पोस्ट पार्टम डिप्रेशन के लिए सिर्फ हॉर्मोन्स नहीं, परिवार और समाज भी जिम्मेदार
दुनिया में हर सातवीं महिला बच्चे के जन्म के बाद पोस्ट पार्टम डिप्रेशन का शिकार.
पोस्ट पार्टम डिप्रेशन. ये शब्द आमतौर पर ज्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द नहीं है. मुमकिन है यह आपके शब्दकोश का हिस्सा भी न हो. कभी कहीं उड़ते हुए आपने इसका जिक्र सुना हो. कहीं किसी अखबार या पत्रिका में पढ़ा हो. जितना आपने प्रेग्नेंसी, चाइल्ड बर्थ, मां बनने की खुशी, गौरव और मां की ममता के बारे में पढ़ा-सुना होगा, उतना पोस्ट पार्टम डिप्रेशन के बारे में नहीं.
एक नए बच्चे का जन्म दुख और अवसाद की बात है भी नहीं. शायद ही कभी किसी फिल्म में नवजात बच्चे की मां को अवसाद में डूबे दिखाया गया हो. बच्चे के जन्म के बाद लोग गाना गाने और उत्सव मनाने लगते हैं. मां दुनिया की सबसे खुशहाल औरत हो जाती है और लगता है मानो इससे ज्यादा खूबसूरत बात जीवन में कोई दूसरी नहीं.
लेकिन क्या हो कि आपके इस स्वप्नलोक पर हथौड़े की तरह यह सच गिर पड़े कि पूरी दुनिया में हर 1000 में से 750 औरतें बच्चे के जन्म के बारे डिप्रेशन का शिकार हो जाती हैं. 350 औरतों के मन में आत्महत्या के ख्याल आते हैं और 200 औरतें नए जन्मे बच्चे के प्रति वितृष्णा का भाव महसूस करती हैं.
मातृत्व हमेशा उतना खूबसूरत भी नहीं होता, जितना सिनेमा और समाज हमें बताता है. इस साल की जनवरी में 30 साल की डॉ. सौंदर्या नीरज ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. सौंदर्या कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा की नातिन थीं. उनकी लाश बेंगलुरु के उनके घर में लटकी मिली, जहां दूसरे कमरे में उनका 9 महीने का बच्चा सो रहा था. बाद में पता चला कि डॉ. सौंदर्या पोस्ट पार्टम डिप्रेशन से जूझ रही थीं. यह अवसाद इतना बढ़ गया कि उन्होंने आत्महत्या जैसा कदम उठा लिया.
अपोलो अहमदाबाद में सीनियर गाइनी डॉ. शीरू जमींदार कहती हैं, “पोस्ट पार्टम डिप्रेशन एक मेडिकल कंडीशन है. अगर समय पर ध्यान न दिया जाए और नई मां को मेडिकल सपोर्ट वक्त पर न मिले तो यह आत्महत्या की कगार पर भी पहुंच सकता है. इसे भावनात्मक ढंग से नहीं देखा जाना चाहिए. लेकिन हमारे समाज का सबसे बड़ा संकट और दुर्भाग्य ये है कि शिशु के जन्म के बाद अवसाद महसूस कर रही मां को समाज इस तरह देखता है कि मानो उसमें मातृत्व की भावना का ही अभाव है. यह बेहद जाहिलियत भरी और अतार्किक सोच है.”
मुंबई में एक अस्पताल में गाइनी डॉ. नयना बनर्जी कहती हैं, “पोस्ट पार्टम डिप्रेशन की एक बड़ी वजह नई मांओं को वह फिजिकल और इमोशनल सपोर्ट न मिलना है, जिसकी उन्हें इस वक्त सबसे ज्यादा जरूरत होती है.
“मां बनना एक लंबी और तकलीफदेह प्रक्रिया है. इस प्रक्रिया में औरत का शरीर बहुत सारे हॉर्मोनल उतार-चढ़ाव से गुजरता है. शरीर के भीतर इतने बायलॉजिकल बदलाव होते हैं कि एक औरत के लगातार मेडिकल सुपरविजन में रहने के साथ-साथ उसके चारों ओर सॉलिड सपोर्ट सिस्टम होना बहुत जरूरी है. कई बार यह चीजें मौजूद होने के बाद भी महिला अवसाद से गुजर सकती है तो उसकी वजह हॉर्मोन्स होते हैं.
“लेकिन आप इस बात को ऐसे समझिए कि अगर महिला के पास फैमिली सपोर्ट है तो वह अवसाद के लक्षणों को नजरंदाज नहीं करेंगे और महिला को तत्काल मेडिकल सपोर्ट मिल सकेगा.”
डॉ. बनर्जी बताती हैं कि उसकी एक पेशेंट के साथ भी डॉ. सौंदर्या जैसा ही हादसा हुआ था, जब बच्चे के जन्म के पांच महीने बाद महिला ने आत्महत्या कर ली. उस लड़की ने अंतर्जातीय प्रेम विवाह किया था, जिसे दोनों ही परिवारों का समर्थन नहीं मिला. पति-पत्नी के बीच भी शादी के बाद काफी दूरियां आ गईं. शादी के बाद पति को तो फिर भी उसके परिवार ने स्वीकार कर लिया, लेकिन अपनी बहु को नहीं किया, जिसका परिणाम अंत में बहुत दुखद हुआ.”
पोस्ट पार्टम डिप्रेशन के वैज्ञानिक कारण पूछने पर डॉ. जमींदार कहती हैं, “अगर आप मुझसे यह पूछेंगी कि ठीक-ठीक शरीर में वो कौन से जैविक बदलाव होते हैं, जो पोस्ट पार्टम डिप्रेशन की वजह बनते हैं तो मैं आपको नहीं बता पाऊंगी. पोस्ट पार्टम डिप्रेशन में जितना योगदान हॉर्मोन्स का है, उससे कहीं ज्यादा हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक संचरना का है.”
डॉ. जमींदार कहती हैं, “मेरे पास आने वाली कितनी सारी लड़कियां परिवार, शादी, समाज और संस्कृति के दबाव में मां बनने का फैसला तो कर लेती हैं, लेकिन वो इसके लिए मानसिक और भावनात्मक रूप से तैयार नहीं होतीं. कितनी महिलाएं अपने जीवन, विवाह और रिश्तों को लेकर बुनियादी सुरक्षा भी नहीं महसूस करतीं. यह अपनी एजेंसी और आजादी से लिया गया निर्णय नहीं होता.”
डॉ. जमींदार के मुताबिक यदि कोई महिला पहले से डिप्रेशन, एंग्जायटी, बायपोलर डिसऑर्डर या किसी भी तरह की मानसिक समस्या से जूझ रही है, जिसके लिए उसे कभी कोई मेडिकल सपोर्ट नहीं मिला तो मां बनने के बाद उसके लिए यह स्थिति और ज्यादा घातक हो सकती है.
30 साल तक कनाडा के वैंकूवर में फैमिली डॉक्टर रहे और अब दुनिया के जाने-माने मेंटल हेल्थ एक्सपर्ट डॉ. गाबोर माते अपनी किताब “मिथ ऑफ नॉर्मल” में लिखते हैं कि पोस्ट पार्टम डिप्रेशन एक मेडिकल कंडीशन जरूर है, लेकिन इसकी जड़ें सोशल कंडीशंस में हैं.
वो ऑस्ट्रेलिया में हुई एक स्टडी के हवाले से लिखते हैं कि पोस्ट पार्टम डिप्रेशन की शिकार 90 फीसदी महिलाओं में कॉर्टिसॉल का स्तर बहुत ज्यादा होता है, जो कि एक स्ट्रेस हॉर्मोन है. चिंता, तनाव और स्ट्रेस की स्थिति में शरीर में इस हॉर्मोन का लेवल बहुत बढ़ जाता है. अब आप यह सोचिए कि आखिर यह कॉर्टिसॉल का स्तर इतना बढ़ा क्यों है?
डर, अकेलापन, चिंता, असुरक्षा का एहसास इसे बढ़ा रहा है. अब सवाल यह है कि एक स्त्री को चिंता, असुरक्षा, डर और अकेलापन क्यों सता रहा है. इसकी वजह उसके परिवार और परिवेश में है. न सिर्फ वजह है, बल्कि उस असुरक्षा और डर को कम करने, उसे मदद और भरोसा देने की कोई कोशिश भी नहीं है. डॉ. माते आगे लिखते हैं कि पोस्ट पार्टम डिप्रेशन के वास्तविक आंकड़े दरअसल हमें पता ही नहीं हैं क्योंकि हर महिला मेडिकल सपोर्ट तक नहीं पहुंच पाती. हम जितना समझते हैं, वास्तविक संख्या उससे कहीं ज्यादा है. डॉ. माते यह लिखने में संकोच नहीं करते कि इसकी वजह मिसोजिनी और पैट्रीआर्की है.
डॉ. जमींदार कहती हैं कि भारतीय समाज में इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि बहु से बेटा पैदा करने की उम्मीद की जा रही थी और उसने एक लड़की को जन्म दिया है. तकरीबन 50 साल से मेडिसिन के पेशे में सक्रिय और मिजाज से फेमिनिस्ट डॉ. जमींदार कहती हैं कि भारत में यदि पोस्ट पार्टम डिप्रेशन पर कोई स्टडी होती तो मैं डेटा के साथ यह साबित कर पाती कि बेटे की चाह इस अवसाद का एक बड़ा कारण है.
दिल्ली के अपोलो हॉस्पिटल में गाइनिकॉलजिस्ट डॉ. पुनीत बेदी कहते हैं, “आप औरत की एजेंसी की बात कर रही हैं, मेरे पास जब महिलाएं अपनी सेहत से जुड़ी कोई समस्या लेकर आती हैं तो वो खुद बोलती भी नहीं. उनके पति या सास, ननद बताती हैं कि महिला को क्या समस्या है. मैं सबसे पहले तो उस आदमी को चुप रहने को बोलता हूं. आप अपना मुंह बंद रखिए और महिला को बोलने दीजिए.”
डॉ. बेदी कहते हैं, “आपको पैट्रीआर्की को समझना है कि तो किसी गाइनी के कमरे में बैठकर दिन भर की महिला पेशेंट्स को ऑब्जर्व करिए. आपको समझ में आ जाएगा कि उनकी जिंदगी और उनके शरीर से जुड़ा हर फैसला दरअसल कोई और ले रहा है.”
पोस्ट पार्टम डिप्रेशन एक ठोस सच्चाई है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में हर सातवीं महिला शिशु जन्म के बाद डिप्रेशन से गुजरती है.
डॉ. बनर्जी कहती हैं कि एक मनुष्य के रूप में हमारी जिम्मेदारी इतनी ही हो सकती है यदि आपके आसपास कोई गर्भवती स्त्री या सद्या प्रसूता मां है तो उसके प्रति ज्यादा सजग और संवेदनशील रहें. यदि उसमें अवसाद, चिड़चिड़ापन या मूड स्विंग के कोई भी लक्षण दिखें तो उसे नजरंदाज न करें. याद रखें कि मां बनने की प्रक्रिया भले एक मनुष्य के शरीर में हुई हो, उसमें योगदान आसपास के तमाम लोगों का होता है. थोड़ी सजगता, समझदारी और जिम्मेदारी के साथ डॉ. सौंदर्या जैसी घटनाओं को होने से रोका जा सकता है.