Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

'ज़िंदा कौम 5 साल तक इंतजार नहीं करती' का मंत्र देने वाले लोहिया कैसे बने गैर-कांग्रेसवाद के प्रतीक?

'ज़िंदा कौम 5 साल तक इंतजार नहीं करती' का मंत्र देने वाले लोहिया कैसे बने गैर-कांग्रेसवाद के प्रतीक?

Wednesday October 12, 2022 , 5 min Read

1947 में देश की आज़ादी के बाद भी देश बनाने की प्रकिया सतत चलती रही. कांग्रेस सत्ताधीन हुई, लेकिन कई ऐसे नेता भी हुए जिन्हें कांग्रेस समाजवाद की सोच से भटकती हुई दिखी और वे उस कांग्रेस के खिलाफ उठ खड़े हुए जिसके साथ मिलकर देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ी. राम मनोहर लोहिया  (Ram Manohar Lohia)का नाम उन नेताओं के नाम की सूचि में बहुत ऊपर आता है.


समाजवाद की सोच का भारत में पुराना इतिहास रहा है, भगत सिंह से लेकर जवाहरलाल नेहरु से लेकर राममनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण… सूची लम्बी है. समाजवादी सोच से प्रभावित लोहिय ऐसे नेता थे, जो आजादी के बाद स्वतंत्र रूप से समाजवाद को समर्पित हो गए और अपनी इस लड़ाई के लिए कई बार कांग्रेस के भी खिलाफ हो गए. यहां तक कि उन्हें भारत में गैर कांग्रेसवाद की शिल्पकार तक माना जाता है. जनता के बीच उनकी ऐसे नेता की छवि है जो हमेशा निडर होकर अपनी बात रखता है. राजनीति में नफा-नुकसान के बारे में नहीं सोचता.


स्वंतत्रता सेनानी, सिद्धांतवादी, गंभीर चिंतक और समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया की आज, 12 अक्टूबर को उनकी पुण्यतिथि (Ram Manohar Lohia death anniversary) है.

बचपन में माता का देहांत

लोहिया का जन्म 23 मार्च 1910 को उत्तर प्रदेश के अकबरपुर (Akbarpur) में हुआ था. दो साल की उम्र में उनकी माता का देहांत हो गया था. 8 साल की उम्र में उनके पिता उन्हें बंबई ले गए जहां उन्होंने शुरुआती पढ़ाई. इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी गए. कोलकत्ता यूनिवर्सिटी से बीए किया और फिर आगे की पढाई के लिए जर्मनी गए. महात्मा गाँधी के विचारों से प्रभावित नौजवान लोहिया ने अपनी पीएचडी का शोध “भारत में नमक का कर” पर था, जो गांधी की सामाजिक आर्थिक विचार धारा पर था.

कांग्रेस में ‘सोशलिस्ट पार्टी’ के संस्थापक

भारत लौटने पर गांधी से मिले और यहाँ की राजनीति में सक्रिय हुए. “भारत छोड़ो आंदोलन” में उन्होंने खुल कर भाग लिया और जेल भी गए. भारत विभाजन के समय हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए उन्होंने गांधी का साथ दिया और कई जगह दंगाइयों को खुद जा कर शांत किया. देश की आज़ादी के बाद कांग्रेस में रहे लेकिन समाजवादी लोहिया का कांग्रेस पार्टी से जल्द ही मोहभंग हुआ. कई अवसर पर कांग्रेस की मुख्य धारा के नेताओं और गाँधी के विचारों से भी असहमति जताई. हालांकि, उनका विरोध कई बार गांधीवादी तरीके से होता था. कांग्रेस के अंदर ही कांग्रेस सोशिलिस्ट पार्टी (Socialist Party) की स्थापना हुई तो लोहिया उसके संस्थापक सदस्य बने. 1951 में सोशलिस्ट पार्टी का विलय किसान मजदूर प्रजा पार्टी (Kisan Mazdoor Praja Party) से हुआ और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (Praja Socialist Party) बनी. प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने चौथे लोकसभा चुनाव में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा था. हालांकि, चौथे लोकसभा चुनाव के बाद संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी 1972 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में ही मिल गई.


कहते हैं जब 1967 में जब हर तरफ कांग्रेस का जलवा था, तब राम मनोहर लोहिया इकलौते ऐसे शख़्स थे जिन्होंने कहा था कि कांग्रेस के दिन जाने वाले हैं और नए लोगों का जमाना आ रहा है. और ऐसा हुआ भी.


प्रधानमंत्री बनने के बाद लगातार जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) का कद बढ़ रहा था, लेकिन लोहिया को उनकी नीतियां पसंद नहीं आ रही थीं. जवाहर लाल नेहरू से मतभेदों के कारण लोहिया पहले ही कांग्रेस से अलग हो चुके थे. बात 1962 की है, लोहिया ने नेहरू के खिलाफ फूलपुर में चुनाव लड़ने का फैसला लिया. अपने चुनाव प्रचार में उन्होंने देश के हालात बताएं. आम जनमानस के मुद्दे उठाते हुए नेहरू की आलोचना की. कहा, आम इंसान को रोजाना दो आने नसीब नहीं हो पाते, लेकिन नेहरू रोजाना 25 हजार रुपय खर्च करते हैं. अगर नेहरू चाहते तो गोवा काफी पहले ही आजाद हो जाता.  इस चुनाव में लोहिया हार गए. चुनाव में नेहरू को 1.18 लाख से अधिक वोट मिले वहीं लोहिया को 54 हजार. हालांकि 1963 में फर्रुखाबाद (उत्तर प्रदेश) सीट पर हुए उपचुनाव में लोहिया को जीत मिली और संसद पहुंचे.


खैर, 1967 में चौथा लोकसभा चुनाव हुआ. यह चुनाव भारतीय राजनीति में कई मायनों में अहम रहा. अव्वल तो यह कि यह पहली बार था जब आजाद भारत में कांग्रेस पार्टी के आधिपत्य को चुनौती मिली थी. इस चुनाव में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने 13 सीटें और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने 23 सीटें जीती थीं. कांग्रेस ने 520 सीटों में से 283 सीटें जीतीं. साथ ही पार्टी का वोट शेयर भी कम रहा था. बहरहाल, 3 मार्च 1967 को दूसरी बार इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ तो ली, लेकिन कांग्रेस पार्टी को धक्का तो ज़रूर लगा था क्योंकि यह पहली बार था जब कांग्रेस को किसी लोकसभा चुनाव में इतना कम बहुमत मिला था. तभी उस दौर के भारतीय राजनीति में लोहिया के बारे में कहा जाता था‘जब जब लोहिया बोलता है, दिल्ली का तख्ता डोलता है.’


लोहिया के आदर्श का संघर्ष जीवन उनके साथ चला लेकिन 12 अक्टूबर 1967 को इसपर विराम लगा जब उनकी मृत्यु हुई.

लोहिया की राजनीतिक विरासत

किसी भी अच्छी राजनेता की पहचान उसके आदर्श और उसकी राजनीतिक विरासत से होती है. लोहिया की मृत्यु के बाद उनकी विरासत मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, किशन पटनायक, राम विलास पासवान की राजनीति में देखी जाती रही है. राममनोहर लोहिया का उद्धरण “ज़िंदा कौम पांच साल तक इंतजार नहीं करती” मुलायम सिंह यादव का मंत्र बन गया था और वो अपनी पार्टी को लोहिया की विरासत को मानने वाली पार्टी के तौर पर देखते थे. बिहार की राजनीति में लोहिया को जिन्होंने काफी हद तक अपने जीवन में उतारने की कोशिश लालू प्रसाद यादव की भी रही.


कुछ राजनीतिक विशेषज्ञों और जानकारों के मुताबिक़, लोहिया जिस तरह की राजनीति की बात करते थे, उस राजनीति को ठीक ठीक अपनाने वाले तो केवल किशन पटनायक ही हो पाए.


भारतीय राजनीति में लोहिया का कद मापना मुश्किल है, लेकिन सिर्फ कांग्रेस और गैर कांग्रेसवाद के नजरिए से देखने उनकी हस्ती के साथ अन्याय भी नहीं किया जा सकता है.