क्या अब भारत के सरकारी स्कूलों में फ्री कंटेंट मुहैया कराएगा Oxford?
अपने नए प्रोग्राम को लॉन्च करने के लिए OUP की मैनेजिंग डायरेक्टर (एजुकेशन) फातिमा डाडा (Fathima Dada) भारत के दौरे पर हैं. वह टीचर और लेक्चरर रहने के साथ बच्चों की किताबों और टेक्स्टबुक्स की लेखिका भी रह चुकी हैं. एजुकेशन सिस्टम में रिफॉर्म के लिए वह UNESCO के साथ भी काम कर चुकी हैं.
भारत में अपने 110 साल का सफर पूरा करने पर दुनिया के सबसे पुराने पब्लिशर्स में एक ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस (OUP) ने नए एजुकेशन कंटेंट विकसित करने के लिए क्लास 1 से 8 तक के छात्रों के लिए ‘ऑक्सफोर्ड इंस्पायर’ प्रोग्राम की शुरुआत की घोषणा की है. OUP ने अपने इस नए प्रोग्राम की शुरुआत नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (National Educational Policy) के तहत नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क (NCF) को देखते हुए की है.
अपने नए प्रोग्राम को लॉन्च करने के लिए OUP की मैनेजिंग डायरेक्टर (एजुकेशन) फातिमा डाडा (Fathima Dada) भारत के दौरे पर हैं. वह टीचर और लेक्चरर रहने के साथ बच्चों की किताबों और टेक्स्टबुक्स की लेखिका भी रह चुकी हैं. एजुकेशन सिस्टम में रिफॉर्म के लिए वह UNESCO के साथ भी काम कर चुकी हैं.
इस मौके पर फातिमा डाडा और OUP इंडिया के MD सुमंता दत्ता ने YourStory से एक्सक्लूसिव बात की. उन्होंने ‘ऑक्सफोर्ड इंस्पायर’ के साथ ही अपने अन्य प्रोग्राम, NEP, भारत के साथ संबंध और एजुकेशन सेक्टर में आने वाले बदलाव को लेकर विस्तार से बात की.
क्या है ऑक्सफोर्ड इंस्पायर प्रोग्राम?
OUP की मैनेजिंग डायरेक्टर (एजुकेशन) फातिमा डाडा ने कहा कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) को वास्तव में स्कूली बच्चों को केंद्र में रखकर तैयार किया गया है. यह केवल चाक और टाक (पढ़ने और लिखने के बारे में) नहीं है. यह हर बच्चे को अपनी क्षमता का एहसास कराने की आवश्यकता पर जोर देता हैं, जिसे हम पर्सनलाइज्ड लर्निंग कहते हैं.
उन्होंने कहा कि इसलिए मुझे लगता है कि ऑक्सफोर्ड इंस्पायर एक ऐसा प्रोडक्ट है, जो हम न्यू एजुकेशन पॉलिसी की जरूरतों को पूरा करने के लिए विकसित कर रहे हैं. वास्तव में आपकी सरकार ने 21वीं सदी कोर्स लागू करने का फैसला किया है जिसमें वैश्विक कौशल, 21वीं सदी की शिक्षा, प्रॉब्लम सॉल्विंग, इनोवेशन शामिल हैं.
उन्होंने आगे बताया कि यही नहीं, ऑक्सफोर्ड इंस्पायर, न्यू एजुकेशन पॉलिसी से प्रेरणा ले रहा है और उसके साथ ही टेक्नोलॉजी के स्तर पर मौजूद बेस्ट चीजों को अपना रहा है. हमारे पास ऑक्सफोर्ड एडवांटेज और हाल ही में लॉन्च की गई ऑक्सफोर्ड रीडिंग बडी (Reading Buddy) जैसे प्रोग्राम हैं. हमारे पास ऑक्सफोर्ड स्टार जैसे असेसमेंट प्रोग्राम भी हैं.
OUP क्या है और भारत में कब से मौजूद है?
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस (OUP) इस साल भारत में अपने 110 साल पूरे होने का जश्न मना रहा है. OUP India ने भारत में अपनी पहली किताब साल 1912 में पब्लिश की थी. दिलचस्प बात यह है कि यह किताब देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की थी, जिनके जन्मदिन के मौके पर भारत में शिक्षक दिवस मनाया जाता है. वह खुद एक प्रोफेसर थे और यह किताब उन्होंने उसी दौरान लिखी थी.
इसके साथ ही OUP हर साल अनेकों भाषाओं में 400 टाइटल्स पब्लिश करता है जो कि 1 करोड़ से अधिक स्टूडेंट्स तक पहुंचती हैं. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस (OUP) के बारे में बताते हुए मिसेज डाडा कहती हैं कि ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस (OUP), ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की एक शाखा है. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर ही हमारे बॉस हैं. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने OUP की शुरुआत 500 साल पहले की थी. OUP का उद्देश्य दुनियाभर में नॉलेज और एजुकेशन को आगे बढ़ाना है
भारत के साथ संबंधों के बारे में उन्होंने कहा कि भारत में हम पिछले 110 सालों से हैं. निश्चित तौर पर भारत दुनियाभर में अंग्रेजी सीखने वालों का सबसे बड़ा मार्केट है जो कि ब्रिटेन से भी बड़ा है. यहां पर अंग्रेजी केवल एक विदेशी भाषा ही नहीं है बल्कि लोग हाई एकेडमिक लेवल के लिए अंग्रेजी सीखते हैं. वहीं, OUP दुनिया में रीडिंग मैटेरियल्स तैयार करने वाला सबसे बड़ा प्रोड्यूसर भी है. गूगल को जो शब्दकोश जाता है, वह ऑक्सफोर्ड से ही जाता है.
उन्होंने आगे कहा कि जहां तक OUP की बात है तो हम प्राइवेट स्कूल सेक्टर में काम करते हैं क्योंकि मार्केट ऐसे ही काम करता है. हम चीजों को भारत के लिए प्रासंगिक बनाने के लिए स्थानीय सहयोगियों, स्थानीय लेखकों और स्थानीय शिक्षाविदों के साथ मिलकर काम करते हैं.
वहीं, इस पर OUP India के MD सुमंता दत्ता कहते हैं कि हम अपना 90 फीसदी काम लोकली करते हैं और उन्हें स्थानीय जरूरतों के हिसाब से ही तैयार करते हैं. आज हम 10 हजार से अधिक स्कूलों तक पहुंच गए हैं और डिजिटल होने के बाद हम इसे और भी तेजी से आगे बढ़ा रहे हैं.
OUP अंग्रेजी भाषा का कस्टोडियन
डाडा ने कहा कि ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस अंग्रेजी भाषा का कस्टोडियन (संरक्षक) है. इसका मतलब है कि अंग्रेजी भाषा में किसी शब्द को शामिल किए जाने, उसमें किसी भी बदलाव की जिम्मेदारी हमारी होती है. इसके लिए हमारे पास एक बड़ी टीम है. यही कारण है डिक्शनरीज और लेक्सिकल (भाषा की शब्दावली) पर हम बहुत स्ट्रॉन्ग हैं. साल 2020 में ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में ‘आत्मनिर्भरता’ शब्द को शामिल किया गया था.
बता दें कि, ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में पिछले कुछ वर्षों में 26 भारतीय शब्दों को जगह दी गई है. इनमें आधार, चावल, शादी, हड़ताल, डब्बा, चैटबॉट और फेक न्यूज़ जैसे शब्द शामिल हैं. इस तरह ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के 10वें संस्करण में कुल 384 भारतीय शब्द सम्मलित हैं.
डाडा ने आगे बताया कि प्रिटिंग प्रेस आने के कुछ सालों बाद ही 500 साल पहले ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने पहली किताब प्रकाशित की थी. एक प्रेस के रूप में शुरुआत करने के बाद इसने धीरे-धीरे अकेडमिक कंटेंट डेवलप करना और उन्हें प्रिंटिंग करना शुरू कर दिया. शुरुआत में हमने बाइबल और डिक्शनरी प्रकाशित की थी.
एडटेक के साथ हमारा Frenemy का रिश्ता
भारत सहित दुनियाभर में तेजी से बढ़ते एजुकेशन-टेक्नोलॉजी (एडटेक) मार्केट और OUP के एजुकेशनल कंटेंट और डिजिटल प्रोग्राम्स में अंतर को लेकर भी डाडा ने खुलकर बात की.
एडटेक के बारे में डाडा कहती हैं कि भारत में एडटेक पहले से ही मौजूद है. मैं इसे ब्लेंडेड (मिश्रित) कहूंगी. अमेरिका में इसे ब्लेंडेड लर्निंग कहा जाता है. इसमें बच्चे जो स्कूल में सीखतेहैं उसे कभी भी, कहीं भी सीख सकते हैं. दुनिया इसी दिशा में जा रही है. हालांकि,कोविड-19 ने इस ट्रेंड को बढ़ा दिया है. इसने टीचर्स, पैरेंट्स, प्रोडक्ट डेवलपर्सऔर टेक्नोलॉजी मुहैया कराने वालों को तेजी से आगे बढ़ने के लिए मजबूर कर दिया है. हालांकि, कोविड-19 के दौरान एडटेक कंपनियों को लेकर काफी हाईप बना था लेकिन अब इन्वेस्टर्स उनसे डिलीवर करने की मांग कर रहे हैं.
वहीं, एडटेक कंपनियों के साथ OUP के संबंधों पर वह कहती हैं हमारा रिश्ता Frenemy (वैचारिक तौर पर नापसंदगी के बाद भी दोस्ती जैसा रिश्ता) जैसा है. इस तरह हम उनसे सीखते हैं और वे हमसे सीखते हैं और हम बेस्ट चीजें लेकर आते हैं. हालांकि, हम उनसे काफी अलग हैं क्योंकि हम चाहते हैं कि बच्चे 12 साल तक स्कूल में रहे हैं और हम लॉन्ग टर्म नजरिया रखकर चलते हैं.
वहीं, दत्ता कहते हैं कि यह अफोर्डेबल होने के साथ इंटरेस्टिंग और लर्नर फ्रेंडली भी होना चाहिए. लेकिन कई बड़ी एडटेक कंपनियां 50-60 हजार रुपये चार्ज कर रही हैं.
डाडा बताती हैं कि अब अमेरिका और अन्य देशों में फ्लिप एजुकेशन का कॉन्सेप्ट आ गया है जिसमें बच्चे ऑनलाइन लर्निंग करते हैं और बाद में फिजिकली स्कूल जाकर एक-दूसरे से मिलते जुलते हैं. स्कूल में उन्हें टीचर्स से सपोर्ट मिलता है और वहां वे अपना प्रोजेक्ट करते हैं. हालांकि, सभी स्कूल इतनी जल्दी इस प्रॉसेस को नहीं अपना सकते हैं. इसमें समय लगेगा, लेकिन यह संभव हो सकता है.
डिजिटल गैप भरने के लिए पर्याप्त सरकारी योजनाएं मौजूद नहीं
कोविड-19 महामारी के दौरान लॉकडाउन के कारण स्कूल बंद हो गए थे जिससे संसाधनयुक्त स्कूलों और पैरेंट्स ने ऑनलाइन एजुकेशन का रास्ता अपना लिया था. हालांकि, इस दौरान अभावग्रस्त परिवारों से आने वाले बच्चे डिजिटल सेवाओं तक पहुंच नहीं होने के कारण
पढ़ाई में पीछे छूट गए.
इस पर डाडा कहती हैं कि कोविड-19 एक बेहद बुरा था. हालांकि, जिन बच्चों के पैरेंट्स ने उनके लिए मोबाइल, टैबलेट, डेटा और इंटरनेट की सुविधा जुटा ली वे अपनी लर्निंग जारी रख पाए. भारत के मामले में सरकारी स्कूलों के बहुत से बच्चे इससे पीछे छूट गए.
डाडा ने कहा कि लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह है कि इस गैप को भरने के लिए पर्याप्त मात्रा में सरकारी योजनाएं मौजूद नहीं हैं. इसके लिए कंटेंट भी उपलब्ध नहीं है. हालांकि, सरकारें चाहें तो अगले 6 महीने के लिए टीचरों को खासकर मैथ, हिंदी और
अंग्रेजी की एक घंटे की एक्स्ट्रा क्लास लेने के लिए प्रोत्साहित कर सकती हैं.
डिजिटल सेवाओं और प्रोडक्ट्स के दाम में कमी आनी चाहिए
डिजिटल एजुकेशन हासिल करने में डिजिटल डिवाइड की बाधा पर डाडा कहती हैं कि बच्चे खुद से सीख सकते हैं लेकिन डिजिटल सेवाओं और प्रोडक्ट्स के दाम में कमी आनी चाहिए ताकि गरीब से गरीब बच्चा भी केवल कुछ रुपये देकर डिजिटल एजुकेशन
हासिल कर पाए.
उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि कुछ अफ्रीकी देशों में मोबाइल कंपनियां स्कूल के घंटों के दौरान स्कूली बच्चों से डेटा के लिए पैसे चार्ज नहीं करती हैं. वास्तव में पूछिए तो कंपनियों का डेटा का कोई पैसा नहीं लगता है और इससे उनके फ्यूचर कस्टमर भी तैयार होते हैं. वहीं, OUP इंडिया भी ऐसे प्रोग्राम बना रहा है जो कि किसी भी, खासकर लो डेटा स्पीड पर चल सकते हैं.
सरकारी स्कूलों में फ्री कंटेंट का वादा
YourStory से बात करते हुए फातिमा डाडा ने वादा किया कि वह सरकारी स्कूलों में भी अपने कंटेंट फ्री में उपलब्ध कराने के लिए अपनी
टीम के साथ चर्चा करेंगी.
भारत के सरकारी स्कूलों में अभावग्रस्त परिवारों के बच्चों की समस्याओं को देखते हुए डाडा ने कहा कि सरकार, सरकारी स्कूलों देखती है और हम प्राइवेट स्कूलों के साथ काम करते हैं. लेकिन हम अपने कंटेंट में कुछ बदलाव करके उन्हें सरकारी स्कूलों में मुफ्त में उपलब्ध करा सकते हैं.
इसके साथ ही हम शायद किसी मोबाइल कंपनी के साथ काम कर सकते हैं कि जो कि सस्ते में डेटा मुहैया कराएं क्योंकि हम वह सरकारी स्कूलों में फ्री में देंगे. यह निश्चित तौर पर नए करिकुलम के लिए हमारा योगदान होगा.
बच्चों को स्कूल लाने के लिए पैरेंट्स को इंसेटिव्स देना चाहिए
डाडा ने बताया कि मैं ब्रिटेन में रहती हूं, लेकिन मैंने अफ्रीकाऔर बांग्लादेश में काफी काम किया है. इन सभी जगहों पर अलग-अलग कारणों से बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं और इस दिशा में सुधार लाने के लिए संयुक्त राष्ट्र (UN), कई अन्य सहायता एजेंसियों और कई सरकारों ने पैरेंट्स को इंसेटिव्स (प्रोत्साहन राशि) देना शुरू कर दिया है ताकि वे बच्चों को स्कूल भेजें.
हालांकि, इस दौरान डाडा ने कई अलग कारणों के साथ पीरियड्स जैसी समस्या के कारण लड़कियों के स्कूल न जा पाने पर गहरी चिंता जाहिर की. उन्होंने कहा कि लड़कियों के स्कूल न जाने की समस्या अधिक होती है. मैंने एक शॉर्ट मूवी देखी थी जिसने शायद अकेडमी अवार्ड भी जीता था. इसमें जब लड़कियां 12-13 साल की हो जाती हैं तो पीरियड्सऔर गरीबी के कारण स्कूल नहीं जा पाती हैं. इसलिए हमें ऐसे मुद्दों का समाधान ढूंढना होगा क्योंकि एक समाज तभी विकसित होगा, जब वहां की अधिकतर जनसंख्या विकसित होगी.
बता दें कि, 26 मिनट की ‘पीरियड: द एंड ऑफ सेंटेंस’ (Period: End of Sentence) फिल्म पीरियड्स से जुड़ी भ्रांतियों से जूझ रही दिल्ली से कुछ किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश के हापुड़ की रहने वाली एक महिला के जीवन पर आधारित है. साल 2019 में इसे ऑस्कर अवॉर्ड में बेस्ट डॉक्युमेंट्री शॉर्ट सब्जेक्ट का अवॉर्ड मिला था.
1 लाख टीचर्स को दी फ्री ट्रेनिंग
सुमंता दत्ता ने कहते हैं कि हमें अचानक ही एक साथ क्लासरूम से डिजिटल के साथ न्यू एजुकेशन पॉलिसी को भी लागू करना पड़ रहा है. ऐसे में किसी भी टीचर को गाइडेंस की जरूरत पड़ सकती है. हमारा टीचर्स ट्रेनिंग प्रोग्राम पूरी तरह से टीचर्स की सहायता के लिए तैयार किया गया है. इसमें हम टीचर्स को डिजिटली टीचिंग के लिए तैयार करते हैं जो कि NEP के अनुसार भी ब्लेंडेड लर्निंग के लिए आवश्यक है.
उन्होंने आगे बताया कि पहले जहां हम स्कूल-दर-स्कूल जाते थे और सैकड़ों टीचर्स को इकट्ठाकर वर्कशाप कराते थे लेकिन पिछले साल यह सब डिजिटल हो गया. पिछले साल हमने टीचर्स ट्रेनिंग प्रोग्राम कराया था. यह नो कॉस्ट यानि बिल्कुल फ्री था. इसमें 1 लाख से अधिक टीचर्स ने हिस्सा लिया था. इसमें कोई भी टीचर रजिस्टर कर सकता था.
कॉलेजों को अफोर्डेबल बनाना जरूरी
डाडा बाताती हैं कि मैंने पूरी दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में करिकुलम पॉलिसी वर्क को लेकर काफी काम किया है. भारत में पिछले 30-40 सालों से करिकुलम रिफॉर्म नहीं हुआ था. ऐसे में NEP ने 21वीं सदी के हिसाब से करिकुलम तैयार करने के लिए एक लंबी छलांग लगाई है. हालांकि, आपके पास दुनिया की सबसे अच्छी पॉलिसी हो सकती है, लेकिन अगर उसे सही तरह से नहीं लागू किया जाए तो उसका कोई मतलब नहीं रह जाता है.
उन्होंने कहा कि सरकारी कॉलेजों को अधिक आटोनॉमी (स्वायत्तता) को लेकर दुनियाभर में काफी बहस चल रही है. मुझे लगता है कि अकेडमिक आटोनॉमी एक अच्छी बात है. यहां बात अफोर्डेबिलिटी को लेकर हो सकती है. ब्रिटेन की टॉप यूनिवर्सिटीज में टू टियर चार्जिंग मॉडल है. कोई भी लोकल ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में कुछ हजार डॉलर में शिक्षा हासिल कर सकता है, लेकिन किसी विदेशी स्टूडेंट को एक साल की एजुकेशन के लिए 50 हजार डॉलर देने पड़ते हैं.
वहीं, दक्षिण अफ्रीका में सरकार ने नेशनल एजुकेशन स्टूडेंट फंडिंग बनाई है. वे कम कमाने वालों पर काफी पैसे खर्च करते हैं. उनके बच्चों की फीस सरकार देती है. हालांकि, भारत के पास बेहतरीन सरकारी यूनिवर्सिटीज हैं. इसलिए यह जरूरी है कि प्राइवेटाइजेशन बहुत की कमर्शियल नहीं होना चाहिए ताकि कम कमाने वाले भी अच्छे कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज से पढ़ाई कर सकें.
आंध्र प्रदेश के 30 लाख बच्चों तक पहुंची अंग्रेजी-तेलुगु डिक्शनरी
सुमंता दत्ता ने कहा कि पिछले साल हमने आंध्र प्रदेश सरकार के साथ पार्टनरशिप की थी. आंध्र प्रदेश के सरकारी स्कूलों के 30 लाख बच्चों तक हमारी अंग्रेजी-तेलगु डिक्शनरी पहुंची थी. बच्चे परफेक्ट अंग्रेजी बोलते हुए यूट्यूब पर अपने वीडियो डाल रहे हैं. अगर आप पेडागॉजी के हिसाब से देखें तो एक से अधिक भाषाएं बोलने वाले बच्चे अलग तरह से सोचने लगते हैं. ऐसे बच्चों की थिंकिंग और क्रिएटिव लेवल बेहतर हो जाता है. सरकार का अंग्रेजी, रिजनल लैंग्वेज और मातृ भाषा सीखने पर जोर देखा पेडागॉजी के हिसाब से अच्छी बात है.