घाटकोपर के स्लम में आठ बाय दस की खोली, अमरूद का पेड़ और सपने देखने वाली एक लड़की
मुंबई के स्लम में पैदा हुई और पली-बढ़ी एक लड़की स्कॉलरशिप पर कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी पीएचडी करने जा रही हैं. सरिता माली की ये कहानी सिर्फ एक पॉपुलर सक्सेस स्टोरी भर नहीं है. वो आजादी, आत्मनिर्भरता और बुद्धिमत्ता सबकुछ तक पहुंचने की कहानी है.
ये कहानी है 28 साल की सरिता माली की.
इस कहानी का सबसे नया अध्याय ये है कि अमेरिका के दो नामी विश्वविद्यालयों यूनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन और यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया ने सरिता को अपने यहां पढ़ने के लिए बुलाया है. उन्हें अमेरिका की सबसे प्रतिष्ठित फैलोशिप्स में से एक चांसलर फैलोशिप मिली है. उन्होंने दोनों में से यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया को चुना है. वो अब सितंबर में अमेरिका जा रही हैं. 28 बरस की सरिता जीवन में पहली बार हवाई जहाज में बैठने वाली हैं. इसके पहले उन्होंने प्लेन को सिर्फ दूर आसमान में उड़ते देखा था या सिनेमा के पर्दे पर. हकीकत में पहली बार देखेंगी.
अगर ये इस कहानी का इकलौता अध्याय होता तो ये कोई इतनी बड़ी बात भी नहीं थी कि जिसकी कहानी सुनाई जाए. लेकिन ये कहानी जहां से शुरू होती है, वहां शुरू हुई कहानियों का अंत यहां नहीं होता, जहां सरिता की कहानी का हुआ. इसलिए इस कहानी को शुरू से शुरू करते हैं.
1994 का साल था. भारत में वैश्वीकरण को दस्तक दिए कुछ चार साल हो चुके थे. इस देश के इतिहास में पहली बार राष्ट्रीय आय का आंकड़ा दस करोड़ के पार पहुंचा था. दुनिया को पहली बार पता चला था कि धरती ही नहीं, बल्कि पूरे ब्रम्हांड की सबसे सुंदर स्त्री भारत में जन्मी है. सुष्मिता सेन उसी साल मिस यूनीवर्स चुनी गई थीं. जब ये सब हो रहा था, तभी देश और दुनिया की सारी हलचलों से दूर मुंबई के घाटकोपर इलाके की एक झुग्गी बस्ती में रहने वाले रामसूरत माली के घर एक लड़की का जन्म हुआ. उसके पहले एक और बेटी पैदा हो चुकी थी. उत्तर प्रदेश के जौनपुर के गांव बदलापुर से रोजी-रोटी की तलाश में मुंबई आए रामसूरत माली इस महानगर के सिगनल पर फूल बेचने का काम करते थे. पत्नी सरोज देर रात तक घर में फूलों की माला बनाती. सुबह-सुबह रामसूरत उसे बेचने जाते.
दस बाइ आठ की वो खोली और अमरूद का पेड़
10 फुट लंबा और आठ फुट चौड़ा वो एक छोटा सा कमरा था, जहां सरिता का बचपन बीता. अलग से कोई रसोई नहीं थी, न गुसलखाना. कमरे की एक दीवार से सटा ईंट और सीमेंट का एक प्लेटफॉर्म था, जिस पर खाना बनता. वही उनकी रसोई थी. कमरे में फर्नीचर के नाम पर सिर्फ एक पुराना तख्त था, जिसके ऊपर दीवार पर लकड़ी के चार शेल्फ लगे हुए थे, जिस पर बच्चों की स्कूल की किताबें पुराने अखबारों की जिल्द चढ़ाकर रखी जातीं. उसी कमरे में खाना बनता, बच्चे पढ़ाई करते, देर रात तक पूरा परिवार फूलों की माला बनाता और जमीन पर चटाई बिछाकर रात में सोता. छह लोगों का भरा-पूरा परिवार. सरिता, उससे तीन साल बड़ी एक बहन, एक और तीन साल छोटे दो भाई, मां और पिता.
उस अंधेरे, उमस और सीलन भरे कमरे में रौशनी, हवा और उम्मीद तीनों के आ सकने का रास्ता बहुत तंग था. रसोई वाले हिस्से में दो फुट की एक छोटी सी खिड़की थी, जिससे थोड़ा सा आसमान दिखाई देता. सरिता जब उस कमरे को याद करती हैं तो सबसे ज्यादा बातें करती हैं अमरूद के उस पेड़ की, जो उस कमरे की खिड़की से दिखाई देता था. मीठे अमरूदों वाला वो पेड़ झुग्गी के बच्चों का ठिकाना था. लेकिन बाद में कुछ ऐसे हालात हुए कि वो पेड़ काटना पड़ा. 10 बरस की सरिता के लिए वो किसी प्रिय चीज के बिछुड़ जाने का पहला एहसास था. संघर्ष बहुत था जिंदगी में, लेकिन कभी लगा नहीं कि है. बचपन तो मजेदार ही था. लेकिन जिस दिन वो अमरूद का पेड़ कटा, सरिता ने खाना नहीं खाया. कई दिनों तक उदास रही.
उस पेड़ के जाने के बाद भी थोड़ी हरियाली बची रह गई थी. लाल फूलों वाला गुड़हल का एक पेड़ था और एक छोटा सा नीम का पौधा, जिसकी मां रोज पूजा करतीं. सरिता की बचपन की जिंदगी में सिर्फ फूल, अमरूद और नीम का पेड़ ही नहीं था. हिंसा, मारपीट, ड्रग्स, मर्डर जैसी चीजें भी थीं. कभी खबर आती कि घर से दूर किसी का मर्डर हो गया. कभी कोई ड्रग्स के ओवरडोज से मर जाता. कोई शराब पीकर नाली में पड़ा मिलता. जिंदगी की तकलीफों से हारे हुए लोग आपस में झगड़े करते. आए-दिन मारपीट, हिंसा, गाली-गलौज कोई नई बात नहीं थी.
पांचवी पास पिता के सपने
रामसूरत पांचवीं पास थे और सरोज आठवीं. सिगनल पर फूल बेचना ही उनका जीवन था, लेकिन पिता को लगता था कि ये नियति नहीं होनी चाहिए. जिंदगी बदल सकती है. खुद उन्हें भले अपना स्कूल जाना अब याद भी न हो, लेकिन उन्हें पता था कि शिक्षा ही वह रास्ता है, जिस पर चलकर उनके बच्चों का जीवन बदल सकता है. खुद से बेहतर जिंदगी जी रहे लोगों के बारे में उन्हें एक ही फर्क समझ आता. वे सब पढ़े-लिखे लोग थे. ठीक-ठीक क्या होगा पता नहीं, लेकिन इतना तो जरूर है कि पढ़ने से कुछ अच्छा होता है. सरिता के पिता भले इंसान थे. मिलनसार थे, जबान के मीठे. आसपास के समृद्ध गुजराती दुकानदार भी उन्हें अपनी दुकान पर बिठाकर उनसे बातें करते. वे सबके सुख-दुख, किस्से, बातें सुनते, लेकिन जो कहानियां उनके साथ घर लौटतीं, उनमें ज्यादातर इन बातों का जिक्र होता कि किसका बच्चा कहां किस कॉलेज में पढ़ रहा है. कौन सा कोर्स, कौन सी पढ़ाई, कौन सा कॉलेज और कौन सी किताबें.
रामसूरत जब अपने परिवार को लेकर मुंबई जा रहे थे, तब भी गांव में काफी विरोध हुआ था. बूढ़ी दादी अकेली रह जाएंगी. लड़कियों को यहीं छोड़ दो. ससुराल से चिट्ठी लिख सके, इतना तो यहां गांव में पढ़ ही लेगी. लेकिन तब पहली लड़ाई सरोज ने लड़ी थी अपनी सास से कि बेटियों को साथ लेकर जाएंगे. शहर के स्कूल में पढ़ाएंगे. अफसर बनाएंगे. पिता ने तब मां का साथ दिया. जब लड़की ने बारहवीं पास कर ली, दादी ने फिर जोर दिया कि अब गांव आकर लड़की का ब्याह कर दो. लेकिन इस बार दोनों ही लड़े. लड़की हर क्लास में अव्वल आती थी. स्कूल में टॉप किया था. गोल्ड मेडल पाई थी. शहर के सबसे नामी के.जी. सोमाया कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड कॉमर्स में मेरिट पर एडमिशन मिला था. अब गांव वापस लौटने का तो सवाल ही नहीं उठता था.
ये जेएनयू क्या चीज है ?
बीए का रिजल्ट आया. सरिता ने टॉप किया था. फिर कहीं से उसे दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के बारे में पता चला. इंट्रेंस फॉर्म भरा, परीक्षा दी. आखिरी दिन कोटे की आखिरी बची सीट पर सरिता का नाम आ गया. दिल्ली का अब तक सिर्फ नाम सुना था. बहुत दूर कहीं एक शहर है. देश की राजधानी है. सोचा नहीं था एक दिन वो खुद उस शहर पढ़ने जाएगी.
एडमिशन मिलने की खुशी तो थी, लेकिन उस खुशी से ज्यादा जरूरी और सच्ची थी पैसों की फिक्र. इतनी दूर जाने, रहने, पढ़ने का खर्च कैसे पूरा होगा. कुछ ही दिन पहले बहन की शादी हुई थी. पिता पहले से कर्ज में डूबे थे. जेएनयू में पढ़ाने का खर्च कैसे उठाएंगे.
सरिता ने पिता को बताया कि मेरा एडमिशन हो गया है. पिता को नहीं पता था कि जेएनयू क्या है, जेएनयू कहां है, जेएनयू में पढ़ने के मायने क्या हैं. उन्हें इतना समझ आया कि पूरे देश से हजारों लोग उस परीक्षा में बैठे थे, जिसमें से सिर्फ 35 लोग चुने गए और उनकी बेटी उन 35 में से एक है.
पिता ने सिर पर हाथ रखा और कहा, “तुम सामान बांधो.”
सरिता ने पूछा, “पैसों का क्या होगा.”
पिता बोले, “वो तुम्हारी चिंता नहीं है.”
कुछ दिन बाद सरिता एक बैग में चार सूट, कुछ किताबें, डॉक्यूमेंट्स, थोड़ा डर, थोड़ी बेचैनी और ढेर सारे सपने पैक किए पश्चिम एक्सप्रेस में बैठकर मुंबई से दिल्ली आ गई. पर्स में 2000 रु. थे. ये एक नई जिंदगी की शुरुआत थी.
पहली आईब्रो और पहली मुहब्बत
एकेडमिक रिकॉर्ड तो सरिता का पहले भी कमाल था. जेएनयू में भी रहा. लेकिन जेएनयू ने सरिता को वे सवाल करना सिखाया, जो उसके मन में तो थे, लेकिन अब तक उन्हें शब्द नहीं मिले थे. पिता ने पढ़ाना चाहा क्योंकि पढ़ने से जिंदगी बदलती है. लेकिन आज सरिता को पता है कि पढ़ने से सिर्फ हमारी सामाजिक हैसियत ही नहीं बदलती, हम भी बदलते हैं. हमारी सोच बदलती है. संसार को और खुद को देखने का हमारा नजरिया बदलता है.
माता-पिता को लगता था कि पढ़ेगी, अच्छी नौकरी करेगी तो अच्छा लड़का मिलेगा. आज सरिता को पता है कि बात सिर्फ अच्छा लड़का मिलने की नहीं है. बात मेरे होने की है. मेरे वजूद की है. और ये नजर सिर्फ अकादमिक किताबें पढ़ने और कॉलेज में टॉप करने से नहीं आती. ये नजर इतिहास, दर्शन, कहानियां, उपन्यास पढ़ने और संसार के अथाह ज्ञान से गुजरने से आती है. सरिता सिर्फ कोर्स की किताब नहीं पढ़तीं. वो ढेर सारे उपन्यास भी पढ़ती हैं. इतिहास पढ़ती हैं. कविताएं पढ़ती हैं. तोल्स्तोय का उपन्यास अन्ना कारेनिना उनका फेवरेट नॉवेल है.
जेएनयू ने सरिता को सपने देखना, प्यार करना, जीना सिखाया. स्त्री होना सिखाया. पैट्रीआर्की पर सवाल करना सिखाया. फेमिनिज्म सिखाया. 2016 में सहेलियों के साथ पहली बार पार्लर जाकर आईब्रो बनवाई. 2017 में एमफिल में पहली बार वैक्सिंग करवाई. मुंबई में एक बार सिनेमा हॉल में पिक्चर भी देखी थी. जेएनयू आकर शहर देखना, शहर घूमना, शहर होना सीखा. दसवीं क्लास में एक लड़का भी अच्छा लगता था, जो एक साल तक सरिता के दिल में बसा रहा. जेएनयू में प्यार करना सीखा. किसी लड़के से ज्यादा खुद से और अपने जीवन से.
अब सरिता अमेरिका जा रही हैं कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से पीएचडी करने. वहां वो भक्ति काल के कवियों और कविताओं पर रिसर्च करेंगी. उनकी रिसर्च हिंदी साहित्य के उस दौर को फेमिनिस्ट लेंस से देखने की एक कोशिश है. इतिहास तो बहुत लिखा गया, लेकिन सब मर्दों का और मर्दों के नजरिए से. औरतों के नजरिए से इतिहास को देखने की शुरुआत तो अब हुई है, जब औरतों के हाथ में कलम, दिमाग में आजादी की अलख और मुंह में जबान आई है. इस इतिहास का अध्याय लिखने की जिम्मेदारी अब सरिता माली ने अपने हाथों में ली है.
कहते हैं, कोई भी कहानी सुनने और सुनाए जाने की लायकियत तब हासिल करती है, जब उसमें तमाम मुश्किलों के बाद आखिरी पड़ाव सफलता का हो. हम भी शायद ये कहानी इसलिए सुना रहे कि मुंबई की झोपड़पट्टी से निकलकर एक लड़की अमेरिका पहुंच गई.
लेकिन सरिता के लिए ये सफलता उतनी बड़ी नहीं है, जितनी बड़ी वो यात्रा है. अमेरिका जाने से ज्यादा बड़ी बात ये है कि उनका जीवन समाज की उन संकीर्ण, घिसी-पिटी रूढि़यों में पिसकर खत्म नहीं हुआ. उन्होंने सिर्फ सफलता नहीं, बल्कि बड़ा नजरिया पाया. अपने होने का बड़ा अर्थ पाया.
सरिता ही क्यों, कोई भी लड़की आज्ञाकारी बहू बनने के लिए नहीं पैदा होती. वो स्वतंत्र, आजाद, बुद्धिमान और अपने मन का होने के लिए पैदा होती है.
सरिता वो सब हुई. स्वतंत्र, आजाद, बुद्धिमान, अपने मन की स्त्री. और अब कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी की पीएचडी स्कॉलर भी.