गन्ने के कचरे से बायो-सीएनजी: स्वच्छ ईंधन में चीनी मिलों की बढ़ती भूमिका
बायो-सीएनजी, गन्ने के कचरे से परिवहन ईंधन का एक नवीन स्रोत है. भारत के गन्ना उत्पादक राज्यों की चीनी मिलों में तेजी से इसका उत्पादन हो रहा है. फिलहाल भारत के 13 राज्यों में बायो-सीएनजी के 44 प्लांट हैं। इनकी उत्पादन क्षमता 2,18,000 किलो प्रतिदिन है.
गन्ना उत्पादक राज्य महाराष्ट्र की चीनी मिलें स्वच्छ ईंधन के लिए एक नया प्रयोग कर रही हैं. ये मिलें परिवहन ईंधन के नए स्रोत बायो-सीएनजी के उत्पादन में गन्ने के बाय-प्रोडक्ट प्रेस-मड (चीनी की मैली) का इस्तेमाल कर रही हैं. प्रेस-मड वह ‘कंप्रेस्ड वेस्ट’ या कचरा है जो गन्ने की पेराई के बाद बचता है.
ऐसा करने के शुरुआती प्रयास साल 2012 में शुरू हुए थे. राज्य के कोल्हापुर जिले में बायो-सीएनजी प्रसंस्करण इकाई, वाराना चीनी मिल की ओर से भेजी जाने वाली प्रेस-मड का उपयोग कर बायो-सीएनजी का उत्पादन कर रही है.
वाराना में बायो-सीएनजी का उत्पादन करने वाली यूनिट स्पेक्ट्रम रिन्यूएबल प्राइवेट लिमिटेड के चेयरमैन मोहन राव ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, “लगभग एक दशक पहले आगरकर रिसर्च इंस्टीट्यूट, पुणे के शोधकर्ताओं की मदद से हमने पहली बार प्रयोगशालाओं में बायो-सीएनजी बनाने के लिए प्रेस-मड की क्षमता का विश्लेषण करने की कोशिश की. यह सफल भी रहा. प्रेस-मड की आपूर्ति के लिए हमने वाराना चीनी मिल के साथ मिलकर काम किया. बाद में हमने व्यावसायिक स्तर पर प्रेस-मड से बायो-सीएनजी का उत्पादन शुरू किया. शुरुआत में, हमने प्रतिदिन एक टन (1000 किलो) प्रेस-मड के साथ शुरुआत की. फिर हम प्रतिदिन 100 टन (100,000 किलो) प्रेस-मड तक पहुंचे.” यह यूनिट हर दिन चार हजार किलो बायो-सीएनजी का उत्पादन करती है. इसकी क्षमता हर दिन आठ हजार किलो बायो-सीएनजी उत्पादन की है.
आपसी सहयोग से बनाई जाने वाली इस बायो-सीएनजी को अब इंडियन ऑयल कंपनी खरीदती है. यह देश की प्रमुख ईंधन मार्केटिंग कंपनियों में से एक है. इसे वाराना के पास कंपनी के दो आउटलेट और हाईवे के करीब स्थित अमृतनगर में बेचा जाता है.
महाराष्ट्र के चीनी आयुक्त शेखर गायकवाड़ ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि वाराना में कारखाने के अलावा, फिलहाल अकेले महाराष्ट्र में दो और चीनी मिलें हैं – एक पुणे में और एक उस्मानाबाद में – जो गन्ने के बाय-प्रोडक्ट खासकर प्रेस-मड और फिल्टर केक से बायो-सीएनजी (बायोलॉजिकल कंप्रेस्ड नेचुरल गैस) बना रही हैं. पुणे में एक और बायो-सीएनजी प्लांट भी है. यह बायो-सीएनजी बनाने के लिए नगर निगम के कचरे का इस्तेमाल करता है.
गायकवाड़ ने कहा कि इन चीनी मिलों और अन्य बायो-सीएनजी प्लांट को सस्टेनेबल अल्टरनेटिव टुवर्ड्स अफोर्डेबल ट्रांसपोर्ट (SATAT) योजना के तहत केंद्र सरकार से वित्तीय मदद और अन्य प्रोत्साहन मिलते हैं. साल 2018 में शुरू की गई यह योजना उन बायो-सीएनजी संयंत्रों की स्थापना और विस्तार में मदद करती है जो जैव ईंधन का उत्पादन करने के लिए कचरे का इस्तेमाल करते हैं. इसके तहत, केंद्र सरकार की 2023-24 के आखिर तक भारत में कुल पांच हजार बायो-सीएनजी प्लांट लगाने की योजना है.
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, भारत में महाराष्ट्र बायो-सीएनजी का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है. इसके चार कारखानों में हर दिन 28,690 किलो की उत्पादन क्षमता है. गुजरात अपने 12 बायो-सीएनजी प्लांट और 49,028 किलो/दिन की क्षमता के साथ देश में सबसे आगे है. इसके बाद पंजाब (35,000 किलो/प्रति दिन) है.
बायो-सीएनजी को नवीन ईंधन माना जाता है. परिवहन ईंधन के रूप में इस्तेमाल किए जाने पर यह ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने में मददगार भी साबित हुआ है. बायोगैस को फिल्टर करने से प्राप्त बायो-सीएनजी को कंप्रेस्ड बायोगैस (सीबीजी) और बायो-मीथेन भी कहा जाता है. यह कार्बन डाइऑक्साइड और हाइड्रोजन सल्फाइड जैसी अशुद्धियों को दूर करने के बाद बायोगैस से प्राप्त होता है.
अध्ययनों से पता चला है कि बायो-सीएनजी दूसरे स्वच्छ परिवहन जैव ईंधन जैसे इथेनॉल और बायोडीजल की तुलना में पर्यावरण से जुड़े बेहतर लाभ प्रदान करता है. इसमें किसी भी वाहन ईंधन की तुलना में सबसे कम ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन होता है.
क्षमता और विस्तार
भारत में, लगभग 70 प्रतिशत गन्ने का उत्पादन तीन प्रमुख राज्यों – उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक में होता है. इस क्षेत्र में काम कर रहे विशेषज्ञों का सुझाव है कि ये राज्य बायो-सीएनजी उत्पादन बढ़ाने में मदद कर सकते हैं, जो अभी शुरुआती दौर में है.
राष्ट्रीय चीनी संस्थान, कानपुर के निदेशक नरेंद्र मोहन ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि भारत हर साल औसतन 30 मीट्रिक टन गन्ने का उत्पादन करता है. इसमें लगभग 3.5 प्रतिशत उत्पादित प्रेस-मड की मात्रा हो सकती है. उन्होंने कहा कि इस दर पर, भारत में हर साल लगभग एक करोड़ मीट्रिक टन प्रेस मड/फिल्टर केक का उत्पादन करने की क्षमता है, जिसे बायो-सीएनजी के उत्पादन के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है.
उन्होंने कहा कि कच्चे माल की आसान उपलब्धता के चलते प्रेस-मड से बायो-सीएनजी का उत्पादन उन राज्यों में सफल हो सकता है जहां चीनी मिलों की संख्या ठीक-ठाक है. जैसे कि महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में. इससे परिवहन और खरीद जैसी समस्याओं से बचा जा सकता है. उन्होंने कहा कि पिछले कुछ सालों में इन राज्यों की मिलों ने गन्ने के कचरे से बायो-सीएनजी का उत्पादन शुरू किया है. आने वाले दिनों में इसके और ज्यादा बढ़ने की संभावना है.
मोहन ने कहा, लेकिन साल भर कच्चे माल की उपलब्धता अभी भी चुनौती बनी हुई है. “यहां तक कि अगर इसका भंडारण किया जाता है, तो यह (गन्ने का कचरा) धीरे-धीरे सड़ने लगता है और इसमें कार्बनिक यौगिक खराब होने लगते हैं. यह लंबी अवधि के भंडारण के लिए एक चुनौती है. ऐसा करने से उत्पादन की लागत भी बढ़ेगी. इसके अलावा, गन्ना आधारित कच्चे माल की आपूर्ति में कमी होने की स्थिति में, आपको अपने बायो-सीएनजी प्लांट को चालू रखने के लिए अन्य फीडस्टॉक की जरूरत होगी.”
बायो-सीएनजी के लिए गन्ना मिलों से मिलने वाले फायदे
ओएमआई फाउंडेशन में लीड (ऊर्जा और गतिशीलता) के रूप में काम कर रहे बायोफ्यूल विशेषज्ञ रोहित पठानिया ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि प्रेस-मड, चीनी उत्पादन के दौरान चीनी मिलों में निकलने वाला मुख्य कचरा है. यह नगर पालिका के कचरे के मुकाबले बायो-सीएनजी उत्पादन के लिए सबसे अच्छे स्रोतों में एक है. उन्होंने कहा कि चूंकि इसमें 100 प्रतिशत जैविक सामग्री होती है, इसलिए नगर पालिका के कचरे की तरह इसे अलग-अलग करने की जरूरत नहीं होती है. लेकिन इस्तेमाल नहीं होने पर यह सड़ जाएगा और ग्रीन हाउस गैसों (जीएचजी) को रिलीज कर देगा.
पठानिया ने कहा, “बायो-सीएनजी/सीएनजी के लिए पहले से तैयार बाजार है. वितरण का नेटवर्क भी अच्छा है. इससे भारत में बायो-सीएनजी सेक्टर को आगे बढ़ाने में मदद मिल सकती है.” उन्होंने कहा कि पहले बाजार सरकारी समर्थन की कमी के चलते बहुत विकसित नहीं था. उन्होंने कहा, “हालांकि, एसएटीएटी के बाद, ऐसे प्लांट लगाने के लिए प्रोत्साहन मिलता है और सबसे बड़ा लाभ ओएमसी के रूप में पक्के खरीदार हैं, जिनके पास एक मजबूत वितरण नेटवर्क है.”
उन्होंने यह भी कहा कि कच्चे माल की साल भर आपूर्ति के मुद्दे को हल करने के लिए, कुछ स्टैंड अलोन बायो-सीएनजी संयंत्र या चीनी मिलें मिले-जुले फीडस्टॉक का उपयोग करने पर विचार कर सकती हैं. जैसे नगर पालिका या अन्य कचरे के साथ प्रेस-मड का इस्तेमाल करना. उन्होंने कहा, “प्रेस मड के साथ अलग-अलग जैविक कचरे को मिलाने और बायो-सीएनजी का उत्पादन करने के लिए कोई अनुकूलता या अन्य समस्याएं नहीं हैं. यह शहरी कचरे के प्रबंधन के साथ-साथ चीनी मिलों के कचरे की भी देखभाल करने में मदद कर सकता है. दोनों को बायो-सीएनजी में बदल कर स्वच्छ परिवहन व्यवस्था का रास्ता खुल सकता है.”
हाल के दिनों में, भारतीय शहरों में कचरे-से-बायो-सीएनजी प्लांट से ईंधन का उपयोग सरकारी स्वामित्व वाली बसों को चलाने के लिए किया गया है. पुणे नगर निगम (पीएमसी) की उपायुक्त आशा राउत ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि वे कुछ सिटी बसों को चलाने के लिए शहर में उत्पादित बायो-सीएनजी का उपयोग कर रहे हैं. इसी तरह इंदौर नगर निगम (आईएमसी) बसों को चलाने के लिए शहर स्थित बायो-सीएनजी संयंत्र में बनने वाली बायो-सीएनजी का इस्तेमाल कर रहा है.
थिंक-टैंक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ) में जैव ईंधन पर शोधकर्ता प्रोमित मुखर्जी ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि अगर पैमाने को विस्तारित करने की आवश्यकता है, तो बायो-सीएनजी के उत्पादन को आर्थिक रूप से और ज़्यादा बेहतर बनाने के लिए बाजार में मांग पैदा करने की आवश्यकता है. उन्होंने कहा, “भारत में सीएनजी वाहनों और सीएनजी स्टेशनों की पैठ, ज्यादातर दिल्ली एनसीआर, गुजरात और अन्य प्रमुख भारतीय शहरों जैसे कुछ इलाकों तक ही सीमित है. चूंकि एलएनजी का आयात आमतौर पर गुजरात में समुद्री मार्ग से होता है, इसलिए इसका वितरण नेटवर्क अधिक विकसित है. इसलिए, अगर बायो-सीएनजी संयंत्र पहले ऐसे क्षेत्रों में आते हैं, जो सबसे अच्छी वितरण सुविधाएं प्रदान करते हैं, तो यह टियर-2 और टियर-3 शहरों को चुनने के बजाय डेवलपर्स के लिए आर्थिक रूप से ज्यादा काम की योजना हो सकती है.”
उन्होंने कहा कि बायो-सीएनजी उत्पादन के लिए तकनीक पर और अधिक शोध और विकास की आवश्यकता है. ऐसा करने से उत्पादन बढ़ेगा और ओएमसी की मांग को पूरा किया जा सकता है. इस तरह यह सभी हितधारकों के लिए बायो-सीएनजी के उपयोग को व्यावसायिक रूप से अधिक उपयोगी बना सकता है.
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी-बॉम्बे), क्वींस यूनिवर्सिटी बेलफास्ट (यूके) और यूनिवर्सिटी ऑफ लिमरिक (आयरलैंड) के रिसर्चरों की ओर से हाल ही में किए गए एक अध्ययन में चीनी मिलों में बायो-सीएनजी का उत्पादन करने के लिए प्रेस-मड के बजाय खोई का उपयोग करने की क्षमता का विश्लेषण किया गया. इसमें पाया गया कि खोई से प्रतिदिन 1000 किलो बायो-सीएनजी के उत्पादन की लागत लगभग 87 रुपए प्रति किलो आएगी. अध्ययन में यह भी अनुमान लगाया गया है कि खोई और बिजली मुफ्त देने पर लागत 37 रुपये प्रति किलो तक आ सकती है. अध्ययन बताता है कि अगर पारंपरिक जीवाश्म ईंधन की तुलना में बायो-सीएनजी का उपयोग परिवहन ईंधन के रूप में किया जाता है, तो बायो-सीएनजी के प्रति किलो उपयोग पर 3.96 किलो तक कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को कम किया जा सकता है.
केंद्रीय नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्री ने दिसंबर 2022 में भारतीय संसद में अपने जवाब में बताया कि सरकार कचरे-से-ऊर्जा प्रोग्राम और एसएटीएटी योजना के तहत नए बायो-सीएनजी संयंत्रों की मदद कर रही है. इसे बेहतर वित्तपोषण के लिए प्राथमिकता प्राप्त कर्ज क्षेत्र में भी शामिल किया गया है. उन्होंने यह भी कहा कि बायो-सीएनजी संयंत्र स्थापित करने के लिए मशीनरी और अन्य पुर्जों के आयात पर भी सीमा शुल्क में रियायत की पेशकश की जाती है.
(यह लेख मुलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: गन्ना किसान महाराष्ट्र के सतारा में एक चीनी मिल के पास तुलाई और बिक्री के लिए इंतजार कर रहे हैं. तस्वीर - मनीष कुमार / मोंगाबे