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केरल के दुर्गम जंगल में दुर्लभ किताबों की लायब्रेरी चलाते हैं बुजुर्ग चिन्नातम्बी

केरल के दुर्गम जंगल में दुर्लभ किताबों की लायब्रेरी चलाते हैं बुजुर्ग चिन्नातम्बी

Monday July 01, 2019 , 4 min Read

"केरल के जिला इडुक्की में सौ वर्गमील के जंगली इलाके को दुर्लभ किताबों से गुलज़ार करने वाली शख्सियत हैं 73 वर्षीय पी. व्ही. चिन्नातम्बी। दो बड़े बोरों से निकाल कर दरी पर बिछाई गई दुर्लभ किताबें यहां के आदिवासी पाठकों को इश्यू की जाती हैं। सदस्य पाठकों को चिन्नातम्बी मुफ्त में चाय भी पिलाते हैं।"



P. V. Chinnathambi

अपनी लाइब्रेरी में पी. वी. चिन्नातम्बी, फोटो: psainath.org



30 जून, 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी 'मन की बात' में केरल के जिस जंगली वीराने की लायब्रेरी का जिक्र किया, वह राज्य के इडुक्की जिले के वनक्षेत्र में है। इस सौ वर्गमील के जंगली इलाके को दुर्लभ किताबों से गुलजार करने वाली शख्सियत हैं 73 वर्षीय पी. व्ही. चिन्नातम्बी। इस लायब्रेरी में किताबें तो मात्र डेढ़ सौ के आसपास हैं लेकिन चिन्नातम्बी की ऐसी संकल्पशीलता से पूरे भारतीय समाज को शब्दों के प्रति गहरी आस्था की प्रेरणा मिलती है। इस लायब्रेरी की कालजयी पुस्तकों को यहां के गरीब आदिवासी रोजाना ले जाकर पढ़ने के बाद वापस लौटा देते हैं। ऐसे में गौरतलब है कि केरल को भारत का शिक्षित राज्य होने का गौरव प्राप्त है। चिन्नातम्बी की इस लायब्रेरी से सटी छोटी सी चाय की दुकान की मिट्टी की दीवार पर टंगे सफेद कागज पर हाथ से लिखा है- अक्षरा आर्ट्स एवं स्पोर्ट्स, पुस्तकालय, ईरूप्पुकालाकुड़ी, इडामलाकुड़ी


केरल के इसी इलाके में सबसे पहले कभी आदिवासी ग्रामीण परिषद का गठन हुआ था, जहां मुथावन आदिवासी समुदाय के सिर्फ पच्चीस परिवार रहते हैं। चिन्नातम्बी भी इसी आदिवासी समुदाय से हैं। इडामलाकुड़ी उन 28 गाँवों में से एक है, जिनमें कुल लगभग ढाई हजार लोग रहते हैं, जिनमें से मात्र सौ आदिवासी कुल डेढ़ हजार मतदाताओं वाले ईरूप्पुकालाकुड़ी में रहते हैं। 


यदि किसी को चिन्नातम्बी की दो बड़े बोरो में संकलित कुल 160 पुस्तकों वाली इस लायब्रेरी से किताब लेनी हो तो उसे घने जंगल पैदल पर वहां तक पहुंचना होता है। चिन्नातम्बी के इस ठिकाने तक पहुंचने के लिए मुन्नार के नजदीकी पेट्टीमुड़ी से 18  किलो मीटर का लंबा सफर तय करना होता है। इडामलाकुड़ी के पहाड़ी रास्तों के बीच स्थित इस लायब्रेरी के संचालक चिन्नातम्बी चाय की दुकान से अपनी जीविका चलाते हुए यहां के स्पोर्ट्स क्लब के आयोजक भी हैं। उनकी चाय की दुकान पर बिस्कुट, नमकीन के साथ किराना के सामान भी मिलते हैं।




चिन्नातम्बी रोजाना दुकान के सामने ही बिछी दरी पर दोनो बोरों में भरकर रखीं किताबें बिछा देते हैं। उन किताबों में रोमांचक, बेस्टसेलर या लोकलुभावन साहित्यिक पुस्तकें नहीं, बल्कि उनमें हैं तमिल महाकाव्य ‘सिलापट्टीकरम’ का मलयालम अनुवाद और महात्मा गाँधी, वाईकोम मुहम्मद बशीर, एम.टी.वासुदेवन नायर, कमला दास, एम.मुकुन्दन, ललिताम्बिका अनन्तराजनम आदि की पुस्तकें। चिन्नातम्बी इस लायब्रेरी में पहुंचने वाले मुथावन आदिवासी जनों को किताबें कोई ऐसे ही नहीं थमा देते हैं बल्कि अपने रजिस्टर में उनकी खुद बाकायदा इंट्री करते हैं। पुस्तकालय को सिर्फ एक बार 25 रूपए शुल्क जमा करना होता है। मासिक शुल्क दो रूपए है। पाठकों को मुफ्त में चाय पिलाई जाती है। हां, बिस्कुट, नमकीन का जरूर भुगतान करना पड़ता है। इतना ही नहीं, चिन्नातम्बी अपने अतिथियों को निःशुल्क भोजन भी कराते हैं।


इस लायब्रेरी की दूर-दूर तक प्रसिद्धि से प्रेरित प्रसिद्ध पत्रकार पी.साईंनाथन भी एक दिन केरल प्रेस अकादमी के पत्रकारिता के तीन छात्रों के साथ दुर्गम जंगल पार करते हुए चिन्नातम्बी की लायब्रेरी पहुंच गए। वह लिखते हैं- 'इस लायब्रेरी से इलांगों की पुस्तक ‘सिलापट्टीकरम’ को एक से अधिक बार इश्यू कराकर पढ़ा गया है। इस जंगल में उच्च कोटि का साहित्य फल-फूल रहा है, जिसे यह उपांतिक आदिवासी समुदाय बहुत चाव से पढ़ रहा है। यह मन को बहुत शांति देता है। शहरी परिवेश में पढ़ने की आदत खत्म सी होती जा रही है। यहां के परिवेश में हमारे अंहकार की हवा निकल गई। लायब्रेरी की किताबों में एक नोटबुक थी, जिसे हाथ से लिखा गया था, जो संभवतः चिन्नातम्बी की आत्मकथा है।'

चिन्नातम्बी ने उनको बताया कि उनकी एडामलाकुड़ी वापस आने की अभिलाषा इसलिए भी थी कि वह मुरली ‘माश’ (मास्टर) के हाथों एक पुस्तकालय की स्थापना करना चाहते थे। मानकुलाम के रहने वाले मुरली ‘माश’ इस क्षेत्र में एक आदर्श व्यक्तित्व एवं गुरू हुआ करते हैं। वह दूसरी जनजाति से हैं। उन्होंने अपनी जिन्दगी का अधिकांश समय मुथावन समुदाय के लिए समर्पित कर दिया। माश ने ही चिन्नातम्बी के जीवन की ये दिशा तय की। अब चिन्नातम्बी के जीवन का एक अदद मकसद रह गया है, इस निर्जन पुस्तकालय के माध्यम से निःशक्त आदिवासी जनों की पढ़ने की साहित्यिक लालसा को बचाए रखना।