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हिमालय की गोद से गंगा घाट तक बचाव में जुटे प्रकृति के पहरेदार

हिमालय की गोद से गंगा घाट तक बचाव में जुटे प्रकृति के पहरेदार

Sunday June 16, 2019 , 6 min Read

हिमालय की गोद से सुदूर गंगा घाटों तक, लुधियाना से लखीमपुर खीरी तक देश के तमाम जागरूक पहरुए विकास की अंधी दौड़ से बेखबर रहते हुए प्रकृति के प्राणतत्व पानी और वृक्षों की पहरेदारी में रात-दिन एक किए हुए हैं। कोई गंगा की तलहटी से कचरे साफ कर रहा तो कोई अब तक लाखों वृक्षारोपण कर चुका है।  


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वाराणसी में गंगा की सफाई

घाट-घाट गंगा की तलहटी में जमा कचरा साफ करना वाराणसी (उ.प्र.) के 'भगीरथ' राजेश शुक्ला की दिनचर्या बन चुकी है। एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर शुक्ला की पिछले पांच वर्षों से रोजाना नींद खुलते ही गंगा घाटों पर हर सुबह इसी तरह शुरू होती है। बिना किसी आर्थिक मदद के वह चले तो थे अकेले लेकिन कारवां बनता गया। शुक्ला ने यह संकल्प उस दिन लिया था, जब पहली बार वाराणसी का सांसद निर्वाचित होने के बाद वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फावड़ा चलाकर स्वच्छता अभियान का श्रीगणेश किया था।


पुरानी काशी के गढ़वासी टोला निवासी शुक्ला पौ फटते ही कंधे पर छोटा लाउडस्पीकर, हाथ में आरती पात्र लेकर घर से गंगाघाट के लिए चल पड़ते हैं। पहले गंगा आरती, फिर पानी में बहती फूल-माला, तस्वीरों, कपड़ों, पोथी-पत्रा, चीथड़ों की साफ-सफाई का काम शुरू। उसके बाद वह गंगा तल में जमा कचरा निकालने का सिलसिला शुरू होता है। अपनी टीम के साथ वह रोजाना कम से कम पचास किलो कचरा वह गंगा से निकाल बाहर करते हैं। उनके अनथक श्रम को देखकर मुहिम से और लोग भी जुड़ते जा रहे हैं। गंगा विचार मंच का गठन हो चुका है। गंगा के सभी अड़तालीस घाटों के नाम से गठित समितियों में सैकड़ों लोग शरीक हो चुके हैं। मंच के चौबीस लोगों के कोर ग्रुप में महिलाएं भी हैं। शुक्ला की अगुवाई में लोग अब नावों पर घूम-घूम कर गंगा सफाई के लिए आम श्रद्धालुओं को आगाह करने लगे हैं।





ब्रिटेन में पली-बढ़ी जूडी अंडरहिल वर्ष 2008 में पहली बार भारत में एक विदेशी सैलानी की तरह पहुंची थीं। उत्तराखंड में सुंदर पहाड़ों में बिखरे कचरे ने उन्हें निराश किया और वह सफाई के संकल्प के साथ यहीं की होकर रह गईं। तभी से वह भारत को स्वस्थ, स्वच्छ और सुंदर बनाने में जुटी हैं। अपने साथियों के साथ वह हाथों में दस्ताने पहने, कचरा भरने के बैग के साथ गंदगी भरे इलाकों में पहुंच जाती हैं। उनका यह जज्बा देखकर लोग उनसे जुड़ने लगे हैं।


आज उनकी संस्था वेस्ट वॉरियर्स दुनियाभर में जाना पहचाना नाम हो चुकी है। जूड़ी अब भारत के पहाड़ी इलाकों को अपना ही घर मान चुकी हैं। उन्हे गार्बेज गर्ल के रूप में पहचान मिल चुकी है। देहरादून के सैकड़ों स्कूली बच्चे दून घाटी के पर्यावरण को बचाने के लिए ‘मेकिंग ए डिफरेंस बाय बीइंग दि डिफरेंस’ मुहिम चला रहे हैं। बीते आठ साल से काम कर रही स्कूली बच्चों की यह संस्था भविष्य की पीढ़ी को न सिर्फ पर्यावरण के प्रति जागरूक कर रही है बल्कि अपने कई अभियानों के जरिए इसे जमीन पर भी उतार रही है।


मैड का सबसे बड़ा योगदान देहरादून की पहचान रही रिस्पना और बिंदाल नदियों के प्रति सरकारी नजरिए में बदलाव लाने का है। इस संस्था ने अपने प्रयासों से पहले पहले राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान की मदद से रिस्पना में बहाव का सर्वे कराया और इस तरह रिस्पना के फिर से जिंदा करने की मुहिम आगे बढ़ चली है। 'सिटीजन फॉर ग्रीन दून' संस्था पिछले दस साल से पर्यावरण संरक्षण के लिए राज्य में काम कर रही है।


इसी तरह प्रकृति के प्राणतत्व वृक्षों, जंगलों को बचाने की मुहिम कई स्तरों पर चल रही है। विकास की अंधी दौड़ के बीच कई एक संगठन और शख्सियतें लाख बाधाओं के बावजूद अपने अभियान में जुटी पड़ी हैं। गाजियाबाद के ग्रीन मैन विजयपाल बघेल का मन एक गूलर के पेड़ को कटते देखकर पसीज उठा था। तभी से वह पेड़ों को बचाने का संकल्प निभा रहे हैं। ग्रीन मैन की उपाधि उन्हें अमेरिका के उपराष्ट्रपति अल्गोर से मिली है।


उन्होंने अपने जन्मदिन पर 1976 में पहला पेड़ लगाया था। वह अब तक 40 करोड़ पौधे लगवाने का दावा करते हैं। उन्होंने 1993 में पर्यावरण सचेतक समिति बनाकर वृक्षारोपण योजना की शुरुआत की थी। इसी तरह बरेली (उ.प्र.) के समीर मोहन डेढ़ दशक से गांव-गांव खुशहाली फाउंडेशन के नाम से पर्यावरण संरक्षण की अलख जगा रहे हैं। लखीमपुर-खीरी (उ.प्र.) के अनुराग मौर्य शादी-ब्याह, जन्मदिन के मौकों पर लोगों को उपहार में पौधे देते हैं। मेरठ के वरिष्ठ नागरिकों का स्वयंसेवी संगठन 'क्लब-60' जल, जीव, पेड़, पर्यावरण बचाने में जुटा है।


मेरठ के ही डॉ यशवंत राय एक दशक से अधिक समय से दुर्लभ प्रजातियों के पौधों के बीज उगाकर पौधारोपण की मुहिम में जुटे हैं। लखीसराय (बिहार) के रामपुर निवासी दिव्यांग महेंद्र सिंह अब तक दस हजार से अधिक पौधे लगा चुके हैं। मोतिहारी (बिहार) के सुशील कुमार अपनी टीम के साथ चंपारण की पहचान चंपा पौधे को बचाने और उसके रोपण अभियान में जुटे हैं। लुधियाना (पंजाब) में दक्षिण एशिया का मुख्यालय स्थापित कर 'ईकोसिख' संस्था विश्व भर में 550 जंगल उगाने का प्रयास कर रही है। इसमें करीब 10 लाख पेड़ उगाने का लक्ष्य रखा गया है। भारत में इस संस्था की करीब 27 टीमें इस काम में लगी हुई हैं।


मिलेनियम सिटी गुरुग्राम (हरियाणा) में 77 वर्षीय बुजुर्ग अनिल कपूर शहर का पर्यावरण बचाने के लिए सुबह सैर पर निकलते समय साथ में बैग लेकर चलते हैं। इस दौरान पार्कों, सड़कों पर पड़ा प्लास्टिक बैग में भरकर डस्टबिन में डाल आते हैं। इसी शहर के श्रमदानी आरके भटनागर रहते तो अमेरिका में हैं लेकिन ज्यादा से ज्यादा समय सुशांत लोक में देकर पौधरोपण, जल संचयन के लिए लोगों का प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। इसी तरह हल्द्वानी (उत्तराखंड) में चिकित्सक आशुतोष पंत पिछले 31 सालों से वृक्षारोपण अभियान में जुटे हैं। वह अब तक 2.58 लाख पौधे लगा चुके हैं।


हर साल उनका 15 हजार पौधे लगाने का लक्ष्य रहता है। रांची (झारखंड) में बिरसा कृषि विवि के मुख्य वैज्ञानिक डॉ बीके अग्रवाल पिछले 30 साल से हरियाली के लिए काम कर रहे हैं। उत्तराखंड में गौरा देवी का चिपको आंदोलन के समय से ही सुंदरलाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट जैसे लोग चिपको आंदोलन से लेकर अब तक इस मुहिम में जुटे हैं। प्रमोद बमराड़ा के साथ पांच सौ स्कूल-कॉलेजों के छात्र स्टॉप टीयर्स संस्था के माध्यम से पौडी समेत कई जिलों में युवाओं को पर्यावरण बचाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।


सच्चिदानंद भारती सन् 1987 से पहाड़ी क्षेत्र में पानी के छोटे-छोटे खाल बना हैं। पर्यावरणविद डॉ अनिल प्रकाश जोशी लंबे समय से पारंपरिक फसलों को बचाने के लिए ग्रामीणों को उन्नत किस्म के बीज उपलब्ध करा रहे हैं। पेशे से शिक्षक रहे पर्यावरणविद कल्याण सिंह रावत वर्ष 1995 से मैती आंदोलन के नाम से शादी के दौरान नव विवाहितों से पौधारोण कराते आ रहे हैं। उत्तराखंड में अब तक दस हजार पेड़ लगा चुके चमोली के त्रिलोक सोनी हरियाली के प्रतीक हरे कपड़े पहनते हैं। वह भी शादी समारोहों, बर्थडे पार्टियों में पौधों का उपहार बांटते रहते हैं। मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करने के बाद अनूप नौटियाल 2008 से मसूरी को प्लास्टिक मुक्त करने में लगे हुए हैं।