रंग लाई गैंडा संरक्षण की कोशिशें, यूपी के दुधवा में चार दशक में आठ गुना बढ़ी गैंडों की आबादी
उत्तर प्रदेश के तराई में स्थित दुधवा टाइगर रिज़र्व में गैंडों को फिर से बसाने के 38 सालों बाद आबादी में छह सौ गुना की प्रगति दर्ज की है. दुधवा में पांच गैंडों से इस कार्यक्रम की शुरूआत की गई थी. इस समय वहां 40 से अधिक गैंडे हैं.
भारत में जब भी एक सींग वाले गैंडे (राइनो) की बात होती है, तो हमारे दिमाग में एक नाम ही आता है. वो है असम का काजीरंगा नेशनल पार्क. लेकिन अब इसमें बाघों के लिए विख्यात दुधवा टाइगर रिजर्व का नाम भी जुड़ गया है. गैंडों को उनकी पुरानी जगहों पर फिर से बसाने की कोशिशों के चलते यह सफलता मिली है. दुधवा नेशनल पार्क में आज 40 से ज्यादा गैंडे स्वच्छंद विचरण कर रहे हैं. पिछले करीब चार दशक में इनकी आबादी यहां 600% तक बढ़ी है. आने वाले दिनों में ये तादाद और बढ़ने का अनुमान है.
वैसे तो दुधवा टाइगर रिजर्व 22,000 वर्ग किलोमीटर में फैला है. लेकिन 27 वर्ग किमी और 14 वर्ग किमी के दो ऐसे इलाके हैं, जहां गैंडे रहते हैं. इस साल इनकी गिनती कराई गई. इसके लिए असम से आए गैंडा विशेषज्ञ डॉ अमित शर्मा (गैंडा परियोजना के प्रमुख) और विश्व प्रकृति निधि के निर्देशन में गैंडों की गिनती के लिए दुधवा में सात टीमें बनाई गईं. लगभग दो दिन चली इस गिनती में सेंसर और ड्रोन कैमरों के अलावा हाथियों की मदद भी ली गई. दक्षिण सोनारीपुर रेंज में स्थित गैंडा परिक्षेत्र-1 में पांच और बेलरायां रेंज स्थित परिक्षेत्र-2 में दो टीमों ने गिनती की. परिक्षेत्र-1 के लगभग एक-तिहाई दलदली और बड़ी घास वाले इलाके में गिनती नहीं हो सकी. इस तरह 41 वर्ग किमी में तीन-चौथाई इलाके में ही गणना की जा सकी.
गिनती के बाद जो आंकड़े सामने आए वो उत्साह बढ़ाने वाले हैं. गणना के मुताबिक मौजूदा समय में यहां कम से कम 40 गैंडें हैं. इनमें 28 व्यस्कों में सात नर, 16 मादा और पांच अज्ञात लिंग के हैं. इसके अलावा चार उपव्यस्कों में एक मादा और तीन अज्ञात लिंग हैं. एक से तीन साल तक के आठ बच्चे भी हैं.
दुधवा टाइगर रिजर्व के उप निदेशक कैलाश प्रकाश ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा कि चूंकि 75% क्षेत्र में ही गणना का काम हो सका, इसलिए यह मानने का पर्याप्त आधार है कि गैंडों की संख्या 40 से ज्यादा होगी. उन्होंने दुधवा में गैंडों की बढ़ती आबादी के बारे में बताया कि वर्ष 2017 की गणना में गैंडों की संख्या 34 पाई गई थी.
दुधवा टाइगर रिजर्व के डिप्टी डायरेक्टर संजय पाठक दुधवा राइनो री इंट्रोडक्शन प्रोग्राम की सफलता से काफी खुश हैं. उन्होंने कहा कि दुनिया में किसी भी प्रजाति को फिर से बसाने के मामले में दुधवा का नाम सफलतम स्थापना कार्यक्रम की श्रेणी में लिया जाता है. अड़तीस सालों में 600% की प्रगति काफी सम्मानजनक है. उनके मुताबिक बाकी जानवरों के मुकाबले गैंडों की प्रजनन प्रक्रिया काफी धीमी होती है. इसके शिशुओं को तीन साल तक बाघ और तेंदुओं के हमले का डर भी होता है.
पाठक के मुताबिक एक मादा गैंडे का गर्भकाल 16 से 18 महीने तक का होता है. एक मादा, मां बनने के तीन साल बाद ही दूसरे शिशु को जन्म दे सकती है. गैंडे का बच्चा तीन से चार घंटे में चलने लगता है और तीन महीने तक मां का दूध पीता है. गैंडे का बच्चा तीन साल तक मां के साथ रहता है. सींग निकलने की प्रक्रिया शुरू होने पर वो मां से अलग हो जाता है. वैसे तो मादा गैंडा छह साल में वयस्क हो जाती है लेकिन वह नौ से 12 वर्ष के बाद ही पहले बच्चे को जन्म देती है. मादा की तुलना में नर देरी से वयस्क होता है. वयस्क होने पर एक गैंडा 1600 किलो से भी अधिक हो सकता है.
गैंडा संरक्षण के चार दशक
दुधवा टाइगर रिजर्व में एक सींग वाले गैंडों को फिर से बसाने की कोशिशें करीब चार दशक पहले शुरू हुई. अगस्त, 1979 में आईयूसीएन सर्वाइवल सर्विस कमीशन के एशियन राइनो स्पेशलिस्ट ग्रुप ने इस समूह पर लगातार निगरानी रखने और इनके संरक्षण पर जोर दिया. साथ ही एक सींग वाले गैंड़ों को इनके पुराने आवासों में फिर से बसाने की बात कही. इसके बाद इंडियन बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ की एक उप समिति ने इन सुझावों को ध्यान में रखते हुए गैंडों के लिए नए आवासों की खोज शुरू की. उप समिति ने कई जगहों का सर्वे करने के बाद गैंडों को बसाने के लिए दुधवा को सबसे मुफीद पाया.
दुधवा में गैंडों को फिर से लाने के लिए बनाई गई कमेटी के सदस्य व राइनो विशेषज्ञ डॉक्टर एसपी सिन्हा ने बताया, “किसी भी वन्यजीव की आबादी बढ़ाने के लिए जो क्षेत्र चुना जाता है, वहां का सबसे पहले इतिहास देखा जाता है कि यह वन्यजीव कितने दिन पहले यहां पाया जाता था. इस आधार पर जब इस इलाके को देखा गया तो पाया गया कि 1878 यानी 106 साल पहले इस इलाके के पीलीभीत में आखरी गैंडे का शिकार हुआ था.”
सिन्हा ने बताया कि गैंडों के आवास में दलदली जमीन, जंगल और घास के मैदानों का होना बहुत जरूरी है. गैंडों को गीली मिट्टी और कीचड़ में अठखेलियां करना बहुत पसंद है. उन्हें छिपने के लिए जंगल और भोजन के लिए घास चाहिए. इन तीनों पैमाने पर दुधवा टाइगर रिज़र्व उपयुक्त पाया गया. यही नहीं, यहां की आबोहवा को काजीरंगा नेशनल पार्क से मिलता-जुलता पाया गया और गैंडों के लिए यहां पर्याप्त सुरक्षा भी उपलब्ध थी.
इसके बाद सबसे उपयुक्त 27 वर्ग किमी का इलाका चिन्हित किया गया. फिर 106 साल बाद उत्तर प्रदेश में गैंडों की दोबारा वापसी हुई. साल 1984 के मार्च-अप्रैल में असम के पाबीतरा वन्यजीव अभयारण्य से छह गैंडे पकड़े गए. इनमें से एक की गुवाहाटी चिड़ियाघर में मौत हो गई. पांच में से दो नर और तीन मादा को दुधवा लाया गया. लेकिन दुधवा में इन्हें बसाने की योजना इतनी आसान नहीं रही. इन्हें 20 अप्रैल 1984 को दुधवा में छोड़ा गया. लेकिन इनमें से एक मादा की मौत गर्भपात के दौरान हो गई. एक मादा की 1984 में और मौत हो गई. इसके बाद एक मादा और दो नर गैंड़े ही बचे. फिर नेपाल सरकार से बात कर 16 हाथियों के बदले चार युवा मादा गैंडे यहां लाए गए. इन्हें नेपाल के पास चितवन से पकड़ा गया और 1985 के अप्रैल महीने में दुधवा लाया गया. इस तरह इन सात गैंड़ों से आबादी बढ़नी शुरू हुई.
इनकी बढ़ती आबादी को देखते हुए बिलराया रेंज के भारीताल में 14 वर्ग किलोमीटर का एक और क्षेत्र चुना गया. इस बार गैंडे बाहर से लाने की बजाए सुनारीपुर रेंज से ही तीन मादा और एक नर को वहां छोड़ा गया.
संजय पाठक ने बताया कि दुधवा के अलावा अब नए इलाकों में गैंड़ों को बसाने पर विचार हो रहा है. यह भी विचार हो रहा कि असम और नेपाल के गैंडे तो हैं लिहाज़ा अब बंगाल से भी गैंडे लाए जाएं. इन बातों पर विचार के लिए एक कमेटी बनने जा रही है जो अध्ययन करके अपनी रिपोर्ट सरकार को देगी. इस काम के लिए सरकार ने 1.43 करोड़ रुपए स्वीकृत किए हैं.
भारत में गैंड़ों का रहा है कुदरती वास
दुधवा टाइगर रिजर्व की वेबसाइट के मुताबिक एक समय ऐसा था जब भारत में एक सींग वाले गैंडे एक बड़े इलाके में पाए जाते थे. इनमें सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र के मैदानी इलाके शामिल थे. बाबरनामा जैसी ऐतिहासिक किताबों में तो इन गैंडों का विस्तार पूर्व में मौजूदा भारत-म्यांमार सीमा तक बताया गया है.
वैसे तो दुनियाभर में पांच तरह के गैंडै पाए जाते हैं लेकिन एक सींग वाला गैंडा सिर्फ भारत, नेपाल और भूटान में पाया जाता है. इसलिए इसे एशियाई गैंडा या भारतीय गैंडा भी कहा जाता है. दुनियाभर में गैंड़ों की सबसे बड़ी प्रजाति भी यही है. साल 1984 तक गैंडों की संख्या में काफी गिरावट दर्ज की गई. वजह थी इनकी नाक पर सींग, जिसके कारण इनका भारी संख्या में अवैध शिकार हुआ. वर्ल्ड वाइड लाइफ के मुताबिक एक वक्त इनकी आबादी गिरकर 200 पर आ गई थी और गैंड़ों की ये प्रजाति खत्म होने के कगार पर पहुंच गई थी. लेकिन भारत और नेपाल सरकार की संरक्षण की कोशिशों के चलते अब इनकी आबादी चार हजार से अधिक हो गई है.
इंटरनेशनल राइनो फाउंडेशन की ओर से इस साल जारी रिपोर्ट के मुताबिक भारत और नेपाल में फिलहाल गैंड़ों की संख्या 4014 है। साल 2018 में हुई गिनती के मुताबिक आबादी में 426 की बढ़ोतरी हुई है। जबकि एक दशक पहले आबादी 3000 से कम थी।
पाठक ने बताया कि भारत में सिर्फ सात ऐसी जगहें हैं जहां गैंडों के प्राकृतिक वास हैं। इनमें असम में चार, बंगाल में दो और उत्तर प्रदेश लखीमपुर स्थित दुधवा में एक। भारत में वैसे तो देश के 18 राज्यों में 22 टाइगर रिज़र्व है लेकिन चार ही ऐसे टाइगर रिज़र्व है जहां बाघ और गैंडे एक साथ रहते हैं। इनमें आसाम में कांजीरंगा, ओरान, मानस सिटी और उत्तर प्रदेश में दुधवा टाइगर रिज़र्व। इसलिए यह चारों जगहें काफी विविधतापूर्ण है।
(यह लेख मूलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: दुधवा टाइगर रिजर्व में एक सींग वाले गैंडों को फिर से बसाने की कोशिशें करीब चार दशक पहले शुरू हुई. तस्वीर - संजय पाठक
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