मिजोरम के ब्लू माउंटेन में पेड़ों की काई में मिले डायटम के नमूने
वैज्ञानिकों ने पहली बार पेड़ों पर मिलनी वाली काई में पाए जाने वाले डायटम का एक डेटासेट तैयार किया है. यह डेटासेट मिजोरम राज्य में भारत-बर्मा जैव विविधता हॉटस्पॉट क्षेत्र में आने वाली नीली पहाड़ियों पर मौजूद पेड़ों से तैयार किया गया है.
डायटम पर रिसर्च और खोजबीन करने वाले कार्तिक बालासुब्रमण्यम को जब मिजोरम के ब्लू माउंटेन पर होने वाले खोजी अभियान के लिए बुलाया गया तो उन्हें बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि इससे उन्हें भारत-बर्मा जैव विविधता हॉटस्पॉट में मौजूद डायटम का पहला डेटासेट तैयार करने में मदद मिलेगी. डायटम एक प्रकार की अति सूक्ष्म काई होते हैं जो एक तरह के “ग्लास हाउस” में रहते हैं. इन “ग्लास हाउस” को ये खुद ही सिलिका से बनाते हैं.
इस अभियान पर कार्तिक, वैज्ञानिक आर. गणेशन और एन. ए. अरविंद के साथ गए थे. ये तीनों लोग पहाड़ों के निचले सिरे से शुरू करके ऊंचाई तक गए और इन्होने पेड़ों के साथ-साथ मिट्टी के घोंघों की विविधता की मैपिंग की. कार्तिक ऐसे वैज्ञानिक हैं जो डायटम की विविधता और जैव विविधता हॉटस्पॉट में उसके वितरण की पढ़ाई करते हैं. यही वजह थी कि वह उम्मीद लगाए बैठे थे कि ब्लू माउंटेन की जल धाराओं में उन्हें डायटम मिलेंगे. हालांकि, यह जनवरी-फरवरी (2019) सर्दियों का मौसम था और इस वक़्त ब्लू माउंटेन की जल धाराएं सूख गई थीं.
आगरकर रिसर्च इंस्टिट्यूट की D3 लैब के लिए काम करने वाले कार्तिक कहते हैं, “सौभाग्य से कहें या दुर्भाग्य से कहें, ये धाराएं सूख गई थीं और वहां पानी नहीं था. अचानक मुझे एहसास हुआ कि अब तो मेरे पास कोई काम ही नहीं बचा. ऐसे में मैंने तय किया कि मैं अपने साथ वैज्ञानिकों के लिए अगले तीन दिन तक उनके फील्ड असिस्टैंट के रूप में काम करूंगा.” आपको बता दें यही इंस्टीट्यूट दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा डायटम संग्रहकर्ता है.
इस टीम ने सोचा कि पेड़ों के ऊपर और उनके आसपास लटक रही काई को इकट्ठा किया जाए और उनके बारे में जानकारी जुटाई जाए. अभी तक सिर्फ़ अंटार्कटिका में जमीन पर पाई जाने वाली काई के रिकॉर्ड मौजूद हैं. कार्तिक ने बताया, “जब हमने काई के सैंपल के परीक्षण किए तो नतीजे देखकर हम हैरान रह गए. हमारी रिसर्च में सामने आया कि जो काई हमें जल धाराओं में मिलती है, यह उससे बिल्कुल अलग है.”
कार्तिक आगे बताते हैं, “इसमें से कुछ ऐसे हैं जो युनोटिया (Eunotia) और लुटिकोला (Luticola) प्रजातियों से संबंधित हैं जो जलीय क्षेत्र में पाए जाते हैं लेकिन वे इतनी संख्या में नहीं होते हैं.”
डायटम को नंगी आंखों से नहीं देखा जा सकता है और ये एकल कोशिका वाली पारदर्शी संरचना होते हैं. इनका निर्माण सिलिका से बनी जटिल कोशिकाओं से होता है. इनके डिजाइन और अलग-अलग समरूपता की वजह से खोजकर्ताओं को डायटम की अलग-अलग प्रजातियों और प्रजातियों के समूहों को पहचानने में मदद मिलती है. डायटम, समुद्री तंत्र की खाद्य श्रंखला और पृथ्वी के कार्बन चक्रण ( कार्बन साइकल) के लिए बेहद अहम हैं. ये डायटम ही वातावरण की कार्बन डाई ऑक्साइड को समुद्र के आंतरिक वातावरण से दूर रखते हैं और कणों को गुरुत्वाकर्षण की मदद से डुबा देते हैं. ये बायोलॉजिकल कार्बन पंप की तरह भी काम करते हैं. वार्षिक स्तर पर देखें तो समुद्री डायटम हर साल लगभग 10 से 20 बिलियन टन अकार्बिनक कार्बन को खत्म करते हैं. एक रिसर्च पेपर के मुताबिक, डायटम कुल समुद्री अकार्बिन कार्बन के लगभग 40% और धरती पर पैदा होने वाले अकार्बनिक कार्बन के लगभग 20% हिस्से का निपटारा कर देते हैं.
दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर भारत में ताजे पानी में पाए जाने वाले डायटम वनस्पतियों के वर्गीकरण और उनकी व्यवस्था पर अभूतपूर्व काम करने के लिए कार्तिक को हाल ही में थिंक-टैंक ATREE की ओर से टी. एन. खोशू मेमोरियल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. कार्तिक कहते हैं, “आपकी हर चौथी सांस के लिए मिलने वाला ऑक्सीजन डायटम से आता है.” उन्होंने भारत में मिलने वाले डायटम की 106 नई प्रजातियों या कॉम्बिनेशन के बारे में बताते हुए प्रजातियों के दो नए समूह स्थापित किए हैं. पुरस्कार के साथ यह भी बताया गया है कि डायटम व्यवस्था में कार्तिक के योगदान की वजह से ताजे पाने के डायटम की प्रजाति के समूह को उनके नाम से ही यानी Karthickia नाम से जाना जाएगा.
कार्तिक ने ब्लू माउंटेन से काई के 22 सैंपल इकट्ठा किए थे. लाइट माइक्रोस्कोपी की मदद से डायटम के 53 वर्ग समूहों की खोज की गई जो 21 अलग-अलग प्रजाति समूहों के थे. पेड़ों पर पाई जाने वाली काई के डायटम में सबसे ज्यादा Eunotia और Luticola प्रजाति समूह के डायटम मौजूद थे. इसमें सबसे ज्यादा पाई जाने वाली प्रजाति Orthoseira roeseana और Luticola Acidoclinata के डायटम भी भरपूर मात्रा में थे. इन 53 वर्ग समूहों में से 70% डायटम ऐसे हैं जो पानी में या पेड़ से लटकने वाले प्राकृतिक आवासों में पाए जाते हैं. इस स्टडी के सह-लेखक और पीएचडी छात्र सी. राधाकृष्णन कहते हैं कि ज्यादातर जिन प्रजातियों की पहचान नहीं हो पाई है वे नई प्रजातियां हैं.
इसी स्टडी को लिखने वाले एक और शोधकर्ता और पीएचडी छात्र एम. योगेश्वरन कहते हैं, “काई के कुल 22 सैंपल में हमें 6,771 काइयां मिलीं लेकिन हमें अपनी रिसर्च से इतना समझ आ गया है कि ब्लू माउंटेन पर ही मौजूद प्राकृतिक आवासों की सभी प्रजातियों के बारे में जानकारी नहीं जुटा पाए हैं. यहां सच में कुछ ऐसे डायटम हैं जो पेड़ से लटकते रहते हैं और कुछ ऐसे हैं जो दुर्घटनावश लटक रहे हैं. हमारे सैंपल में कुछ ऐसे डायटम हैं जो उस ऊंचाई पर पाए जाते है. वहीं, कुछ ऐसे हैं जो कम ऊंचाई और अन्य स्तर की ऊंचाइयों पर ही पाए जाते हैं.”
कार्तिक कहते हैं, “हमने काइयों की प्रजातियों का ही अध्ययन नहीं किया बल्कि हमने देखा कि काइयों के प्राकृतिक आवासों में कुछ खास डायटम ऐसे थे जो काइयों की प्रजातियों से संबंधित थे.”
कार्तिक आगे कहते हैं, “यहां जो हमें परेशान कर रहा है वो यह है कि आखिर ये काइयां पेड़ पर कैसे पहुंचीं? क्या ये हवा से वहां तक पहुंचीं? पेड़ पर मिलने वाली और नदी में मिलने वाली काई में जल विज्ञान का कोई संबंध नहीं है. फिर इन डायटम का स्रोत क्या है?” कार्तिक का मानना है कि आगे आने वाली रिसर्च में पेड़ से लटकने वाले डायटम के बारे में ज़्यादा पता चल सकता है. इससे पहले भी कार्तिक की लैब ने सिक्किम में मौजूद पूर्वी हिमायल पर मिले पेड़ों से लटकने वाले डायटम की प्रजातियों (Platessa arborea sp.nov.) का डेटा रिकॉर्ड किया है.
भारत में ऐसी कई लैब हैं जो डायटम पर स्टडी करती हैं. कार्तिक कहते हैं, “माइक्रोबायोलॉजी की हमारी समझ ऐप्लिकेशन पर इतनी केंद्रित है कि हम पारिस्थितिकी से जुड़े सवालों का जवाब ढूंढने के लिए कभी भी इन जीवों को मॉडल जीव के तौर पर इस्तेमाल नहीं करते हैं. इसके बजाय, सूक्ष्म जीवों पर काम करने वाले वैज्ञानिक हमेशा पारंपरिक रूप से इन सूक्ष्म जीवों का फायदा उठाने की कोशिश करते हैं, न कि उनकी जटिलता को समझने की.”
कार्तिक की लैब में डायटम को पानी की गुणवत्ता देखने के लिए बायो-सूचकांक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन का अनुमान लगाने के लिए इनका इस्तेमाल बायोलॉजिकल प्रॉक्सी के रूप में भी किया जाता है. इस लैब के वेबपेज से जानकारी मिलती है कि डायटम लिपिड के उत्पादन ने लैब का ध्यान बायोफ्यूल उत्पादन की ओर भी खींचा.
उदाहरण के लिए, लद्दाख-काराकोरम क्षेत्र हमें एक तेजी से फैलने वाले डायटम की प्रजाति मिली जिससे पिछली चार सदियों की जलवायु परिवर्तनशीलता के बारे में अध्ययन करने में मदद मिली. कार्तिक कहते हैं, “लोगों को लगा कि यह विस्तार नया है लेकिन हमें पता चला कि यह डायटम (Didymosphenia sp.) हिमालय पर पिछले 5,000 सालों से मौजूद है. दरअसल, यह तेजी से फैलने वाला नहीं है. यह अपने मूल क्षेत्र में है लेकिन प्रजातियां अलग-अलग हो सकती हैं.”
कार्तिक आगे बताते हैं, “डायटम समुदाय में वातावरण की स्थिति के हिसाब से बदलाव होता है. उदाहरण के लिए- पानी का तापमान बढ़ने से, ठंडे पानी वाले डायटम की जगह ऐसी प्रजातियों वाले डायटम आ जाते हैं तो गर्म पानी में रहते हैं. हमने “झील के तलछटों में यह अंतर बखूबी देखा. ये तलछट हजारों साल में जमा होते हैं और इनमें उस वातावरण की स्थिति (ठंडा/गर्म, गीला/सूखा, अम्लीय/क्षारीय) के हिसाब से डायटम की कोशिका दीवारें (तकनीकी तौर पर इन्हें Frustules कहा जाता है) पाई जाती हैं जैसा वातावरण वहां लंबे समय से रहा हो.
कार्तिक के साथ ही काम करने वाले माइक्रो बायोलॉजिस्ट पुण्यश्लोक भादुरी इस स्टडी का हिस्सा नहीं हैं लेकिन वह कहते हैं कि मिजोरम में पेड़ों पर काई मिलना यह दिखाता है कि यह क्षेत्र जैव विविधता के मामले में कितना समृद्ध है. हालांकि, ये तेजी से खत्म हो रहे हैं और इन्हें संरक्षित करने की जरूरत है. वह आगे कहते हैं, “हम इन प्राकृतिक आवासों पर मिलने वाले डायटम के बारे में ज्यादा नहीं जानते हैं. ऐसा ही हाल सुंदरबन डेल्टा का भी है. पिछले कुछ सालों में ही हम सुंदरबन में डायटम की नई प्रजातियों को खोजने और उन्हें परिभाषित कर पाने में कामयाब हुए हैं.”
भादुरी कहती हैं, “हमें वर्गीकरण करने वालों की एक नई पीढ़ी को प्रशिक्षित करने की जरूरत है. साथ ही, उन्हें इतना सक्षम बनाने की जरूरत है ताकि वे नई प्रजातियों के बारे में जानकारी जुटा सकें और उनके बारे में विस्तार से बता सकें. इससे जैव विविधता, जलवायु, इंसान,पशु और पर्यावरण की सेहत के बीच की दूरियों को भर पाएंगे. इसके लिए हमें और फंडिंग की जरूरत होगी. COP15 से जुड़े एक बयान में यूनाइटेड किंडगम के ‘क्यू रॉयल बॉटनिकल गार्डन्स’ (Kew Royal Botanic Gardens) ने कहा है कि आने वाले समय में होने वाली यूएन बायोडायवर्सिटी कॉन्फ्रेंस (COP) से प्राकृतिक संसार को बनाने वाली जैव विविधता या पशुओं, पौधों, कवक या सूक्ष्म जीवों जैसे कि बैक्टीरिया पर ज्यादा ध्यान जाएगा. हमारे बचे रहने के लिए यह विविधता बहुत जरूरी है.”
(यह लेख मूलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: ब्लू माउंटेन के परिदृश्य को दिखाती तस्वीर. तस्वीर - कार्तिक बालासुब्रमण्यन