जब स्वीडिश नोबेल एकेडमी ने मैरी क्यूरी से कहा- आप नोबेल पुरस्कार लेने मत आइए
आज उस मैरी क्यूरी की 115वीं जयंती है, जिसने विज्ञान और मानवता का इतिहास बदल दिया था.
“वह एक स्त्री थी. वह एक सताए हुए मुल्क की स्त्री थी. वह गरीब थी. वह खूबसूरत थी. एक बड़े मकसद ने उसे उसके देश से दूर यहां पेरिस बुला भेजा था, जहां उसने गरीबी और अभाव में बहुत साल गुजारे. जहां उसकी मुलाकात एक ऐसे शख्स से हुई, जो उसी की तरह काबिल और बुद्धिमान था. उन्होंने शादी की. उनकी खुशी असीम थी. सबसे हताश और निराश दिनों में अनथक श्रम के बाद उन्होंने रेडियम की खोज की थी. इस खोज ने न सिर्फ विज्ञान और दुनिया की दिशा बदली, बल्कि मनुष्यता को एक खतरनाक बीमारी का इलाज भी दिया. जब उनकी ख्याति पूरी दुनिया में फैल गई थी, जब जीवन में थोड़ी स्थिरता, थोड़ा सुख आ रहा था, क्रूर नियति ने मैरी से उसका साथी छीन लिया. लेकिन इस दुख, संकट, बीमारी और अकेलेपन में भी मैरी ने अपना काम जारी रखा. उसकी बाकी की पूरी जिंदगी विज्ञान और मानवता की सेवा को समर्पित है.”
ये पंक्तियां ईव क्यूरी ने मैरी क्यूरी की जीवनी की भूमिका में लिखी हैं. ईव मैरी की सबसे छोटी बेटी थीं. आज मानव इतिहास की इस महान वैज्ञानिक की जयंती है. 155 साल पहले आज ही के दिन उनका जन्म हुआ था.
आगे इस कहानी को पढ़ने से पहले सबसे ऊपर जो एक तस्वीर है, उसे ध्यान से देखिए. ये 1927 की फोटो है. बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में क्वांटम मैकेनिक्स पर हो रही इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस की. इस तस्वीर में आपको विज्ञान की दुनिया के बहुत सारे जाने-पहचाने चेहरे दिखेंगे. अल्बर्ट आइंस्टीन, मैक्स प्लांक, पॉल लेग्नेविन, चार्ल्स थॉमसन, रीस विल्सन, रिचर्डसन. वो सारे लोग, जिनके बिना इस नई आधुनिक दुनिया की कल्पना भी नामुमकिन है. और इन सारे पुरुषों के बीच में फ्रंट रो बाएं से तीसरे नंबर पर मैक्स प्लांक के बगल में एक स्त्री बैठी है. 28 पुरुषों के बीच अकेली स्त्री. उसका नाम है मैरी क्यूरी.
एक स्त्री, जिसने न सिर्फ वैज्ञानिक बनने का सपना देखा, बल्कि एक स्त्री होकर वैज्ञानिक बनने का सपना देखा. जो इतिहास की इकलौती ऐसी वैज्ञानिक है, जिसे फिजिक्स और केमेस्ट्री, दोनों स्ट्रीम्स में अपने काम के लिए नोबेल पुरस्कार मिला. एकमात्र ऐसी स्त्री, जिसे दो-दो बार नोबेल पुरस्कार मिला.
पोलैंड के एक आदर्शवादी और निर्धन परिवार में मैरी का जन्म
155 साल पहले आज ही के दिन पोलैंड के एक आदर्शवादी और निर्धन शिक्षक परिवार में मैरी का जन्म हुआ था. मां और पिता, दोनों के परिवारों के पास जो भी पुश्तैनी जमीन-जायदाद थी, सब रूसी सरकार ने जब्त कर ली थी क्योंकि वो उन लोगों में से थे, जो पोलैंड के रूसी कब्जे के खिलाफ अपने देश की आजादी के लिए बोलते थे. परिवार के पास कोई पैसा, संसाधन नहीं था.
गरीबी और नियति, दोनों ही एक दिन मैरी को पेरिस ले आई. यहां पेरिस में मैरी ने पहले बतौर गवर्नेस काम किया और अपनी पढ़ाई का खर्च खुद उठाया. वह इतनी गरीब थी कि कई बार उसके पास खाने को पैसे भी न होते. जब शहर का तापमान शून्य से नीचे चला जाता तो ठंड से बचने के लिए वो एक के ऊपर एक अपने सारे कपड़े पहन लेती. वो दिन में यूनिवर्सिटी जाती और शाम को बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती.
ईव क्यूरी अपनी मां की बायोग्राफी में लिखती हैं,
“घर से दूर पेरिस शहर शहर में अकेली उस लड़की के चेहरे पर एक सतत उदासी थी. उसके बाल बिखरे होते और उसे अपने कपड़ों को सजाने और चेहरे को संवारने का कोई होश नहीं होता. वो अपनी पढ़ाई, प्रयोगशाला, ठंड के दिनों में खुद को गर्म रखने और अगले दिन के ब्रेड की फिक्र में हमेशा इतनी खोई होती कि कई सालों तक उसे इस बात का इलहाम भी नहीं हुआ कि जिस शहर में वो रहती थी, वो शहर कितना खूबसूरत था. कि शहर के बीचोंबीच एक नदी थी, जिसे उसने कभी ठहरकर नहीं देखा था. पोलैंड में जो दुर्भाग्य उसके परिवार के सिर आ पड़ा था, मैरी उस दुख और दुर्भाग्य को अपने साथ लेकर आई थी. एक ही चीज उसे जिंदा रखे थी- और वो था विज्ञान में उसकी अपार निष्ठा और विश्वास.”
मैरी क्यूरी उस इंटरनेशनल साइंस कॉन्फ्रेंस की तस्वीर में ही अकेली महिला नहीं थीं. वो पेरिस यूनिवर्सिटी में फिजिक्स, केमेस्ट्री और मैथमेटिक्स पढ़ने वाली भी पहली महिला थीं. वहां से फिजिक्स में डिग्री लेने के बाद गैब्रिएल लिपमैन की लेबोरेटरी में काम करने वाली भी पहली महिला थीं. पेरिस की सॉरबोन यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाली भी पहली महिला थीं जिसे बार- बार अपनी काबिलियत साबित करने के लिए मर्दों के मुकाबले कई गुना ज्यादा मेहनत करनी पड़ती थी. जिसकी क्षमताओं को सहकर्मी मर्द हमेशा शक की निगाह से देखते थे, सिवा एक के.
पियरे क्यूरी से पहली मुलाकात
उस शख्स कर नाम था पियरे क्यूरी. पियरे ने मैरी का रिसर्च पेपर पढ़ा था और पढ़कर अचंभित हुआ था. ईव लिखती हैं कि मैरी की तरह पियरे भी बेहद शर्मीला, संकोची और जवानी के राग-रंग से दूर दिन भर सिर्फ प्रयोगशाला में अपना वक्त बिताने वाला व्यक्ति था. लेकिन पियरे को मैरी से प्यार हो गया. मैरी पहले तो दूर-दूर रहीं, इनकार करती रहीं, लेकिन फिर उन्हें भी लगा कि इस शहर में कोई और उन्हें उस तरह समझ नहीं सकता, जैसे ये इंसान समझता है.
पियरे की मृत्यु पर मैरी ने अपनी डायरी में लिखा था- “तुम कहते थे कि तुमने ऐसा आत्मविश्वास पहले कभी नहीं महसूस किया था, जैसा मुझसे अपने प्यार का निवेदन करते हुए तुम्हें हुआ था. इतना यकीन था तुम्हें कि हम एक-दूसरे के लिए ही बने हैं. मैं हंसती थी, लेकिन आज मैं जानती हूं कि तुम सही थे.”
ईव क्यूरी की किताब में एक पूरा अध्याय मैरी और पियरे की शादी के शुरुआती सालों के बारे में है. घर में पैसे अब भी नहीं थे, साइंस रिसर्च के लिए जरूरी सपोर्ट भी नहीं था, दोनों अपने घर, अपनी तंख्वाह के पैसे लगाकर रिसर्च के काम में लगे हुए थे. मैरी पूरा दिन लैबोरेटरी में बिताने के बाद छोटी बच्ची की देखभाल करतीं, खाना बनातीं और घर के दूसरे काम करतीं. फिर भी दोनों एक-दूसरे के साथ बेहद खुश थे.
जब नोबेल पुरस्कार से गायब था मैरी क्यूरी का नाम
1903 में मैरी क्यूरी और उनके पति पियरे क्यूरी को संयुक्त रूप से रेडियोएक्टिविटी की खोज के लिए फिजिक्स के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. लेकिन बात इतनी सीधी नहीं है.
फ्रेंच साइंस एकेडमी ने सिर्फ पियरे क्यूरी का नाम नोबेल पुरस्कार समिति के पास भेजा था. जब पियरे को इस बारे में पता चला तो उन्हें आपत्ति जताई. उन्होंने नोबेल समिति को भेजे पत्र में लिखा- “मैं और मैरी क्यूरी दोनों सालों से इस पर काम कर रहे हैं. इसलिए सिर्फ एक व्यक्ति को सम्मानित करना अनैतिक और अन्यायपूर्ण है. मैं गुजारिश करूंगा कि मैरी क्यूरी का नाम भी मेरे नाम के साथ नामित किया जाए.” पियरे ने लगातार समिति को कई पत्र लिखे. अंत में उन्हें यह कहना पड़ा कि या तो दोनों का नाम होगा या फिर किसी का भी नहीं.
नोबेल समिति ने अंत में हामी भर दी और पुरस्कार के लिए दोनों का नाम नामित किया गया. लेकिन पुरस्कार लेने के लिए सिर्फ पियरे क्यूरी को बुलाया गया था. पियरे क्यूरी अकेले ही स्टॉकहोम गए. इतना ही नहीं, स्वीडिश एकेडमी ने अपने भाषण में रेडियोएक्टिविटी में मैरी क्यूरी के योगदान का ढंग से जिक्र भी नहीं किया. स्वीडिश एकेडमी के अध्यक्ष ने अपने भाषण में कहा, “अच्छा है, अगर एक पुरुष के काम में उसकी संगिनी का भी योगदान हो.”
मैरी के काम को कमतर आंकने और उसका पूरा श्रेय पियरे क्यूरी को दे देने की फ्रेंच अकादमिकों से लेकर स्वीडिश नोबेल कमेटी तक की कोशिशें चलती रहीं, लेकिन मैरी का काम वक्त के साथ इतना बड़ा हो गया कि उसे इग्नोर करना वैज्ञानिकों के लिए भी मुमकिन नहीं था.
रेडियम और पोलोनियम की खोज के लिए दूसरा नोबेल पुरस्कार
8 साल बाद 1911 में मैरी क्यूरी को दोबारा नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इस बार यह पुरस्कार उन्हें केमेस्ट्री में रेडियम और पोलोनियम की खोज के लिए दिया गया. बहुतों ने अब भी इस काम का सारा श्रेय पियरे को दे दिया. उनका कहना था कि ये तो पुराना ही काम है. इसके लिए वो अलग से पुरस्कार की हकदार नहीं. लेकिन ये सब चर्चे और अफवाहें असल विज्ञान और श्रम के सामने टिकने वाली चीजें नहीं थीं.
नओमी पाश्चॉफ अपनी किताब “मैरी क्यूरी एंड द साइंस ऑफ रेडियोएक्टिविटी” में विस्तार से उस मिसोजिनी की चर्चा करती हैं, जो अपने जीवन काल में मैरी क्यूरी को झेलनी पड़ी. ईरानी मूल की फ्रेंच ग्राफिक राइटर और फिल्ममेकर मरजान सतरापी ने मैरी क्यूरी के जीवन पर एक कमाल की फिल्म बनाई है- रेडियोएक्टिव. इस फिल्म में उस मिसोजिनी की झलक बार-बार दिखाई पड़ती थी.
1911 में जब नोबेल की घोषणा हुई, तब भी नोबेल समिति चाहती थी कि मैरी पुरस्कार लेने खुद न आएं क्योंकि पियरे की मृत्यु के बाद अपने एक सहयोगी वैज्ञानिक के साथ उसके अफेयर की खबरें बहुत अशोभनीय ढंग से लोकल अखबारों में छापी गई थीं.
पियरे की मृत्यु और मानो जीवन का अंत
मैरी आत्मसम्मान के साथ सिर उठाकर खड़ी रहीं और पुरस्कार लेने खुद स्टॉकहोम गईं. इस बार पियरे उनके साथ नहीं थे. 5 साल पहले एक सड़क दुघर्टना में उनका निधन हो गया था. पियरे की मृत्यु पर मैरी ने अपनी डायरी में लिखा-
“पियरे, मेरे पियरे, तुम वहां हो. घायल, स्थित, शांत. गहरी नींद में सोते हुए. तुम्हारा चेहरा अब भी कितना स्नेहिल और निर्मल है. मानो तुम एक ऐसे अंतहीन सपने में खो गए हो, जहां से वापस नहीं लौट सकते. तुम्हारे होंठ, जिन्हें मैं प्यार से लालची होंठ कहा करती थी, रंगहीन हो गए हैं. तुम्हारी दाढ़ी अब भी सफेद है. बाल दिख नहीं रहे क्योंकि सिर के घावों ने उन्हें ढंक लिया है. तुमने कितना कष्ट सहा, कितनी असहनीय पीड़ा से गुजरे. तुम्हारे कपड़े रक्त से सने हुए हैं. तुम्हारे सिर को कितनी तकलीफ, कितना दर्द हुआ है, जिसे मैं अपने दोनों हाथों में भरकर हमेशा सहलाती थी.”
“मैंने तुम्हारे पलकों को चूमा. वो आज भी वैसे ही बंद थीं, जैसे हमेशा चूमे जाते हुए तुम उन्हें बंद कर लेते थे. शनिवार की सुबह हमने तुम्हें ताबूत में बंद किया. विदा से पहले आखिरी बार मैंने तुम्हारे ठंडे चेहरे को चूमा हमेशा की तरह. हमारी जो तस्वीर तुम्हें सबसे ज्यादा पसंद थी, वो तुम्हारे साथ जानी चाहिए. तुम ठीक कहते थे. हम एक-दूसरे के लिए ही बने थे…. अब सबकुछ खत्म हो गया है. पियरे धरती के नीचे गहरी नींद में सो रहा है. यह सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ का अंत है.”
पहला विश्व युद्ध और युद्ध के मैदान में मैरी क्यूरी
गरीबी, अभाव और जीवन के संघर्षों ने मैरी की सेहत पहले ही बहुत खराब कर दिया था. लेकिन अपने वैज्ञानिक प्रयोगों के कारण लगातार रेडिएशन के संपर्क में रहने का उनकी सेहत पर बहुत बुरा असर पड़ा. ईव क्यूरी अपनी किताब में लिखती हैं- “मैरी 37 साल की थीं, जब मेरा जन्म हुआ. जब तक मैं बड़ी हुई, वह ऑलरेडी एक तेजी से बूढ़ी और कमजोर हो रही थीं.”
मैरी के जीवन में कुछ भी उनका अपने लिए नहीं था. सबकुछ विज्ञान के लिए, समाज के लिए, मानवता की बेहतरी के लिए था. रेडियोएक्टिविटी और रेडियम की खोज ने एक्सरे मशीन की बुनियाद रखी. पहले विश्व युद्ध के समय जब मामूली सी चोटों को गंभीर समझकर जान बचाने के लिए लोगों के हाथ-पैर म्यूटीलेट किए जा रहे थे, मैरी ने सरकार से अपील की कि वो अपनी एक्सरे मशीन के साथ वॉर जोन में जाना चाहती हैं. इसके लिए उन्हें प्रेस में जाने और अपना नोबेल पुरस्कार लौटाने की धमकी देने तक काफी लड़ाई लड़नी पड़ी.
उन एक्सरे मशीनों और कई टन रेडियम को पेरिस से 200 किलोमीटर दूर वॉर जोन में पहुंचाने की भी लंबी कहानी है. लेकिन महीनों के अनथक श्रम और समर्पण का नतीजा ये हुआ कि वॉर खत्म होने तक मैरी क्यूरी की इस मशीन ने तकरीबन 10 लाख लोगों की जान बचाई. यह मानवता के हित में उनका आखिरी महत्वपूर्ण योगदान था.
मैरी क्यूरी की अमूल्य विरासत
4 जुलाई, 1934 को 66 वर्ष की आयु में मैरी की मृत्यु हो गई. उनकी मृत्यु के एक साल बाद 1935 में उनकी बड़ी बेटी आइरीन और उनके पति फ्रेडरिक जोलिओट को आर्टिफिशियल रेडिएशन की खोज के लिए संयुक्त रूप से केमेस्ट्री के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. छोटी बेटी ईव क्यूरी बड़ी होकर प्रसिद्ध लेखक और पियानिस्ट बनी.
आज 21वीं सदी के दो दशक बाद भी जब विज्ञान में स्त्रियों की हिस्सेदारी 20 फीसदी से ज्यादा नहीं है, मैरी ने उस जमाने में न सिर्फ वैज्ञानिक होने, बल्कि महिला वैज्ञानिक होने का दुस्साहस किया था. उस साहस और समर्पण ने, मर्दों की दुनिया में अपने लिए बराबर का हिस्सा मांगने और हासिल करने के उस साहस ने भविष्य की स्त्रियों के लिए रास्ता बनाया.
वही रास्ता, जिस पर आज हम सब चल रहे हैं.