प्रवासी मजदूरों से प्रभावित हो बचपन में छोड़ा था घर, आज स्लम के बच्चों के जीवन में ला रहे हैं बड़ा बदलाव

मध्य प्रदेश के चंबल संभाग क्षेत्र में जन्मे देव प्रताप सिंह का शुरुआती जीवन सामान्य ही था, जहां उनके पिता एक एलआईसी अजेंट थे और माँ गृहणी थीं। इसी बीच देव ने प्रवासी मजदूरों को देखा और वे उनसे इस तरह प्रभावित हो गए कि महज 12 साल की उम्र में जीएचआर छोड़ने का फैसला कर लिया।

प्रवासी मजदूरों से प्रभावित हो बचपन में छोड़ा था घर, आज स्लम के बच्चों के जीवन में ला रहे हैं बड़ा बदलाव

Monday January 17, 2022,

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महज 12 साल की उम्र से घर से भागे देव प्रताप की जिंदगी में उन्हें भले ही तमाम मुश्किलों का सामना करा पड़ा हो लेकिन आज देव स्लम इलाकों में रहने वाले बच्चों की आवाज बन चुके हैं। आज देव ऐसे बच्चों के जीवन में ना सिर्फ रोशनी ला रहे हैं बल्कि उन्हें सीधे तौर पर समाज की मुख्य धारा से भी जोड़ने का काम कर रहे हैं।

मध्य प्रदेश के चंबल संभाग क्षेत्र में जन्मे देव प्रताप सिंह का शुरुआती जीवन सामान्य ही था, जहां उनके पिता एक एलआईसी अजेंट थे और माँ गृहणी थीं। इसी बीच देव ने प्रवासी मजदूरों को देखा और वे उनसे इस तरह प्रभावित हो गए कि महज 12 साल की उम्र में जीएचआर छोड़ने का फैसला कर लिया।

जब छोड़ दिया घर

देव के अनुसार जब उन्होंने अपना घर छोड़ा तब उनके पास महज 130 रुपये थे। देव ने तब ग्वालियर के लिए ट्रेन पकड़ी। देव के पास जितने भी रुपये थे वो महज 2 दिनों में ही खत्म हो गए और उसके बाद उनके लिए असल संघर्ष शुरू हुआ। देव के अनुसार उस दौरान भी वे अपने किसी भी रिश्तेदार के यहाँ नहीं जाना चाहते थे।

इस दौरान देव रेलवे स्टेशन पर कूड़ा बीनने वाले लड़कों के संपर्क में आए और उन्होंने खुद भी खाने की जरूरत को पूरा करने के लिए रेलवे स्टेशन पर कूड़ा बीनना शुरू कर दिया। गौरतलब है कि इस दौरान देव को नशे की लत भी लग गई और अपनी इन जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्होंने छोटी-मोटी चोरियाँ करनी भी शुरू कर दी।

आने लगा बदलाव

देव ने इसके बाद अपने जीवन को बदलने की ठानी और इस दौरान वे एक ढाबे में वेटर की नौकरी करने लगे और इसी बीच वे गोवा चले गए। वहाँ पर कुछ दिनों काम करने के बाद देव दिल्ली पहुँच गए जहां उन्होंने सेल्स का काम शुरू किया और महज दो सालों के भीतर उनकी तंख्वाह बढ़कर 45 हज़ार रुपये महीने हो चुकी थी।

VOICE OF SLUM

कुछ दिनों बाद उनकी मुलाक़ात चांदनी खान से हुई, जिनकी कहानी भी कुछ ऐसी ही थी। देव ने चांदनी के साथ मिलकर कूड़ा बीनने वाले बच्चों के लिए एक एनजीओ की स्थापना करने का निर्णय लिया।

‘वॉइस ऑफ स्लम’ की शुरुआत

देव के अनुसार उन्होंने इस एनजीओ को शुरू करने के लिए 10 हज़ार रुपये में अपना लैपटॉप तक बेच दिया और इस दौरान उन्हें अपना घर छोड़कर पीजी में भी रहना पड़ा। देव ने जब ‘वॉइस ऑफ स्लम’ की शुरुआत कीतब यह महज एक पहल थी, लेकिन साल 2016 में इसे आधिकारिक एनजीओ की तरह रजिस्टर कर लिया गया।

देव के अनुसार वे वास्तव में स्लम एरिया में स्कूल शुरू नहीं करना चाहते थे, वे नोएडा में भी ऐसा ढांचा बनाना चाहते थे जहां वे बच्चों को वास्तव में स्कूल आने के लिए प्रोत्साहित कर सकें। मालूम हो कि वॉयस ऑफ स्लम में 30 से अधिक सदस्य काम कर रहे हैं, जो इन बच्चों को पढ़ाते हैं और एनजीओ की देखभाल करते हैं।

एनजीओ हर साल लगभग 100 बच्चों को दाखिला देता है और इन बच्चों को दो साल तक यहाँ पढ़ाया जाता है, फिर यव बच्चे एक नियमित स्कूल में शामिल हो जाते। इस दौरान उनकी स्कूल फीस संगठन के डोनर्स और शुभचिंतकों द्वारा प्रायोजित की जाती है।


Edited by रविकांत पारीक