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धागों से बुना बदलावः जानें, इस 18 वर्षीय लड़की ने इंडस्ट्रियल वेस्ट को कैसे बनाया महिला सशक्तिकरण का साधन

धागों से बुना बदलावः जानें, इस 18 वर्षीय लड़की ने इंडस्ट्रियल वेस्ट को कैसे बनाया महिला सशक्तिकरण का साधन

Wednesday September 18, 2019 , 4 min Read

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रईना अंबानी, फाउंडर BigPA


महाराष्ट्र के एक गांव तारापुर की रहने वाली लगभग 30 वर्षीय महिला सविता अपने पति के घर में रहती थीं और वह घरेलू हिंसा की शिकार भी हुईं। उनसे जब पूछा जाता था कि क्या वह करना चाहती हैं तो वह मना कर देती थीं और कहती थीं, "मैं काम नहीं कर सकती क्योंकि मेरे पति मुझे मारेंगे।"


लेकिन अब सविता के हालात बदल चुके हैं और वह बिग पीए इनिशिएटिव नाम के एक सोशल एंटरप्राइज़ में बतौर डिजिटल मार्केटर काम कर रही हैं। सविता मुंबई में काम कर रही हैं और उनकी कंपनी टेक्स्टाइल वेस्ट से ईको-फ़्रेंडली उत्पाद बनाती है।


इस कंपनी में वह सोशल मीडिया अकाउंट्स देखती हैं और कंपनी के उत्पादों की मार्केटिंग करती हैं। उनकी कंपनी ऐमज़ॉन सहेली प्रोग्राम के अंतर्गत अपने उत्पाद बेचती है। सविता को हर घंटे के लिए 60 रुपए मिलते हैं। उन्हें हफ़्ते में सिर्फ़ तीन काम करना होता है। सविता अकेली नहीं हैं, उनके गांव की ही अन्य दो महिलाएं आशा और पल्लवी भी उनके साथ काम करती हैं।


इसका श्रेय जाता है बिग पीए की फ़ाउंडर 18 वर्षीय रईना अंबानी को, जो महिला सशक्तिकरण और वेस्ट मैनेजमेंट के काम कर रही हैं। बिग पीए फ़र्श की सुरक्षा करने वाले उपकरण और कोस्टर्स इत्यादि बनाती है। ये उत्पाद न सिर्फ़ दिखने में आकर्षक होते हैं, बल्कि ईको-फ़्रेंडली भी होते हैं।


योरस्टोरी से बात करते हुए रईना ने बताया कि हाल में वह यूके से स्पोर्ट्स इंजीनियरिंग कर रही हैं। उन्होंने कहा,

"मैं अक्सर कारखानों में जाया करती थीं और उस दौरान मैंने देखा कई टन पॉली टेक्स्टाइल वेस्ट हर दिन पैदा होता है और जो प्लास्टिक से बना होता है। ये वेस्ट बाद में रीसाइकल नहीं हो पाता और इसलिए ही मैंने तय किया कि मैं इस वेस्ट से उत्पाद बनाऊंगी।"
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रईना यह भी बताती हैं कि उन्होंने इन कारखानों में किसी महिला कर्मचारी को नहीं देखा था, जबकि इनमें से ज़्यादातर फ़ैक्ट्रियां गांवों के करीब थीं और उन गांवों में महिलाओं को रोज़गार की ज़रूरत भी थी। वह बताती हैं कि जो महिलाएं काम भी करती थीं, उनकी आय भी उपयुक्त नहीं थी और इसलिए उन्होंने तय किया कि वे इन महिलाओं को अच्छा रोज़गार दिलाएंगी। रईना ने तारापुर गांव में जाकर महिलाओं को अपनी मुहिम के बारे में बताया।


पुराना समय याद करते हुए वह कहती हैं,

"उन्हें अपनी बात समझाना कोई आसान काम नहीं था क्योंकि सोच दकियानूसी थी और उन्हें लगता था कि वे सिर्फ़ घर के ही काम कर सकती हैं।"


समय के साथ रईना अपने मकसद में कामयाब हुईं और इसमें उनके पिता ने उनकी मदद की। रईना के पिता ख़ुद एक टेक्स्टाइल मैनुफ़ैक्चरिंग यूनिट के मालिक हैं। उन्होंने तारापुर में अपने पिता की फ़ैक्ट्री में ही थोड़ी सी जगह पर अपना काम शुरू किया। रईना ने इन महिलाओं को घर से काम करने की सहूलियत भी दी। रईना के वेंचर में काम करने वाली महिलाओं को उत्पाद तैयार करने के लिए एक हफ़्ते का समय दिया जाता है और उन्हें अपने हर उत्पाद के लिए पैसा दिया जाता है। उत्पाद तैयार करने का समय पूरा होने के बाद उत्पादों को इकट्ठा कर मुंबई के ऑफ़िस में भेज दिया जाता है।


काम देने के बाद रईना का अगला लक्ष्य था इन महिलाओं को प्रशिक्षित और शिक्षित करना। मिसाल के तौर पर उन्होंने सविता को न सिर्फ़ इंग्लिश सिखाई, बल्कि उन्हें सोशल मीडिया का इस्तेमाल करना भी सिखाया और मार्केटिंग के गुर भी बताए। रईना ने सविता के लिए हिंदी-मीडियम लैपटॉप की व्यवस्था भी की। इसी तरह आशा और पल्लवी को भी तरह-तरह के काम सिखाए।


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कॉलेज और अपनी इस मुहिम के कामों के बीच रईना तालमेल कैसे बिठाती हैं, इस संबंध में उन्होंने बताया,

"जब मैं यूके में होती हूं, पल्लवी सारे काम की निगरानी करती है। जब कोई समस्या आती है, तब पल्लवी उनको मेल करती हैं। इसके अलावा यूके में पढ़ाई के दौरान काफ़ी सहूलियत मिलती है और मैं साल में तीन महीने भारत में बिता पाती हूं।"


अपने वेंचर की सफलता के बाद रईना अब और भी ज़्यादा महिलाओं को अपनी मुहिम से जोड़ने की योजना बना रही हैं। वह चाहती हैं कि न सिर्फ़ तारापुर बल्कि आस-पास के गांवों की महिलाएं भी उनकी इस मुहिम का हिस्सा बनें और लाभान्वित हों।


(नोटः आशा, सविता और पल्लवी, रईना के वेंचर में काम करने वाली महिलाओं के काल्पनिक नाम हैं।)