वह छत्तीसगढ़ के रिमोट ही नहीं बल्कि नक्सल प्रभावित बस्तर में आदिवासी बच्चों की लाइफ को संवारने में लगे हुए हैं.
आशीष श्रीवास्तव शिक्षार्थ ट्रस्ट एनजीओ के को-फाउंडर और प्रोग्राम हेड हैं. बस्तर के संघर्षग्रस्त हालात के बीच शिक्षार्थ ट्रस्ट बच्चों की लाइफ में पॉजिटिव बदलाव लाने का काम कर रहा है. YourStory ने शिक्षार्थ ट्रस्ट के काम और बस्तर जैसे क्षेत्र में काम करने वाली चुनौतियों को लेकर आशीष श्रीवास्तव से विस्तार से बातचीत की.
आप पिछले 10 साल से बस्तर में बच्चों के लिए काम कर रहे हैं. आप मुख्य रूप से किन मुद्दों पर काम करते हैं?
हम नक्सल इलाकों के और नक्सल प्रभावित बच्चों के साथ काम करते हैं. हम बच्चों के मुख्य रूप से तीन मुद्दों पर काम करते हैं.
पहला मुद्दा बच्चों के स्कूल पहुंचने का है. क्योंकि संघर्ष के कारण स्कूल या तो तहस-नहस हो गए हैं या फिर टीचर्स स्कूल नहीं जा पाते हैं या स्कूल नहीं खुलते हैं या नहीं चलते हैं. बहुत सारे बच्चे ड्रॉपआउट हैं.
दूसरा मुद्दा यह है कि एक बच्चे को स्कूल या समुदाय में सुरक्षित माहौल कैसे मिले. एक ऐसी जगह जहां पर वे करुणा, सहानुभूति, अहिंसा जैसी चीजें सीख सकें.
तीसरा मुद्दा सरकार या विभिन्न एनजीओ द्वारा मुहैया कराए जाने वाले समाधान को यहां के बच्चों के हिसाब से ढालने का है. उसे यहां के बच्चों के हिसाब से बनाना जरूरी है.
हमें यूनिवर्सल कॉन्सेप्ट और लोकल कॉन्सेप्ट में अंतर करना जरूरी है. यहां के बच्चों के लिए ए फॉर एयरप्लेन का कोई मतलब नहीं है क्योंकि उन्होंने कभी एयरप्लेन कभी देखा ही नहीं है. उनके लिए ए फॉर एप्पल सुविधाजनक है. हम उन्हें अ से अनार की बजाय अ से अमरूद पढ़ाते हैं.
शिक्षार्थ ट्रस्ट शुरु करने की वजह क्या? आपने इसकी शुरुआत कैसे की?
मैं 2011-12 में दिल्ली में था और कॉरपोरेट जॉब कर रहा था. वह मुझे बहुत पसंद नही आ रहा था. मेरा मानना था कि जब देश की 70 फीसदी आबादी गांवों में रहती है तो हम जो मुट्ठीभर लोग सोशल वर्क करना चाहते हैं, वह अपना सारा ध्यान शहरों पर क्यों लगा रखा है.
दिल्ली में मैं देखता था कि एमसीडी के एक स्कूल में 10-12 एनजीओ काम कर रहे हैं. वहीं, दिल्ली से 50 किमी बाहर कुछ भी नहीं दिखता था. यह सब देखने के बाद 2012 में भारत भ्रमण पर निकला था.
मेरा विचार था कि एक साल मैं ग्रामीण भारत में घूमूंगा. घूमते-घूमते मैं दंतेवाड़ा पहुंचा और वहां काम करना शुरू कर दिया. इसके बाद 2015 में मैंने शिक्षार्थ ट्रस्ट शुरू किया. आज शिक्षार्थ ट्रस्ट को सात साल हो गए हैं.
आपके काम का दायरा क्या है? आप अभी तक कितने बच्चों तक पहुंचे हैं?
हम 140 से अधिक सरकारी स्कूलों और सामुदायिक सेंटरों में काम करते हैं. इसमें हम करीब 8000 बच्चों तक पहुंच रहे हैं. बीच-बीच में हम सरकार के साथ भी काम करते हैं और इस दौरान पूरे जिले में काम करते हैं.
हालांकि, हमारा मुख्य फोकस 8000 बच्चों पर अधिक है. पिछले सात सालों में हमने इस क्षेत्र में करीब 50 हजार बच्चों के साथ काम किया है. इसमें प्रशासन के साथ औऱ प्रशासन के बिना दोनों तरह के काम शामिल हैं. फॉर्मल एजुकेशन से दूर बच्चों को भी हम वापस ला रहे हैं. सलवा जुडुम के बाद अब जाकर सुकमा में 97 स्कूल दोबारा खुले हैं.
बता दें कि, साल 2005 में कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा ने नक्सलियों से मुकाबले के लिए आम लोगों को हथियार थमाकर सलवा जुडुम की स्थापना की थी. बाद में इसे तत्कालीन भाजपा सरकार ने भी अपना समर्थन दे दिया था. साल 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को सलवा जुडुम को किसी भी तरह की सहायता देने से इनकार कर दिया था और 2011 में खत्म करने का आदेश दे दिया था.
आज ऑनलाइन एजुकेशन बेहद तेजी से आगे बढ़ रही है. आप ऑफलाइन एजुकेशन के माध्यम से कितने बच्चों तक पहुंचने में सक्षम रहे?
कोविड-19 महामारी के दौरान लोग ऑनलाइन एजुकेशन का गाना गा रहे थे लेकिन 70 फीसदी बच्चों के पास ऑनलाइन शिक्षा हासिल करने की सुविधा तो थी नहीं. इसको देखते हुए हमने ऑफलाइन लर्निंग सॉल्यूशन बनाए थे जो कि हमारे पार्टनर्स के माध्यम से 3.5 लाख से अधिक बच्चों तक पहुंचे थे.
हमने अपना सॉल्यूशन ओपन सोर्स कर दिया था और उसे एडिट किया जा सकता था. हमारे सॉल्यूशन को 28 से अधिक संगठनों ने अपने हिसाब से लागू किया. हम आगे सुकमा जैसे और भी क्षेत्रो में जाने का प्रयास कर रहे हैं 2028 तक हमारी योजना 10 लाख बच्चों तक पहुंचने की है.
क्या आपका ऑनलाइन जाने के बारे में विचार है?
हमारा डिजिटल होने का विचार है लेकिन इन इलाकों में अभी डिजिटल होने में समय लगेगा. यहां डिजिटल होने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है. यहां इंटरनेट नहीं है, मोबाइल नहीं है. डिजिटल जाने को लेकर हम थोड़ा स्टडी कर रहे हैं.
हम केवल एक ऐप बनाकर जबरदस्ती डिजिटल होने की होड़ में शामिल नहीं होना चाहते हैं. कोविड-19 महामारी के दौरान जब छत्तीसगढ़ राज्य में ऑनलाइन एजुकेशन पहुंचाने की कोशिश की गई तब सरकार केवल 30 फीसदी बच्चों तक पहुंच पाई थी और बस्तर जैसी जगहों पर यह केवल 5 फीसदी तक पहुंची थी.
आपके ट्रस्ट को प्रशासन का कितना सहयोग मिलता है?
प्रशासन हमें कभी रोकता नहीं है. हम कभी उनसे आर्थिक मदद नहीं मांगते हैं. अगर कोई काम नहीं हो रहा है तो इसका मतलब यह नहीं है कि प्रशासन को नहीं पता है कि क्या करना है. प्रशासन को पता होता है कि क्या करना है, लेकिन काम नहीं होने के कई दूसरे कारण होते हैं.
हमें उनकी मंजूरी की आवश्यकता होती है जो कि अधिकतर मिल जाती है. हालांकि, यह बात सही है कि इन इलाकों में एनजीओ को लेकर उतनी स्वीकार्यता नहीं है.
आपके काम को लेकर नक्सलियों की ओर से क्या प्रतिक्रिया रहती है? क्या कभी किसी तरह की समस्या का सामना करना पड़ा?
हमारा नक्सलियों से कभी कोई आमना-सामना तो हुआ नहीं. वैसे भी शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर ऐसा कोई विरोध नहीं है. हालांकि, सुरक्षा हमेशा एक चिंता होती है. ऐसे इलाकों में जाने से हम बचते हैं जहां मुठभेड़ हो रही होती है या फिर बहुत अंदर के इलाकों में भी हम तभी जाते हैं जब पूरा सहयोग मिलता है. इसके कारण हमारे काम की रफ्तार थोड़ी धीमी होती है. दिल्ली या मुंबई में रहते हुए हम काम की जो रफ्तार छह महीने या साल भर में पकड़ लेते हैं उसके लिए यहां अब के समय में भी कम से कम 3 साल लगते हैं.
हमें बाहरी होने के कारण भी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. समुदाय के लोग भी हमें जल्दी रिस्पांस नहीं देते हैं. संबंध बनाने में थोड़ा समय लगता है. पूरा सहयोग तो नहीं लेकिन हम गांव में जा सकते हैं. सपोर्ट तो अभी भी नहीं है.
आपके शिक्षार्थ ट्रस्ट में कुल कितने लोग हैं? आपकी टीम किस तरह से काम करती है?
हमारी 45 लोगों की टीम है जिसमें 30 स्थानीय युवा हैं. ये युवा 12वीं पास, ग्रेजुएट या पोस्ट-ग्रेजुएट हैं. बाकी 15 लोग बाहरी हैं जो कि बाहर से आकर काम करते हैं. यह टीम नए-नए आईडियाज तैयार करती है.
स्मृति ईरानी ने एचआरडी मिनिस्टर रहने के दौरान हमारे काम को सराहा था. साल 2020 में ग्रासरूट इनोवेशन के लिए हमें राष्ट्रपति से मिलने के लिए बुलाया गया था. इसमें देशभर के अलग-अलग क्षेत्रों के 35 लोगों को बुलाया गया था.
आपके ट्रस्ट को औसतन कितनी फंडिंग मिलती है? उसका सोर्स क्या है?
हमारी 60 फीसदी फंडिंग इंडिविजुअल डोनेशन से आती है. स्कूल, कॉलेज या परिचित लोग कुछ-कुछ हमेशा देते रहते हैं. बाकी फाउंडेशन या सीएसआर आदि से आती है. हालांकि, यह कम है. यह रिमोट इलाका है और ऊपर से राजनीतिक तौर पर अस्थिर है, इसलिए फंडिंग को लेकर थोड़ी समस्या आती है.
पिछले साल हमने 1 करोड़ रुपये कलेक्ट किए जबकि हमारा लक्ष्य 1.5 करोड़ रुपये का था. 2019 तक हमारा खर्च 2-2.5 लाख रुपये रहता था लेकिन अब यह 8-9 लाख रुपये हो गया है. इसमें अधिकतर सैलरी और बच्चों के लर्निंग प्रोडक्ट्स में जाता है.
आप जिन बच्चों के साथ काम कर रहे हैं उनके पैरेंट्स का कैसा रिस्पांस रहता है?
हम जिन बच्चों के लिए काम कर रहे हैं उनके पैरेंट्स का अच्छा रिस्पांस है. सबसे बड़ी बात है कि ये बच्चे पहली जनरेशन के स्कूल जाने वाले बच्चे हैं. पहले भी पढ़ाई होती थी लेकिन यहां अब स्कूल का कॉन्सेप्ट नया है. इंटरेस्टिंग नहीं होने के कारण बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं और फिर ड्रॉपआउट की समस्या आ जाती है.
एक आदिवासी बच्चा जिसे स्वतंत्र घूमने की आदत है. अगर उसे 6 घंटे के लिए एक चारदीवारी में बंद कर दूं तो उसके लिए घुटनभरा माहौल हो जाता है. पढ़ाने का तरीका इंटरेस्टिंग बनाने से बच्चे खुद उससे जुड़ते हैं. इससे पैरेंट्स भी जुड़ने लगते हैं. हम जब कोई ऐसी एक्टिविटी कराते हैं तो पैरेंट्स भी उसे देखते हैं.
हम मुख्य रूप से क्लास-1 से लेकर क्लास-8 तक के बच्चों के साथ काम करते हैं. ज्यादातर क्लास-1 से लेकर क्लास-6 तक के छात्र हैं और 1000 के आस-पास क्लास-6 से क्लास-8 तक के छात्र हैं. ये सभी बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं और हमारी टीम के सदस्य वहां जाकर वालंटियर करते हुए पढ़ाते हैं.
आपने जिन बच्चों के साथ काम किया है, क्या उनमें से किसी ने आप लोगों को किसी खास से प्रभावित किया है? क्या किसी बच्चे ने अनोखी प्रतिभा का प्रदर्शन किया?
हमारी टीम ने जिन बच्चों को पढ़ाया उनमें एक रौशन सोढ़ी नाम के छात्र हैं. उन्हें साल 2017 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने उनके साइंटिफिक आइडिया देने के लिए इग्नाइट अवार्ड से सम्मानित किया था. इग्नाइट अवार्ड पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम की याद में शुरू किया गया था.
उनका कहना था कि हमारे टीचर्स जब चुनाव कराने जाते हैं तो नक्सली वोटिंग मशीन यानि ईवीएम को खराब कर देते हैं. इससे मेरे गुरुजी को भी खतरा रहता है. इसके लिए मशीन में एक ऐसा लाल बटन होना चाहिए जिसे दबाते ही सारे वोट कलेक्टर के पास चले जाएं. वह क्लाउड ट्रांसफर वोटिंग मशीन के बारे में बात कर रहे थे.
इग्नाइट अवार्ड के लिए चुने गए आइडियाज पर साइंटिस्ट काम करते हैं और सफल होने पर उसे आइडिया देने वाले के नाम पर पेटेंट करा दिया जाता है. हालांकि, सोढ़ी के आइडिया पर अभी तक हमारे पास कोई लेटेस्ट अपडेट नहीं है.
एक अन्य 12वीं के छात्र हिडमा हैं. हिडमा कभी नक्सलियों के चिल्ड्रेंस विंग के सदस्य थे. वह एक-दो माइंस ब्लास्ट के भी शिकार हुए हैं. उन्होंने अंदरूनी इलाके से भागकर यहां अपना एडमिशन कराया.
उन्होंने हिंदी सीखी. उन्हें कविताएं और कहानियां लिखनी पसंद है. उनका अपना एक वर्डप्रेस का ब्लॉग है. मेरे पास ऐसा कोई रिकॉर्ड तो नहीं है लेकिन वह छत्तीसगढ़ के पहले ब्लॉगर हैं और शायद देश के भी पहले चिल्ड्रेन ब्लॉगर हों. उन्होंने सामाजिक मुद्दों जैसे नशा और नक्सलियों के बारे में लिखा है. स्कूल के अपने अनुभव के बारे में भी लिखा है.