मक्का और मथुरा: गंगा-जमुनी तहज़ीब के इंक़लाबी शायर की कहानी...
हसरत मोहानी की शख़्सियत में कई रंग थे. स्वतंत्रता सेनानी हसरत, मुस्लिम लीगी हसरत, भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक हसरत, संविधान सभा के सदस्य हसरत, धर्मनिष्ठ हसरत, शायर हसरत और कृष्णभक्त हसरत. क्या उन्हें उनके योगदान के लिए वाजिब सम्मान मिल पाएगा?
आज कृष्ण जन्माष्टमी है. शायरी, देश के इतिहास, आज़ादी की लड़ाई और साझा संस्कृति के बारे में सोचने वालों को इस दिन अक्सर हसरत मोहानी याद आते हैं. वे अपनी कृष्णभक्ति के लिए विख्यात हैं. देखिए उनकी यह नज़्म:
मथुरा कि नगर है आशिक़ी का..
दम भरती है आरज़ू इसी का!
हर ज़र्रा-ए-सर-ज़मीन-ए-गोकुल..
दारा है जमाल-ए-दिलबरी का!
बरसाना-ओ-नंद-गांव में भी..
देख आए हैं जलवा हम किसी का!
पैग़ाम-ए-हयात-ए-जावेदां था..
हर नग़्मा-ए-कृष्ण बांसुरी का!
ऐसी पंक्तियां रचने वाले मौलाना हसरत मोहानी क्या हैरानी कि अपने कृष्ण प्रेम के लिए जाने जाते हैं. हर जन्माष्टमी पर उनकी स्मृतियां ताजा हो जाती हैं. हसरत जब हज की यात्रा करके लौटते थे तो सीधे मथुरा-वृंदावन जाया करते थे. उनके बारे में मशहूर है कि उन्होंने तेरह हज किए थे.
हज से लौटकर वापसी में मथुरा जाने वाले ये मौलाना सही मायने में साझी तहज़ीब के अलंबरदार थे.
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हसरत में कई हसरत थे.
1921 में ‘इन्क़लाब ज़िंदाबाद’ का नारा गढ़ने वाले हसरत मोहानी थे तो 'चुपके चुपके' जैसी ग़ज़ल लिखने वाले भी हसरत थे. हसरत अपनी कृष्ण भक्ति के लिए, जन्माष्टमी और कृष्ण पर लिखी अपनी अपनी नज़्मों के लिए भी याद किए जाते हैं. हसरत की खुद की शख़्सियत में कई रंग थे. स्वतंत्रता सेनानी हसरत, कृष्णभक्त हसरत, मुस्लिम लीगी हसरत, भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक हसरत, संविधान सभा के सदस्य हसरत, धर्मनिष्ठ हसरत, और शायर हसरत.
मौलाना हसरत मोहानी का पूरा नाम सय्यद फजल-उल-हसन था. 1 जनवरी 1875 को उन्नाव के मोहान गांव में जन्में हसरत मोहानी ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान ही अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आवाज़ बुलंद करना शुरू कर दिया था. 1904 में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सदस्यता ली और 1905 में बाल गंगाधर तिलक द्वारा चलाये गए स्वदेशी आंदोलन में हिस्सा भी लिया.
1919 ख़िलाफ़त आंदोलन में उन्होंने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया. खिलाफत का मुद्दा वास्तव में भारतीय राजनीति से जुड़ा नहीं था परंतु इस आंदोलन की घोषणा ने भारत में अंग्रेजों के खिलाफ हिंदू-मुस्लिम एकता को सुदृढ़ कर दिया था. गांधी ने भी खिलाफत आंदोलन को हिंदू मुस्लिम एकता का एक सुनहरा अवसर माना था. ‘पूर्ण स्वराज्य’ की मांग रखने वाले वे पहले चंद लोगों में से थे.
1921 में हसरत ने “इन्क़लाब ज़िंदाबाद” का नारा गढ़ा. इस नारे को भगत सिंह ने ख़ूबसूरती से देश की फ़िज़ाओं में गूंजा दिया. किसी भी तरह की गैर-बराबरी के खिलाफ प्रदर्शन या लड़ाई में यह नारा आज भी उस लड़ाई में जान भर देता है.
1946 में जब भारतीय संविधान सभा का गठन हुआ तो उन्हें उत्तर प्रदेश राज्य से संविधान सभा का महत्वपूर्ण सदस्य चुना गया. संविधान निर्माण के बाद जब इस पर दस्तखत करने की बारी आई तो उन्होंने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि यह मजदूरों और किसानों के हक़ की पूरी रहनुमाई नहीं करता. किसानों और मजदूरों के हित में यह फैसला लेने वाले वह अकेले सदस्य थे. मौलाना साहब ने हिंदुस्तान से मोहब्बत के जज़्बे में पाकिस्तान जाना नामंज़ूर कर दिया था और हिंदुस्तानी मुसलमानों को हिंदुस्तान के साथ बनाये रखने के लिए हमेशा प्रयासरत रहे.
हिंदुस्तान की साझी विरासत को संजोये इस महान व्यक्तित्व ने 13 मई 1951 को दुनिया को अलविदा कह दिया.
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आज़ादी के साथ-साथ ज़िंदगी की खूबसूरती के जज़्बे की झलक भी उनकी गज़लों में मिलती है. अपनी गज़लों में उन्होंने रूमानियत के साथ-साथ समाज, इतिहास और सत्ता के बारे में भी काफी कुछ लिखा है. उन्हें प्रगतिशील ग़ज़लों का प्रवर्तक कहा जा सकता है.
उनकी ग़ज़ल “चुपके चुपके रत दिन आंसू बहाना याद है” जब ग़ुलाम अली ने गायी तो लोगों ने हसरत को जानना शुरू किया.
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भारतीय उपमहाद्वीप का एक ख़ास मिज़ाज और किरदार है.
यहाँ योरोपीय अर्थों में कोई पुनर्जागरण नहीं हुआ. इसी कारण मध्यकाल और आधुनिक काल के बीच वैसा स्पष्ट विभाजन नहीं जैसा रिनेसां के कारण यूरोप में दिखाई देता है. उसी तरह यहाँ धार्मिकता और प्रगतिशीलता के बीच भी वैसा विरोध नहीं दिखता. भारत की आज़ादी के आंदोलन में ऐसे कई लोग हैं जिनका किरदार किसी सफ़ेद काले से नहीं ऐसे कई दरम्यानी रंगों से बना है. इसी तरह दो धर्मों और संस्कृतियों के दरम्यान बसने वाले भी कई हैं.
आप गांधी और मौलाना आज़ाद से शुरू कर सकते हैं और अगर आप ठीक से नज़र दौड़ाते रहे तो आपको उस सिलसिले में हसरत मोहानी भी नज़र आएँगे. भारत की आज़ादी के आंदोलन, और संविधान सभा में उनके योगदान को; साझा संस्कृति के लिए, साझे देश के लिए किये उनके काम को वह सम्मान नहीं मिला जिसके वह हक़दार थे.
आज कृष्ण जन्माष्टमी के दिन हसरत को याद करना उस दिशा में एक विनम्र प्रयास है.