Teachers Day : 174 साल पहले आज ही के दिन सावित्रबाई फुले और फातमा शेख ने खोला था लड़कियों का पहला स्कूल
शिक्षक दिवस 5 सितंबर को ही मनाया जाना चाहिए क्योंकि 174 साल पहले आज ही के दिन खुला था देश में लड़कियों का पहला स्कूल.
5 सितंबर का दिन देश में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है. आज ही के दिन देश में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खुला था. भारत की आजादी से तकरीबन 100 साल पहले जब भारत में शिक्षा सिर्फ एक खास जाति और वर्ग तक ही सीमित थी, 5 सितंबर, 1848 को सावित्री बाई फुले और फातमा शेख ने मिलकर पुणे के भिडेवाड़ा में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला. अंग्रेजों के गुलाम और सामंती, रूढि़वादी देश में यह कदम उठाना आसान नहीं था. लेकिन यह मुश्किल कदम ही आगे चलकर स्त्री शिक्षा और आधुनिक भारत के निर्माण की बुनियाद बना.
सावित्रीबाई फुले और फातमा शेख दोनों ने अपने परिवार और समाज के विरोधों के बावजूद अपनी लड़ाई जारी रखी. जब सावित्रीबाई और उनके पति ज्योतिबा फुले ने समाज के वंचितों, दलितों और लड़कियों के लिए स्कूल खोलने की अपनी इच्छा जाहिर की तो फुले के पिता गोविंद राव ने उन्हें घर से निकाल दिया था. चाहते तो वे नहीं थे, लेकिन उन पर इलाके के ब्राम्हणों का बड़ा दबाव था. वह उनसे दुश्मनी मोल नहीं ले सकते थे.
जब ज्योतिबा फुले अपनी पत्नी के साथ रहने और स्कूल खोलने के लिए ठिकाने की तलाश कर रहे थे तो फातमा शेख के भाई उस्मान शेख ने ही उनकी मदद की थी. उन्होंने अपने घर का एक हिस्सा उन्हें रहने और एक हिस्सा स्कूल खोलने के लिए दे दिया. यहीं से उनकी दोस्ती और साझेदारी की शुरुआत हुई. फातमा शेख के माता-पिता का बचपन में ही निधन हो गया था. एक तरह से भाई उस्मान शेख ने ही उन्हें पाला था. उनके पिता के निकट दोस्त मुंशी गफ्फार बेग दोनों भाई-बहनों के अभिभावक थे.
गफ्फार बेग ही फुले और उस्मान शेख के बीच दोस्ती का पुल बने. गफ्फार बेग की फुले के जीवन में भी कम अहमियत नहीं थी. फुले के पिता गोविंद राव से दोस्ती के नाते वो हमेशा ही उन्हें ज्योतिबा को अच्छे स्कूलों में भेजने और पढ़ाने का हौसला देते रहे थे.
174 साल पहले आज ही के दिन देश में पहला लड़कियों का स्कूल खुला था, लेकिन इस कारण से कभी इस दिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने का प्रयास नहीं हुआ. शिक्षक दिवस तो मनाया गया, लेकिन अन्य कारणों से. स्त्री शिक्षा और आधुनिक भारत के निर्माण में सावित्रीबाई फुले और फातमा शेख की भूमिका को इतिहास में पहचान और महत्व बहुत देर से मिला, जिसका पूरा श्रेय देश में 80 के दशक के बाद जन्मे और फैले दलित आंदोलन को जाता है.
बीएसपी और बामसेफ जैसे संगठनों ने इतिहास के हाशिए पर पड़ी इन महिलाओं और उनके अमूल्य योगदान को मुख्यधारा में लाने का काम किया. अब स्कूली पाठ्यक्रम में उनकी जीवनी पढ़ाई जाती है, विरोधी विचारधारा वाले राजनीतिक संगठन, समूह और पार्टियां भी उनके नाम से मुंह नहीं मोड़ सकते.
देर से ही सही, सावित्रीबाई फुले के काम को तो पहचान मिली, लेकिन उनके साथ काम कर रही फातमा शेख को यह पहचान मिलने में काफी वक्त लग गया. तीन साल पहले 2019 में गूगल ने 8 जनवरी को फातमा शेख के 191वें जन्मदिन पर एक गूगल डूडल बनाया. फातमा शेख का नाम, जो अब तक कुछ एकेडमिक किताबों और स्कॉलरों के बीच ही जाना जाता था, अचानक मुख्यधारा में आ गया. गूगल डूडल के बहाने ही सही, बहुत सारे मेनस्ट्रीम मीडिया में यह स्टोरी छपी कि फातमा शेख कौन थीं और लड़कियों के पहले स्कूल के खुलने में उनकी क्या भूमिका थी.
फातमा शेख का सावित्रबाई फुले से परिचय तब हुआ, जब उनके भाई उस्मान शेख ने उन्हें अपने घर में लड़कियों का स्कूल खोलने के लिए जगह दी. फातमा समृद्ध परिवार से ताल्लुक रखती थीं, लेकिन वो खुद भी कभी स्कूल नहीं गई थीं. उन्होंने घर पर ही अरबी और उर्दू की तालीम ली थी. स्कूल खुलने पर वह भी सावित्री बाई से मराठी और अंग्रेजी की तालीम लेने लगीं.
फुले दंपती के समाज में बड़े दुश्मन थे. उस्मान शेख के लिए भी ऐसे लोगों की मदद करना आसान नहीं था. उन्हें हिंदू और मुसलमान दोनों समुदायों के विरोध और तिरस्कार का सामना करना पड़ा था. जल्द ही मराठी और अंग्रेजी के अलावा अन्य विषयों में पारंगत हो चुकी फातमा शेख अब सावित्रबाई फुले के साथ घर-घर जाकर लोगों से लड़कियों को स्कूल भेजने की गुजारिश भी करती थीं. जब लड़कियों की संख्या बढ़ने लगी तो और शिक्षकों की जरूरत पड़ी. तब फातमा शेख ने आगे बढ़कर पढ़ाने की इच्छा जाहिर की और इस तरह वो भारत की पहली मुसलमान टीचर बन गईं. सावित्रीबाई और फातमा शेख ने बाद में साथ में अहमदनगर के मैडम सिंथिया फेयर मिशनरी स्कूल से टीचर्स ट्रेनिंग भी ली.
1856 तक आते-आते फुले दंपती पुणे में 15 और पुणे के बाहर 15 स्कूल खोल चुके थे. इस पूरी यात्रा में फातमा शेख की अहम भूमिका रही है. बाद में सावित्रीबाई की तबीयत खराब होने पर उन्होंने स्कूल का पूरा कामकाज संभाला और कुछ वक्त तक उसकी प्रिंसिपल भी रहीं.
आज भले सुनने में यह मामूली बात लगती हो, लेकिन यह बात आज से तकरीबन पौने दो सौ साल पुरानी है. समाज बहुत रूढि़वादी था. लड़कियों के लिए परंपरा की बेडि़यां बहुत मजबूत और दीवारें बहुत ऊंची थीं. समाज के ऊंचे और ताकतवर तबके का कोई व्यक्ति कमजोरों के लिए शिक्षा का बहुत हिमायती नहीं था. चाहे वह अंग्रेज हों या फिर हिंदुस्तान के प्रभुत्व वर्ग के लोग. वे जानते थे कि शिक्षा ही वह हथियार है, जो उनकी सत्ता और ताकत को चुनौती दे सकता है.
यह अकारण भी नहीं है कि भारत के तथाकथित प्रगितिशील इतिहासकार भी इन महिलाओं को इतिहास में उनकी सही जगह देने में नाकाम रहे. डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन पर शिक्षक दिवस मनाए जाने को लेकर विवाद और सवाल पिछले एक दशकों की देन है क्योंकि इसके पहले कई दशकों तक कोई समानांतर इतिहास ने न लिखा गया, न बताया गया. सवाल पूछना तो बहुत दूर की बात थी.
यहां बात एक को स्थापित और दूसरे को खारिज करने की नहीं है. बात इतिहास को बिना किसी पूर्वाग्रह के सच्चाई से देखने की है, ईमानदारी बरतने की है, न्याय का पक्ष लेने की है. बात हाशिए पर पड़े उन तथ्यों, घटनाओं और व्यक्तियों को मुख्यधारा में लाने की है, जो लंबे समय तक इतिहास की किताबों से नदारद रहे.
आज शिक्षक दिवस के मौके पर उन महिलाओं को और उस स्कूल को याद करना उसी की एक छोटी से कोशिश है. शिक्षक दिवस 5 सितंबर को ही मनाया जाना चाहिए क्योंकि 174 साल पहले आज ही के दिन खुला था देश में लड़कियों का पहला स्कूल.
Edited by Manisha Pandey