लखनऊ में सदा के लिए खत्म होता भूजल, धंस रही है जमीन
मध्य गंगा के जलोढ़ मैदानों के अध्ययन से पता चलता है कि लखनऊ शहर के एक्वेफर अब सदा के लिए सूखने लगे हैं. एक्वेफर भूजल भंडार होते हैं जोकि लखनऊ में स्थायी रूप से और तेजी से गायब हो सकते हैं.
गंगा की सहायक नदी गोमती के किनारे बसा शहर लखनऊ में भूजल की भारी कमी आ रही है. एक हालिया अध्ययन से पता चलता है कि लखनऊ में भूजल निरंतर नीचे जा रहा है. अनुमान लगाया जा रहा है कि अगर समय रहते कदम न उठाया गया तो यह समस्या स्थायी भी हो सकती है.
जैसे-जैसे शहर की आबादी बढ़ती जा रही है (2001 से 2020 तक 62%), भूमि का उपयोग बदल रहा है. बढ़ती आबादी से एक तो भूजल का बेतहाशा इस्तेमाल बढ़ रहा है और दूसरे इस आबादी को संभालने के लिए कंक्रीट के जंगल भी बढ़ रहे हैं. इस वजह से लखनऊ के नीचे मौजूद एक्वीफर यानी भूजल भंडार सूख रहे हैं. बढ़ते कंक्रीट के जंगल की वजह से हर साल होने वाली बारिश भी इन एक्वेफर को रिचार्ज नहीं कर पा रही.
एक्वेफर का काम सिर्फ जल संग्रहण ही नहीं, बल्कि भूमि को मजबूती प्रदान करना भी है. जब भूजल का दोहन एक्वीफर की रिचार्ज करने की क्षमता से कहीं अधिक होती है, तो ऊपर की भूमि अचानक या धीरे-धीरे समय के साथ धंसती जातीहै. देश के अधिकांश शहरों की हालत कमोबेश ऐसी ही है. भूमि के नीचे जाने की घटना को भूमि अवतलन या लैंड सब्सिडेंस कहते हैं.
माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर पर ग्राउंडवाटर रिसोर्सेज ऑफ इंडिया नामक अकाउंट चलाने वाले हाइड्रोजियोलॉजिस्ट विवेक ग्रेवाल कहते हैं, ”लगभग हर भारतीय शहर जल संकट और जमीन के धंसने के खतरे का सामना कर रहा है. यह साफ है कि कृषि उपयोग के लिए देश भर में भूजल का दोहन होता है. लेकिन वैज्ञानिक यह महसूस कर रहे हैं कि बड़े पैमाने पर शहरीकरण से भी भूमि अवतलन बढ़ रहा है, खासकर उत्तरी भारत में. इसके अलावा, कमजोर भूमि बुनियादी ढांचे जैसे मकान, सड़क, पुल आदि की नींव के लिए खतरा है, जिससे गंभीर संकट पैदा हो सकता है.
जल और जमीन का गहरा संबंध
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से जुड़े शोधकर्ता अश्विनी राजू कहते हैं, “भारत में भूमि अवतलन को लेकर 2006 में कोलकाता शहर में शुरुआती अध्ययन हुआ था. 2009 से 2015 तक उत्तर प्रदेश में एक के बाद एक कई अध्ययन हुए जो कि गंगा के मैदानी इलाकों की स्थिति बयां करते हैं.”
“इस अवधि के दौरान, लखनऊ में शहरीकरण अपने चरम पर था,” लखनऊ में भूमि अवतलन पर हुए हालिया शोध के सह-लेखक राजू कहते हैं. राजू लखनऊ में ही रहते हैं. उन्होंने कहा कि शहर का कुछ हिस्सा हर साल बाढ़ में डूबता है. कभी कभी तो स्थिति ऐसी हो जाती है कि शहर का उत्तरी भाग भी डूब जाता है. महानगर क्षेत्र का यह हिस्सा लखनऊ नगर निगम कार्यालय के पास है.
राजू के अनुसार कई अन्य क्षेत्रों में उल्लेखनीय परिवर्तन देखा गया है. इस वजह से उन्हें और अन्य वैज्ञानिकों को यहां की भूमि के धंसने की दर निर्धारित करने के लिए रिमोट सेंसिंग तकनीकों के प्रयोग के लिए प्रेरित किया. इस अध्ययन में पाया गया कि लखनऊ हर साल चार सेंटीमीटर की दर से धंस रहा है.
राजू के अनुसार, शहर में सरकार द्वारा अनुमति प्राप्त ट्यूबवेल की संख्या 300 (2005) से बढ़कर 672 (2015) हो गई है. हालांकि, इस मामले में आंकड़ों का अभाव है. अनुमान बताते हैं कि अकेले लखनऊ में संभावित भूजल निकासी प्रति दिन 75 करोड़ लीटर के करीब हो सकती है.
चूंकि भूजल एक्वेफ़र या जलभृतों से निकाला जाता है. उनके रिचार्ज होने या दोबारा भरने की क्षमता ऊपर मौजूद मिट्टी के प्रकार पर निर्भर करती है. राजू ने अपने शोध में जिन डूबने वाले स्थानों को इंगित किया उनमें से कई मोटी मिट्टी की परतें हैं. राजू कहते हैं, “एक बार जब मिट्टी अपनी नमी खो देती है, तो वह पानी के भंडारण की अपनी क्षमता को फिर से हासिल नहीं कर सकती है, जिसके परिणामस्वरूप यह विकृति पैदा हो रही है.”
वह कहते हैं कि एक्ववेफर के स्थाई रूप से तबाह होने की वजह से उस क्षेत्र की भूमि ढहने लगती है.
ऐसा नहीं है कि सिर्फ उत्तर भारत में ही भूजल स्तर नीचे जा रहा हो या एक्वेफर तबाह हो रहे हों. दक्षिण भारत में भी ऐसा हो रहा है लेकिन बावजूद इसके वहां जमीन नहीं खिसक रही. इसकी वजह समझाते हुए विवेक ग्रेवाल कहते हैं कि उत्तर भारत के अधिकांश भाग में जलोढ़ एक्वीफर हैं जबकि दक्षिण में यह कठोर चट्टानों से बने हैं. इसका मतलब यह है कि दक्षिण भारत में भूजल की कमी और एक्वीफर के विनाश के बावजूद, देश के उस हिस्से में होने वाली भूमि के धंसने की आशंका कम है.
भारत में भूजल दोहन की रफ्तार अनियंत्रित
भारतीय शहरों में जमीन का धंसना कोई अपवाद नहीं है. राजू कहते हैं कि दुनिया भर के अधिकांश प्रमुख शहर जैसे बीजिंग, सैन फ्रांसिस्को, तेहरान और बाली भी तेजी से हर साल 20 से 30 सेमी तक नीचे जा रहे हैं.
विवेक ग्रेवाल, जो अध्ययन से जुड़े नहीं हैं, यह भी बताते हैं कि दुनिया भर में ज्ञात भूमि अवतलन के सबसे खराब मामलों में से एक उदाहरण अमेरिकी शहर कैलिफोर्निया का है. यहां कृषि की जरूरतों को पूरा करने के लिए अत्यधिक भूजल दोहन किया गया था. ग्रेवाल कहते हैं, देश के कई हिस्सों में पानी की सप्लाई नहीं है न ही वहां जमीन से पानी निकालने की कोई केंद्रीकृत व्यवस्था है.
चूंकि अधिकांश भारतीय परिवार उचित जल आपूर्ति प्रणाली से जुड़े नहीं हैं, इसलिए लोगों को अक्सर इसकी व्यवस्था खुद करनी पड़ती है. इसके लिए उन्हें निजी तौर पर बोरवेल खोदने के लिए मजबूर होना पड़ता है. इससे अनियंत्रित जल निकासी बढ़ जाती है. ऐसे मामलों में, जहां भूजल के दोहन का कोई विनियमन या रिकॉर्ड नहीं है, एक्वेफर का रखरखाव और समस्या का समाधान इतना आसान नहीं है.
मिट्टी के प्रकार और एक्वेफर की गहराई से यह तय होता है कि भूजल कबतक वापस भर सकता है. इस प्रक्रिया में महीने से लेकर कई दशक का समय लग सकता है. ग्रेवाल कहते हैं कि शहरों में खुले मैदानों का अभाव है इसलिए बारिश के दौरान एकत्र किए गए पानी का 10% से भी कम पानी मिट्टी में जाता है.
कंक्रीट भूमिगत पानी के रिसने को रोकता है, इस प्रकार भूजल रिचार्ज होने की प्रक्रिया बाधित हो जाती है. इसके अलावा, खुले नालों, खराब सीवेज सिस्टम, और उद्योगों द्वारा अपने आसपास के क्षेत्रों में अनियंत्रित प्रदूषकों को छोड़ने की वजह से शहरों की जल सुरक्षा खतरे में है. एक्वेफर को मॉनसून की बारिश की मदद से आसानी से फिर से जीवंत किया जा सकता है. पर गहरी खुदाई कर एक्वेफर से पानी निकालने की वजह से रिचार्ज की रफ्चार धीमी है.
राजू और ग्रेवाल दोनों ही अच्छी तरह से प्रबंधित शहरी जल और स्वच्छता प्रणालियों की आवश्यकता पर बल देते हैं. वे हमारे शहरों की भूजल निर्भरता को कम करने पर जोर देते हैं.
(यह लेख मुलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: गोमती किनारे बसा लखनऊ शहर. तस्वीर – Pr1delhi/विकिमीडिया कॉमन्स