रणवीर सिंह और हम 'आम' आदमी: हमेशा 'अपने टाइम' के आने की चाह में
इन दिनों रणवीर सिंह की फिल्म का नया रैप 'अपना टाइम आएगा' काफी वायरल हो रहा है। इस रैप ने मुझे मेरे उन दिनों की याद दिला दी जब मुझे नाकाबिल समझा जाता था और कहा जाता था कि मैं उस लायक नहीं हूं कि यहां तक पहुंच सकूं।
मुझे अब भी काफी समय पहले बीती वो रात याद है जब मैं अपनी बहन के साथ अपने एक रिश्तेदार के यहां डिनर कर रही थी। वो दिन और साल तो ठीक से याद नहीं है, लेकिन उस रात की यादें आज भी मेरे जेहन में ताजा हैं। हम चार चचेरे भाई बहन साथ थे और हमारी उम्र यही कोई 7 से 10 के बीच रही होगी। हम सभी काफी भूखे थे और दूध में रोटी मिलाकर खाने का आनंद ले रहे थे। (हां, उस वक्त दूध में रोटी और तीनी मिलाकर खाने का स्वाद ही कुछ और हुआ कता था।)
लेकिन मुझे जिस बात से वो रात याद आती है वो यह था कि मुझे और मेरी बहन को उस रात आम नहीं दिया गया था बल्कि मेरे दोनों चचेरे भाइयों को आम खाने का मौका मिला था। हम भले ही बच्चे थे, लेकिन भला किसे नहीं पता होगा अमीर होने की अहमियत। हम इस तरह हुए भेदभाव के चलते हैरत में थे। क्या बड़ों को नहीं लगता था कि अगर हमें भी दूध रोटी के साथ आम दे दिया जाता तो हमें खुशी होती? क्या उन्हें नहीं पता था कि बाकी बच्चों की तरह हम दो बहनों को भी आम बेहद पसंद था?
तो मैंने बचपने में ही पूछ लिया, 'क्या हमारे लिए आम नहीं हैं?' तो हमें जवाब मिला, 'आम महंगे हैं। और तुमने किया क्या है जो आम दिए जाएं?' मुझे नहीं समझ आया था कि मेरे उन दोनों चचेरे भाइयों ने क्या किया था जिसकी वजह से उन्हें आम दिए गए। जाहिर सी बात है एक बच्चे के तौर पर हम अपने चचेरे भाइयों के अमीर पृष्ठभूमि से अनभिज्ञ थे। वहीं दूसरी तरफ हम एक सामान्य मध्यमवर्गीय घर से थे। इतना ही नहीं उस रात उस घर की एक औरत ने हमें अपमानित करने के इरादे से कहा, 'ये लड़की कुछ ज्यादा ही चालाक बन रही है।'
लेकिन आप जानते हैं कि ये घटना अभी तक मेरे जेहन में क्यों है? इसलिए नहीं कि मुझे ऐसा महसूस कराया गया, बल्कि इसलिए क्योंकि मैंने आम न मिलने की वजह से अपनी बहन का चेहरा देखा था। उसके चेहरे पर आम न मिल पाने की निराशा साफ झलक उठी थी। मुझे नहीं पता था कि कैसे, लेकिन मैंने अपना मन बना लिया था कि अब हम जिंदगी में कभी किसी से दोबारा आम नहीं मांगेंगे। वैसे तो ये बचपन की बात है लेकिन ये हमारे लिए ऐसा ही था, कि अपना टाइम आएगा।
इसलिए जब अभी मैंने रणवीर सिंह का रैप देखा मुझे पता चल गया कि वह कहना क्या चाह रहा है। ये मैं थी, 10 साल के वक्त में और भी जिंदगी के कई मौकों पर। जब मैंने वो वीडियो देखा तो मुझे लगा कि ये रणवीर सिंह नहीं बल्कि मैं हूं और रैप में गा रही हूं कि 'अपना टाइम आएगा। तू नंगा ही तो आया था, क्या मैंगो लेकर जाएगा।' वक्त बीतने के साथ-साथ वो मायावी आम मेरी जिंदगी के लिए एक मुहावरा बनन गया। उस आम की वजह से मुझे समझ आया कि उपेक्षित होना किसे कहते हैं। वैसे मैं उसके लिए आभारी महसूस करती हूं।
वैसे भी जब तक इंसान जिंदगी में दुख और दर्द नहीं झेलता उसके भीतर कुछ कर गुजरने की आग नहीं पैदा होती। खासकर तब जब कोई हमसे कहता है कि तुम इस लायक ही नहीं हो। हमारे स्टार्टअप की दुनिया की बात करें तो हां भी मैं कुछ वैसा महसूस करती हूं। तमाम आम और खास लोगों के बीच एक तरह की खाई है। अभी बीती रात ही किसी ने मुझसे पूछा कि, 'क्या तुम उस इन्वेस्टर की प्राइवेट डिनर पार्टी में गई थी जहां स्टार्टअप की दुनिया के तमाम बड़े लोग मौजूद थे।'
मैंने कहा, नहीं। लेकिन उसने फिर पूछा कि आपको तो इस डिनर के लिए बुलावा मिला था न? मैंने फिर उसे बताया कि नहीं मुझे कोई बुलावा नहीं मिला था और मैं ऐसे बुलावों में जाना पसंद नहीं करती। उसने फिर कोई सवाल नहीं किया, क्योंकि उसे जवाब मिल चुका था। स्टार्टअप की दुनिया में बुद्धिजीवियों और अपनी विद्वता का दंभ भरने वालों को मैंने देखा है कि वे वैसे ही हैं जैसे 10 साल पहले थे। सिर्फ उनके चेहरे बदल रहे हैं बस। तथाकथित सफल उद्यमी, इन्वेस्टर्स और बाकी गुरू जिन्हें लगता है कि उन्होंने सफलता हासिल कर ली है वे भी इसमें शामिल हैं। वे कभी शिखर पर पहुंचते दिखते हैं तो कभी बदलते मौसम की तरह गायब हो जाते हैं। फिर उनकी जगह कोई और ले लेता है।
इससे मुझे यही लगता है कि भले ही हम अपनी सफलता के 'आम' का स्वाद चख रहे हों, कोई न कोई आम आदमी जरूर रहता है जिसकी आंखों में आपका आम खटक रहा होता है और वो गा रहा होता है, 'अपना टाइम आएगा।' तो हम क्यों न अपने 'आम' साझा करें, जितने ज्यादा कर सकते हैं और जो भी कर सकते हैं। क्यों न हम लोगों को प्रति कम निर्णायक बनें? क्योंकि रणवीर सिंह की बात में मैं ये जोड़ना चाहूंगी कि सबका टाइम आएगा।
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