वाचिक परंपरा से बताई जाती है यहां नर्मदा बचाओ आंदोलन की गाथा
एक वेबसाइट oralhistorynarmada.in की मदद से नर्मदा बचाओ आंदोलन की कहानी बयान करने की एक बेहतरीन कोशिश हो रही है. इस वेबसाइट पर साठ के दशक से शुरू आंदोलन का आंखों देखा हाल मौजूद है. पहले यह वेबसाइट अंग्रेजी भाषा में आई और अब हिन्दी में भी मौजूद है.
गुजरात की केवडिया कॉलोनी के पास स्थित नवाग्राम गांव में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1961 में नवागाम बांध का शिलान्यास किया था. इसे बाद में सरदार सरोवर के नाम से जाना जाने लगा. मूलजी भाई इस शिलान्यास के गवाह हैं. उन्हें सरकार के तब किये गए वादे अब भी याद हैं. उन्हें याद है कि वे अपने पिता के साथ मुआवजे की रकम लेने गए थे. तब भी इस योजना को लेकर विरोध हो रहा था. इस अनुभव को 60 साल होने को है और आज भी लोग सरदार सरोवर योजना का विरोध कर रहे हैं. इनके विस्थापन और उससे जुड़ी त्रासदी की कहानी लगभग विलुप्त हो रही है पर आज इनकी यह कालोनी इसलिए विख्यात है क्योंकि यहां दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा खड़ी हो गयी है जिसे स्टैचू ऑफ यूनिटी का नाम दिया गया है.
इसी तरह उषावेन तड़वी दशकों गुजर जाने के बाद भी खुद को विस्थापित महसूस करती हैं जबकि गुजरात सरकार के इस प्रयास को देश के सबसे उत्तम पुनर्वास की संज्ञा दी जाती है. उनके बातचीत सुनकर विस्थापन के दुख को महसूस किया जा सकता है. उषाबेन और उनका परिवार का गांव डूब में आ जाने के बाद धरमपुरी पुनर्वास क्षेत्र में बसाया गया था. यह स्थान दभोई, वड़ोदरा के पास है. अपने विडियो साक्षात्कार में वे बताती हैं कि उनके गांव में तब जीवन कैसा था. वे लोग कच्चे (मिट्टी के) घर में रहते थे जिसको बनाने-संवारने में कोई लागत नहीं आती थी. अब पक्के घर की हर चीज पर अच्छा-खासा पैसा लगता है. अब जलावन की लकड़ी लाने जाती हैं तो कैसे लोग उन्हें भगा देते हैं पर उनके खुद के गांव में लोग जंगलों में जाकर जरूरत भर लकड़ी लाते थे. बिना रोक-टोक. कैसे उन दिनों बीमार बच्चे आस-पास पाए जाने वाले जड़ी-बूटियों से ठीक हो जाते थे और अब हजारों रुपये खर्च हो जाने के बाद भी ठीक नहीं होते.
ऐसी दर्जनों कहानियां ओरल हिस्ट्री नर्मदा नाम की वेबसाईट पर दर्ज है जहां नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़े तमाम लोग अपनी भाषा में अपने अनुभव को साझा कर रहे हैं. अंग्रेजी और हिन्दी दोनों भाषाओं में उपलब्ध इस वेबसाइट पर मौजूद सभी विडियो में सबटाइटल दिया गया है ताकि श्रोताओं को उनकी बात समझ में आ सके. हालांकि सारे सबटाइटल अभी अंग्रेजी में हैं.
इन लोगों के अनुभव के साथ इस वेबसाइट पर डूब क्षेत्र में पाए जाने वाले पेड़-पौधों और नर्मदा नदी में पाए जाने वाली मछलियों की जानकारी भी उपलब्ध है.
इन सबको इस प्लेटफ़ॉर्म पर लाने का श्रेय जाता है नंदिनी ओझा को जो खुद नर्मदा बचाओ आंदोलन से काफी समय तक जुड़ी रही हैं. आंदोलन से अलग होने के बाद उन्होंने ऐसे लोगों की कहानियां दर्ज करना शुरू किया.
वाचिक परंपरा से लोगों को लाखों लोगों की आपबीती को महसूस कराने की कोशिश
वैश्वीकरण के बाद से भारतीय समाज की तस्वीर तेजी से बदली है. इसमें रोज आती नई तकनीकी ने भी अपनी भूमिका बखूबी निभाई है. इस बदलते तस्वीर में जो दृश्य उभरता है उसमें नई तकनीकी से लैस उपभोक्ता हैं, संख्या में बड़े-बड़े रिकार्ड हैं और नए जमाने की मुश्किलें नजर आती हैं जिनमें बदलता परिवेश या पर्यावरण प्रमुख है.
सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा को ही लें. देश के लिए यह दुनिया की सबसे बड़ी प्रतिमा बनाने का रिकार्ड है. लेकिन यह कहीं नहीं दर्ज है कि यह भूमि लोगों से नर्मदा से जुड़े प्रोजेक्ट के लिए अधिग्रहित की गयी थी. इसके इस्तेमाल न होने पर इस भूमि को लोगों को लौटाने के बजाए इसको पर्यटन के लिए विकसित किया जाने लगा. यहां सबसे ऊंची प्रतिमा बनाई गयी, नंदिनी ओझा कहती हैं. उधर स्थानीय लोगों का न्याय को लेकर संघर्ष इस हो-हल्ला में कहीं दब सा गया.
यह बस एक उदाहरण है. संघर्ष के ऐसे कई किस्से और अनुभव हैं जो समय के साथ धूमिल पड़ते जा रहे हैं. दूसरी तरफ सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड की वेबसाईट हो या नर्मदा कंट्रोल अथॉरिटी की वेबसाईट, इन पर बांध का गुणगान भरा पड़ा है. इसी को ध्यान में रखकर oralhistorynarmada.in नाम के इस वेबसाइट की अवधारणा बनी, ओझा बताती हैं.
यह पूछने पर कि ओरल हिस्ट्री ही क्यों, ओझा का कहना है कि अगर वही लोग जो इस संघर्ष का हिस्सा रहे हैं, अपनी बात कहें तो श्रोताओं के पास उस संवेदना को महसूस करने का मौका भी रहेगा. अंग्रेजी में कहें तो इन विडियो को सुनने वाले बीट्वीन दी लाइन भी पढ़ सकेंगे.
इस वेबसाइट के लिए करीब 80 लोगों से बातचीत की गयी और उसकी रेकॉर्डिंग तैयार की गयी जो धीरे-धीरे अपलोड की जा रही हैं. ये लोग खास पढ़े-लिखे नहीं हैं लेकिन नर्मदा बचाओ आंदोलन में इनकी महती भूमिका रही है. वाचिक परंपरा के माध्यम से इनकी बात आसानी से सामने लाई जा सकती है, ओझा कहती हैं.
नर्मदा बचाओ आंदोलन और विकास का वैकल्पिक मॉडल
इस वेबसाइट पर नर्मदा बचाओ आंदोलन के विभिन्न हिस्से को अलग-अलग लोगों के माध्यम से समझाने की कोशिश की गयी है. जैसे आंदोलन के शुरुआती इतिहास के लिए 11 लोगों से बात की गयी वहीं डूब और विस्थापन को समझने के लिए करीब 30 लोगों से बात की गयी है.
इन लोगों के माध्यम से आंदोलन को समझना एक खास अनुभव इसलिए भी है कि वैश्वीकरण के बाद से वैकल्पिक विकास की लगभग सारी बातें सड़कों से उठकर एसी कमरे में होने लगी हैं. हालिया किसान आंदोलन जैसे किंचित उदाहरण को छोड़ दें तो प्राकृतिक संसाधनों और विकास के मॉडल को लेकर सबसे हाल तक और काफी लंबे समय तक चले आंदोलन के रूप में ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ की ही चर्चा होती है.
ओझा कहती हैं, “पूरे विश्व में विकास के मॉडल को लेकर होने वाले आंदोलनों में मैं नर्मदा बचाओ आंदोलन को सबसे महत्वपूर्ण आंदोलन मानती हूं. इसमें न केवल विस्थापन और पुनर्वास के मुद्दे उठे बल्कि ऐसा विकास चाहिए कि नहीं, यह भी मुद्दा उठा. इसके पहले भी बहुत सफल आंदोलन हुए हैं जैसे साइलन्ट वैली इत्यादि. पर ‘किसकी कीमत पर किसका विकास’ का सवाल पूछने में नर्मदा आंदोलन की बड़ी भूमिका रही है.”
आगे कहती हैं, “यह वेबसाइट पश्चिमी भारत की नर्मदा नदी पर बनाए जा रहे विशालकाय बांध, सरदार सरोवर परियोजना (एसएसपी) के खिलाफ सामूहिक प्रतिरोध के जन इतिहास को लोगों तक पहुंचाने की एक कोशिश है. एसएसपी के कारण, आदिवासी और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर अन्य समुदायों के लगभग 2,50,000 लोग विस्थापित हो चुके हैं. लगभग इतने ही लोग और प्रभावित हैं.”
इनकी तकलीफ और इनका संघर्ष जाया न जाए इसलिए इसके बारे में लोगों को बताना जरूरी है. आज के युवाओं को इस आंदोलन से परिचित होना जरूरी है, ओझा कहती हैं.
नर्मदा बचाओ आंदोलन का जिक्र आने पर कुछ बड़े नाम जेहन में आते हैं पर इस वेबसाइट पर सभी आमजन हैं. “कुछ लोग महशूर है पर जो इस आंदोलन के रीढ़ थे उनको भी तो लोग जानें. अगर इसको ध्यान में रखकर कोशिश न की जाए तो ये लोग इतिहास के पन्ने पर छूट जाएंगे,” ओझा कहती हैं.
इस वेबसाइट का ख्याल कब आया यह सवाल पूछने पर ओझा कहती हैं कि जब एक्टिविजम छोड़ी तो उसके बाद कुछ करने की बेचैनी थी. आस-पास देखा तो महसूस हुआ कि इस आंदोलन से जुड़े लोग बुजुर्ग हो रहे हैं. उनकी याद खत्म हो रही थी तो लगा कि इसे बचाना एक महत्वपूर्ण काम होगा.
जब साथियों से बात की तो उन्होंने उत्साह बढ़ाया और चन्दा वगैरह देकर रिकॉर्डर की भी व्यवस्था की. 2002 में टेप रीकॉर्डर की मदद से पहला रिकॉर्डिंग किया. तब आधुनिक तकनीकी आमलोगों के लिए उपलब्ध नहीं थी. डिजिटल माध्यम से 2006-07 में पहली रिकॉर्डिंग की गयी, ओझा बताती हैं.
इस आंदोलन के बारे में लोगों को बताना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इस संघर्ष का हासिल भी बहुत है. आमलोगों के इस संघर्ष की वजह से बांध बनने में देरी हुई. पुनर्वास भी कुछ बेहतर हुआ. विश्वबैंक भी पीछे हटा, ओझा कहती हैं.
(यह लेख मूलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़े लोगों की आवाज रिकॉर्ड करतीं नंदिनी ओझा. तस्वीर साभार - नंदिनी ओझा