पुरानी पवन चक्कियों की क्षमता बढ़ाने की नई नीति से कैसे बदलेगा ऊर्जा क्षेत्र
नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय ने हाल ही में पुरानी पवन चक्कियों की क्षमता बढ़ाने के लिए एक ड्राफ्ट नीति जारी की है. इस नीति का उद्देश्य देश में पुरानी और कम क्षमता वाली पवन चक्कियों को अधिक क्षमता वाली और आधुनिक पवन चक्कियों से बदलने का है, ताकि देश में पवन ऊर्जा का उत्पादन बढ़ाया जा सके.
भारत सरकार के नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय ने हाल ही में पवन ऊर्जा को देश में बढ़ावा देने के लिए एक ड्राफ्ट नीति जारी की है. इस नीति का उदेश्य देश में पुरानी और कम क्षमता वाली पवन चक्कियों को आधुनिक और ज्यादा क्षमता वाली पवन चक्कियों से बदलने का है.
भारतीय पवन ऊर्जा संस्थान (एनआईडबल्यूई) का एक आकलन कहता है कि देश में पवन ऊर्जा की कुल स्थापित ऊर्जा क्षमता 41.66 गीगावॉट है. एनआईडबल्यूई के अनुसार देश में 25 गीगावॉट तक की क्षमता वाली पवन चक्कियों को आधुनिक पवन चक्कियों में बदलने की जरूरत है. हालांकि, देश में अब तक इस ओर बहुत अधिक काम नहीं हो पाया है.
भारत सरकार ने इससे पहले 2016 में कुछ ऐसा ही प्रयास किया था जब पुरानी पवन चक्कियों को बदलने के लिए एक नीति बनाई गई थी, लेकिन इस नीति के होने के बाद भी बहुत सी पुरानी पवन चक्कियों को नहीं बदला जा सका. अब पांच साल बाद भारत सरकार ने कुछ नए प्रावधानों, मानकों और वित्तीय सहायता की बात करते हुये एक नई ड्राफ्ट नीति जारी की है और इस क्षेत्र से जुड़े लोगों से उनकी राय मांगी है.
इस नीति में पवन चक्कियों की रीपावरिंग की बात कही गई है ताकि पवन ऊर्जा का अधिक उत्पादन हो सके. रीपावरिंग का मतलब पुरानी कम आकार और कम क्षमता वाली पवन चक्कियों को आधुनिक बड़े आकार और अधिक क्षमता वाली पवन चक्कियों से बदलने से है. रीपावरिंग के कारण बदली गई पवन चक्की से अधिक पवन ऊर्जा का उत्पादन करना संभव हो पाता है.
इस क्षेत्र में शोध करने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि पवन चक्कियों की रीपावरिंग से बहुत लाभ हैं और सरकार की नई नीति इस क्षेत्र को एक नई दिशा दे सकती है. दीपक कृष्णन, वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (डबल्यूआरआई) में ऊर्जा प्रोग्राम ने एसोसिएट निदेशक हैं. कृष्णन ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि आधुनिक पवन चक्कियों की अधिक क्षमता के अलावा और बहुत से अतिरिक्त फायदे भी हैं जैसे तूफानी हवाओं को सहने की अधिक क्षमता.
“अभी के समय में आधुनिक पवन चक्कियों के बहुत लाभ हैं जो पुराने समय की पवन चक्कियों में नहीं पाए जाते थे. उदाहरण के तौर पर आधुनिक पवन चक्कियों में दूर से निगरानी के लिए उपकरण लगे होते हैं. इसके कारण मौसम का अनुमान भी लगाया जा सकता है,” कृष्णन ने बताया.
“इसमें नियंत्रण के लिए भी कुछ सयन्त्र लगे होते हैं जिससे तूफानी हवा चलने के समय पवन चक्कियों के ब्लेड (पंखों) को बचाने के लिए भी समय पर कदम उठाए जा सकते हैं. आधुनिक पवन चक्कियों में ज्यादा भार में भी अच्छे प्रदर्शन की क्षमता होती है,” कृष्णन बताते हैं.
भारत सरकार की नई ड्राफ्ट नीति में रीपावरिंग के लिए चुनी जाने वाली पवन चक्कियों के लिए भी कुछ मानक तय किए गए हैं. इस नीति के अनुसार वो सभी पवन चक्कियां जिनकी क्षमता 2 मेगावाट से कम है या जिनकी डिज़ाइन की समयावधि खत्म हो गई है रीपावरिंग के लिए योग्य हैं. वहीं, 2016 की नीति में ऐसी पवन चक्कियों को ही रीपावरिंग के लिए योग्य रखा गया था जिनकी क्षमता 1 मेगावॉट से कम थी.
अपनी 2016 की नीति में बदलाव करने वाली यह ड्राफ्ट नीति कहती है, “चूंकि अब देश में 3 मेगावाट से अधिक क्षमता वाले पवन चक्कियों का उत्पादन हो रहा है, 2 मेगावाट से कम क्षमता वाली पवन चक्कियों की रीपावरिंग की जानी चाहिए.”
हालांकि, 2016 की रीपावरिंग की नीति और 2022 की ड्राफ्ट नीति में कुछ समानताएं भी हैं. दोनों नीतियों में रीपावरिंग परियोजनाओं के लिए 0.25% ब्याज दर की रियायत भी दी गई है. इस नीति में यह भी कहा गया है कि केंद्र सरकार या राज्य सरकार चाहे तो रीपावरिंग करने की इच्छुक पवन चक्कियों की कंपनियों के लिए विशेष रियायत देने के लिए कोई विशेष परियोजना भी चला सकती है. जो कंपनियां रीपावरिंग करना चाहती हैं उन्हे इस नीति में नवीकरणीय खरीद बाध्यता (आरपीओ) के नियमों के बाध्यता से भी रीपावरिंग की पूरी प्रक्रिया के दौरान छूट दी जाएगी.
नए नियम कहते हैं कि रीपावरिंग की पूरी प्रक्रिया के बाद जो अतिरिक्त बिजली पवन ऊर्जा के माध्यम से पैदा होगी वो या तो पवन ऊर्जा की कंपनियां उन बिजली के कंपनियों को बेच सकती हैं जिनसे उनका पहले से समझौता हुआ है या यह बिजली किसी दूसरे को भी बेची जा सकती है.
कृष्णन का कहना है कि नियमों के नए बदलाव के कारण इस क्षेत्र को बढ़ने में मदद मिल सकती है. “साल 2016 की नीति के बाद पवन ऊर्जा की रीपावरिंग पर ज्यादा सफलता नहीं मिल पाई क्योंकि उस समय यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि रीपावरिंग के माध्यम से बिजली उत्पन करने की क्षमता पर लगने वाले खर्च का भार कौन सहेगा. इस नए नीति में दो प्रमुख प्रावधान हैं. एक यह है कि रीपावरिंग के दौरान आरपीओ के प्रावधानों में छूट मिलेगी और दूसरा यह कि जब एक से ज्यादा पवन ऊर्जा की कंपनियां साथ में इसके लिए आवेदन करना चाहे तो इसे कैसे किया जा सकेगा. मेरे मत से इन नए बदलावों के कारण रीपावरिंग ज्यादा आकर्षक हो सकती है. चूंकि अब 2 मेगावाट से कम क्षमता वाली पवन चक्कियों को रीपावरिंग के लिए योग्य घोषित किया गया है अब बहुत सी पुरानी और कम क्षमता वाली पवन परियोजनाएं इसके लिए योग्य हो पाएंगी.”
रीपावरिंग की नई ड्राफ्ट नीति एक पवन ऊर्जा की रीपावरिंग कमिटी की भी परिकल्पना करती है जहां केंद्र सरकार, राज्य सरकार, भारतीय नवीन ऊर्जा विकास एजेंसी, भारतीय पवन ऊर्जा संस्थान एवं अन्य संस्थाओं के सदस्य होंगे.
“देश में बहुत सी पुराने पवन चक्कियां अब अपनी डिज़ाइन समयावधि पूरी कर चुकी हैं या उसके करीब हैं. यह पवन चक्कियां अभी के समय की आधुनिक तकनीक वाली पवन चक्कियों की तुलना में उतनी कारगर नहीं हैं और इनकी ऊंचाई भी कम है (30 मीटर से 60 मीटर) जबकि अभी के समय की पवन चक्कियों की ऊंचाई 120 मीटर से 140 मीटर तक की है. अतः इन पुरानी पवन चक्कियों को रीपावर करने की जरूरत है जो अभी की अधिक क्षमता वाली पवन चक्कियों से किया जा सकता है ताकि उस जगह पर मौजूद पवन ऊर्जा की क्षमता को अधिक से अधिक उपयोग में लाया जा सके,” ड्राफ्ट नीति अपने दस्तावेजों में कहती है.
ताजा दस्तावेज़ कहते है कि भारत में अभी तक केवल 41.66 गीगावाट पवन ऊर्जा की स्थापित ऊर्जा है जबकि देश में नवीकरणीय ऊर्जा की कुल स्थापित ऊर्जा 118 गीगावाट की है. भारत ने अपने नए जलवायु परिवर्तन के लक्ष्यों में यह तय किया है कि 2030 तक देश की कुल ऊर्जा का 50% भाग गैर जीवाश्म ईंधन से आएगा जबकि 2070 में देश उत्सर्जन मुक्त हो जाएगा.
रीपावरिंग के फायदे और चुनौतियां
प्रकाश वोरा गुजरात के वडोदरा शहर में रहने वाले एक ऊर्जा विश्लेषक और कंसल्टेंट हैं. उन्होने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि पवन चक्कियों की रीपावरिंग के कारण प्रति वर्ग किलोमीटर में ज्यादा पवन ऊर्जा का उत्पादन करना संभव हो सकता है. तकनीकी विकास और लंबे पवन चक्कियों के कारण इनके ब्लेड अब ज्यादा जगह में घूम पाते हैं जिससे ज्यादा ऊर्जा पैदा हो पाती है.
“जब भारत ने पवन ऊर्जा के क्षेत्र में 90 के दशक में कदम रखा था तब पवन चक्कियां 250 किलोवाट से 500 किलोवॉट तक ही ऊर्जा पैदा कर पाती थी लेकिन अब आधुनिक पवन चक्कियां 4 मेगावॉट से भी अधिक ऊर्जा पैदा कर पाने में सक्षम हैं. अब उसी क्षेत्रफल में इन आधुनिक पवन चक्कियों के माध्यम से अधिक ऊर्जा पैदा हो रही है. पुरानी पवन चक्कियां देश की बहुत सी ऐसी जगहों पर स्थित हैं जहां उच्च कोटि की पवन ऊर्जा पैदा करने की क्षमता है. जबकि बहुत सी बेहतर क्षमता वाली पवन चक्कियां कम पवन क्षमता वाली भौगोलिक जगहों पर होने के कारण बहुत ज्यादा पवन ऊर्जा का उत्पादन नहीं कर पाती हैं. देश में 60% से अधिक पवन चक्कियां 20 वर्ष से ज्यादा पुरानी हैं और अपने अंतिम पड़ाव पर हैं. अतः उनकी रीपावरिंग एक अच्छा कदम है,” वोरा ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया.
इस साल नई दिल्ली की एक संस्था वसुधा फाउंडेशन ने इस विषय पर एक शोध भी प्रकाशित किया था. इस रिपोर्ट में कहा गया कि 90 के दशक में भारत में बहुत सी सरकारी पवन ऊर्जा के प्रोजेक्ट लगाए गए जो देश में बेहतरीन पवन ऊर्जा क्षमता वाले क्षेत्रों में लगाए गए. यह रिपोर्ट कहती है कि सरकार को इन सभी सरकारी प्रोजेक्ट को रीपावरिंग के लिए इस्तेमाल करना चाहिए ताकि दूसरी निजी पवन ऊर्जा कंपनियां भी इस ओर रुख करें. इस रिपोर्ट का कहना है कि रीपावरिंग के कारण मरम्मत और रख रखाव में भी कम खर्च आता हैं और इसमें वित्तीय फायदे भी अधिक हैं. इसके अलावा नए पवन ऊर्जा के प्रोजेक्ट लगाने की अपेक्षा जमीन अधिग्रहण पर लगने वाला खर्च भी कम आता है जबकि आधुनिक पवन ऊर्जा की चक्कियों को लगाने के कारण पक्षियों को पवन चक्कियों से होने वाले नुकसान भी कम किए जा सकते हैं.
हालांकि, विशेषज्ञों की मानें तो अच्छी मंशा होने के बाद भी 2016 की नीति देश में बहुत अच्छे परिणाम नहीं ला पाई. “हमारा विश्लेषण कहता है कि भारत में केवल 16 प्रदेश ऐसे हैं जिन्होंने अपनी पवन ऊर्जा की नीति बनाई है और केवल 3 ही ऐसे प्रदेश हैं जिन्होंने अपनी पवन नीति में रीपावरिंग का जिक्र किया है. वहीं, गुजरात इकलौता ऐसा प्रदेश है जहां पर रीपावरिंग के लिए एक अलग से नीति है,” वसुधा फ़ाउंडेशन मे वरिष्ठ मैनेजर जयदीप सारस्वत ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया.
हालांकि इस क्षेत्र में रीपावरिंग को लेकर कुछ चुनौतियां भी हैं. डबल्यूआरआई के दीपक कृष्णन ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “एक जगह पर एक से ज्यादा पवन ऊर्जा की कंपनियों के होने से कठिनाई थोड़ी और बढ़ जाती है. ऐसी स्थिति से बचने के लिए कुछ प्रावधानों के बावजूद दोनों कंपनियों को लाभ देना मुश्किल होता है. बिजली कंपनियों के साथ बातचीत के कई दौर के बाद इस तरह का कोई करार हो पाता है.”
(यह लेख मूलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
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