वन समुदाय के अधिकार और तमिलनाडु में स्लेंडर लोरिस का संरक्षण, समझिए क्या है समस्या
हाल ही में तमिलनाडु के डिंडीगुल जिले में पंचनथंगी के पास स्लेंडर लोरिस के लिए एक अभयारण्य बनाने की अधिसूचना जारी की गई. इसके बाद से सवाल उठ रहे हैं कि नया संरक्षित क्षेत्र बनाए जाने का स्थानीय लोगों की आजीविका पर क्या असर पड़ेगा.
तमिलनाडु के डिंडीगुल जिले का पंचनथंगी इलाका सुदूर क्षेत्र में बसा हुआ एक छोटा सा गांव है. यह गांव हरी-भरी और छोटी-मोटी पहाड़ियों से घिरा हुआ है. यहां पहुंचना बेहद मुश्किल है. चार पीढ़ियों से कनगराज और उनके पड़ोसी यहां काफी शांत और आधुनिक युग के हस्तक्षेप से दूर अपना जीवन व्यतीत करते आ रहे हैं. चालीस साल के कनगराज कहते हैं, “हमारा परिवार यहां लगभग 200 सालों से रह रहा है.” वह याद करते हैं कि जब वह पांच साल के थे तब वह अपने दादा के साथ आस-पास की पहाड़ियों पर शहद निकालने जाया करते थे. वह बताते हैं, “हम वहां पेड़ के खोखले हिस्सों और कोटरों में मिलने वाले छत्तों से शहद निकालते थे. ऊंचाई पर मौजूद पहाड़ों के बीच में भी शहद मिल जाता था.” कनगराज कहते हैं कि बचपन में उनका सबसे पसंदीदा काम कंद खोदना और जंगल से फल बीनना था. अब शहद निकालने का काम तो काफी हद तक कम हो गया है लेकिन इस पीढ़ी के युवा और बच्चे अभी भी पहाड़ों पर जाते हैं. ये बच्चे वहां से टर्की बेरी, कंद और कई तरह की जड़ी-बूटियां लाते हैं. इन चीजों का खाने-पीने और व्यापार में इस्तेमाल किया जाता है.
इस तरह खाने-पीने की चीजें ढूंढने के अलावा पंचनथंगी गांव के ज्यादातर लोग छोटे स्तर की खेती और पशुपालन भी करते हैं. कनगराज के पास सब्जियों का एक छोटा सा खेत और लगभग 40 भेड़ें हैं. वह पास में मौजूद एक छोटी सी पहाड़ी की ओर इशारा करके दिखाते हैं कि वह और उनके साथी वहीं अपने जानवरों को चराने गए थे. बेमौसम बारिश और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के चलते इस गांव के लोगों के लिए खेती काफी मुश्किल हो गई है. इसका नतीजा यह है कि अब कमाई के लिए ज्यादातर लोग पशुपालन पर निर्भर हैं.
हाल ही में जारी की गई अधिसूचना के मुताबिक, कड़ावुर स्लेंडर लोरिस अभयारण्य लगभग 11,806 हेक्टेयर में फैला होगा. पंचनथंगी और आस-पास के गांवों के लोग इन आशंकाओं से डरे हुए हैं कि उनकी आजीविका और उनके जीवन का क्या होगा.
बीते समय में स्लेंडर लोरिस की जनसंख्या का ट्रेंड
यह छोटा सा गांव हाथ न आने वाले इस स्लेंडर लोरिस के लिए बड़ा उतार-चढ़ाव भरा रहा है. यहां के स्थानीय लोग जंगलों और पहाड़ों के चप्पे-चप्पे को बखूबी जानते हैं. उनके लिए स्लेंडर लोरिस को ढूंढकर पकड़ लेना कोई मुश्किल काम नहीं है. बीते समय में कुछ लोग न चाहते हुए भी स्लेंडर लोरिस की तस्करी के कामों में भी लिप्त रहे हैं.
यहां पर गैर-लाभकारी संस्था SEEDS ट्रस्ट ने वन विभाग और स्थानीय लोगों के साथ मिलकर स्लेंडर लोरिस के संरक्षण के लिए काम शुरू किया. SEEDS ट्रस्ट के संस्थापक मुत्तुस्वामी कहते हैं, “स्लेंडर लोरिस एक अहम परागणक और संकेतक प्रजाति का जीव है. हमें लगता है कि हमें इसे जंगल पर निर्भर लोगों की आजीविका के साथ-साथ संरक्षित रखना है.”
स्लेंडर लोरिस की हत्या, उनके शिकार, रासायनिक खेती, वनों की कटाई और सूखे के चलते बीते कुछ सालों में इनकी संख्या तेजी से कम हुई है. जिन इलाकों में हादसे ज्यादा होते थे वहां स्पीड ब्रेकर बनाए गए लेकिन स्लेंडर लोरिस के बारे में जागरूकता पैदा करना सबसे चुनौती वाला काम था.
मुत्तुस्वामी बताते हैं कि उन लोगों ने स्कूलों और कॉलेजों में एक व्यापक कार्यक्रम शुरू किया जिससे यह तय किया जा सके कि अगली पीढ़ी अपने वातावरण और स्लेंडर लोरिस के बारे में संवेदनशील बन सके. वह कहते हैं, “हमने पहली पीढ़ी के बच्चों की शिक्षा में मदद की. इसके बदले में वे हमारे लिए स्लेंडर लोरिस एंबेसडर बने. इन बच्चों ने अपने घरवालों और आसपास के अन्य लोगों में स्लेंडर लोरिस के बारे में जागरूकता फैलाई.”
सामुदायिक संरक्षण में महिलाओं का योगदान
बच्चों को अपने साथ जोड़ने के बाद अगला कदम गैर-टिंबर वन उत्पाद (NTFP) उत्पाद इकट्ठा करने के लिए महिलाओं को जोड़ना था. बगल के शहर सुक्कावल्ली में कुछ महिलाओं का समूह अपने जानवरों को लेकर पहाड़ों पर आता-जाता था. ये महिलाएं चूल्हे के लिए लकड़ियां और झाड़ू बनाने के लिए घास लाती थीं. वैसे तो महिलाएं यहां अभयारण्य बनाए जाने की खबर से अनजान थीं लेकिन उन्हें स्लेंडर लोरिस के बारे में पता था.
पचास साल की मुत्तुलक्ष्मी ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि स्लेंडर लोरिस (देवांगू) रात के समय पहाड़ से उतरकर नीचे उनके खेतों और पेड़ों के पास आते हैं. वह कहती हैं, “हम स्लेंडर लोरिस को इरावाडी (रात में खाने वाले जीव) कहते हैं क्योंकि ये रात में ही खाना खाते हैं.”
महिलाओं को लगता है कि ये स्लेंडर लोरिस उनके खेतों में मिलने वाले कीड़ों को खाने आते हैं. स्लेंडर लोरिस के संरक्षण के लिए पिछले आठ सालों से काम कर रहे अय्यपन बताते हैं, “यहां की मध्यम जलवायु इन जीवों के लिए काफी उपयुक्त है और यही वजह है कि वे यहां आसानी से फलते-फूलते हैं.” इस बात से सहमति जताते हुए मुत्तुलक्ष्मी कहती हैं, “एक ऐसा समय था जब हम स्लेंडर लोरिस को दुर्भाग्य का संकेत मानते थे लेकिन अब हम समझ गए हैं कैसे ये हमारे किसानों की मदद करते हैं और प्राकृतिक तरीके से हानिकारक कीड़ों को खत्म करते हैं. अब हम इन्हें अपना गर्व मानते हैं.” SEEDS ट्रस्ट के प्रयासों का नतीजा है कि अब सुक्कावल्ली गांव के हर घर की दीवार पर स्लेंडर लोरिस की पेंटिंग लगी है.
मुत्तुलक्ष्मी और उनके समूह ने इलाके में वन विकसित करने में एक अहम भूमिका निभाई है. इन लोगों ने कई सारे एनजीओ की मदद से 1 लाख से ज्यादा पौधे लगाए. इसका नतीजा यह हुआ कि इलाके में जीवों के लिए प्राकृतिक आवास विकसित हुए और बारिश भी अच्छी-खासी होने लगी. इससे गांव वालों को और स्लेंडर लोरिस दोनों को फायदा हो रहा है.
स्थानीय लोगों के लिए क्या हैं इस अधिसूचना के मायने
अय्यपन का कहना है कि खाली जगहों और सार्वजनिक जगहों पर पौधे लगाने के प्रयासों के अलावा स्थानीय किसानों ने वन आधारित खेती भी शुरू की है. रमेश कुमार और उनके 90 साल के पिता शंकर के साथ-साथ उनका पूरा परिवार पुश्तैनी खेत में ही मिला, जब हम उनके पास पहुंचे. अब इनके खेत में फलों के पेड़, चारे के लिए पौधे और व्यावसायिक मकसद से लगाए गए पेड़ मौजूद हैं. उनका खेत कई तरह के पेड़ों के मिश्रण से तैयार हुआ है. इस खेत से पूरे परिवार की कमाई भी होती है, घरवालों के खाने-पीने का इंतजाम होता है और स्लेंडर लोरिस के रहने के लिए प्राकृतिक आवास भी बन गया है. रमेश कहते हैं, “अब हम अपने खेतों में हरी खाद का इस्तेमाल करते हैं. जब हम अपनी गायों को चराने पहाड़ पर जाते हैं तो वहां से खाद इकट्ठा करके लाते हैं.” अब लोगों का सवाल यही है कि अगर इस इलाके में अभयारण्य बनने के बाद पहाड़ों पर जाना और वहां जानवर चराना प्रतिबंधित कर दिया जाएगा तो क्या होगा?
कनगराज अपनी चिंता जाहिर करते हुए कहते हैं, “हमारी जमीन तो बादलों और मौसम के सहारे है. हर साल बारिश बेमौसम होती जा रही है. अब हाल ये है कि यहां के किसानों को खाने-पीने और आजीविका चलाने के लिए अपने जानवरों पर निर्भर होना पड़ता है. जानवरों को जिंदा रखने के लिए पहाड़ पर मिलने वाला चारा जरूरी है. हमारे खाने-पीने और चारा-पानी से लेकर त्योहारों तक, हमारा सब कुछ इन्हीं जंगलों पर निर्भर है. अगर हमें इन जंगलों में जाने से रोका जाएगा तो हमारे पर अपने जानवरों को बेचकर और अपनी पैतृक संपत्ति छोड़कर कहीं और चले जाना होगा.”
इसी साल मद्रास हाई कोर्ट ने टाइगर रिजर्व, अभयारण्य और नेशनल पार्क (81,02 वर्ग किलोमीटर के संरक्षित क्षेत्र) में जानवर चराने पर प्रतिबंध लगा दिया था. अब यह देखना होगा यहां घोषित हुआ नया स्लेंडर लोरिस अभ्यारण्य लोगों की जिंदगी पर कैसे असर डालता है.
साल 2030 तक धरती के 30% हिस्से को संरक्षित रखने की कवायद में भारत भी खूब जोर लगा रहा है. इसी के चलते देशभर में संरक्षित क्षेत्र बढ़ाया जा रहा है और यही वजह है कि वन अधिकारों को लेकर संघर्ष की स्थितियां भी पैदा हो रही हैं.
वी. पी. गुणशेखरन एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं. वह तमिलनाडु के सत्यमंगलम जिले में आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं. उन्होंने इन संघर्षों को बिल्कुल करीब से देखा है. वह अपनी चिंता जाहिर करते हुए कहते हैं कि यहां के मूल निवासियों को हटाने या उन्हें उनके जंगलों की जमीन का इस्तेमाल न करने देने से सिर्फ़ और सिर्फ़ औद्योगीकरण को बढ़ावा मिलेगा. वह कहते हैं, “हम जंगलों को किससे बचा रहे हैं? अगर मैदानी क्षेत्र वाले लोग इन इलाकों में प्रवेश न कर पाएं तो वही काफी होगा. यहां के लोगों और खासकर इन्हीं जंगलों में रहने वाले लोगों को कहीं और ले जाने और लोगों और जंगल के बीच में बैरियर बनाने की कोई जरूरत नहीं है.” संरक्षण के लिए काम करने वाले लोगों का कहना है कि जानवरों के चरने से जंगलों में लगने वाली आग को रोका जा सकता है और जैव विविधता को होने वाले नुकसान को भी कम किया जा सकता है.
इस मामले की जमीनी हकीकत बताते हुए मुत्तुस्वामी कहते हैं, “पश्चिमी घाट में दो आदिवासी गांवों के बीच में दूरी काफी ज्यादा है जबकि लोग, पशु और वन्य जीव एक ही जैसे परिदृश्य में रहते हैं. एक गांव, एक पहाड़ी, कुछ जंगल, लोगों के खेत- ये सब एक दूसरे से लगे हुए हैं. लोग इस पूरे इलाके का व्यापक इस्तेमाल करते हैं, चाहे वह खाने-पीने के लिए हो या आजीविका के लिए. ऐसे में यह तो तय है कि अभयारण्य का ऐलान हो जाने के बाद यहां विवाद तो जरूर होगा. बिना लोगों के कोई जंगल संभव नहीं है. सही तो यही होगा कि वन संरक्षण में स्थानीय लोगों को शामिल किया जाए और अभयारण्य के हिसाब से नियम तय किए जाएं.”
हालांकि, तमिलनाडु सरकार के पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और वन विभाग की अतिरिक्त मुख्य सचिव सुप्रिया साहू स्पष्ट करती हैं कि अभ्यारण्य में किसी तरह का कोई प्रतिबंध नहीं होगा. वह कहती हैं, “हमें उम्मीद है कि हम ऐसा मैनेजमेंट प्लान सेट करेंगे जिसके केंद्र में लोग रहेंगे.” कुछ ऐसा प्लान है कि सबसे पहले खाली पड़ी और खराब जगहों को चिह्नित किया जाएगा और जंगल में मौजूदा प्राकृतिक जगहों को रीस्टोर किया जाएगा. सुप्रिया साहू कहती हैं कि इससे स्थानीय लोगों को पेड़ लगाने के अभियानों का हिस्सा बनने और हानिकारक प्रजातियों को यहां से हटाने के मिशन का हिस्सा बनने का मौका मिलेगा. पूरे तमिलनाडु में जहां कहीं भी संरक्षित क्षेत्रे होने की वजह से इस तरह के संघर्ष की स्थिति बनी है, वहां सबसे बड़ी समस्या संवादहीनता रही है. लोगों के अधिकारों और भूमिका को लेकर स्पष्टता रखकर लोगों का डर कम किया जा सकता है.
अय्यपन कहते हैं, “हकीकत यह है कि लोग इसे पहले ही अभयारण्य की तरह मानकर चल रहे हैं. यहां पिछले दो सालों में एक भी शिकार नहीं हुआ है. स्थानीय लोग बाहर के लोगों को भी यहां शिकार नहीं करने देते.” बुजुर्ग किसान शंकर एक पेड़ की ओर इशारा करके मुस्कुराते हैं और कहते हैं कि स्लेंडर लोरिस मेरे खेतों के पेड़ों पर आना पसंद करते हैं. वह कहते हैं, “वन विभाग के अधिकारी सिर्फ़ सड़कों के आस-पास पेट्रोलिंग कर सकते हैं. वो हम लोग ही हैं जो यह जानते हैं कि जंगल के अंदर क्या हो रहा है. जब तक हम यहां हैं, तब तक हमारी जमीनों को कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता है. हम इन पहाड़ों के हैं और ये पहाड़ हमारे हैं.”
(यह लेख मुलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: पंचनथंगी के पास मौजूद अभयारण्य में स्लेंडर लोरिस. तस्वीर - SEEDS ट्रस्ट