जिन फेस मास्क ने हमारी ज़िंदगी बचाई, अब वही बन गए हैं जीव जंतुओं के लिए ख़तरा
श्री रामस्वरूप मेमोरियल विश्वविद्यालय के सिविल इंजीनियरिंग विभाग द्वारा किये गए एक अध्ययन के मुताबिक़ कोविड में जीवन-रक्षक रहे फेस मास्क पर्यावरण और जीव जंतुओं के लिए एक खतरा बन गए हैं.
कोविड लॉकडाउन के दौरान “दो गज की दूरी, मास्क है ज़रूरी” हम शायद ही कभी भूल पाएँगे. महामारी के “न्यू नार्मल” का एक मतलब यह भी था कि फेस-मास्क का इस्तेमाल हम सब के लिए सांस लेने जितना ही जरूरी हो गया था. सैनेटाइज़र की बोतलें, पीपीटी किट और ग्लव्स, मेडिकल टेस्ट किट हमारे जिंदा रहने के शर्त बन गए थे. इन सब की बदौलत हमने कोविड महामारी से लड़ाई लड़ी और काफ़ी हद जीती भी. लेकिन क्या हमें कोई अंदाज़ा था कि जान बचाने वाला फेस मास्क जल्द ही हमारे पर्यावरण और जीव जंतुओं के लिए एक खतरा बन जाएगा?
फ़ेस मास्क के ग़ैर-जिम्मेवार हानिकारक प्रभाव के बारे में हाल ही में भारत के श्री रामस्वरूप मेमोरियल विश्वविद्यालय के सिविल इंजीनियरिंग विभाग द्वारा किये गए एक अध्ययन के मुताबिक़ भारत में हर साल क़रीब 23,888.1 करोड़ मास्क उपयोग किये जाते हैं. उनके लापरवाह डिस्पोज़ल की वजह से लगभग 15.4 लाख टन माईक्रोप्लास्टिक और पॉलीप्रॉप्लीन उत्पन्न हो रहा है जिसके कारण पर्यावरण एवं जीव-जंतुओं को गम्भीर नुक्सान का ख़तरा उत्पन्न हो गया है. केमोस्फियर नामक जर्नल में प्रकाशित लेख के मुताबिक़ असली मुद्दा है लापरवाह डिस्पोज़ल जिसके कारण फेस मास्क लैंडफिल पहुँचते हैं जहाँ पड़े-पड़े इन पर बैक्टेरिया और फफूँद आसानी से पनपते हैं. उसी तरह भूजल के स्रोतों में, समुद्र में, नदियों-तालाबों में भी पहुँच जाते हैं जिसकी वजह से वहां रहने वाले जानवर को नुकसान पहुँचता है.इधर-उधर फेंके हुए मास्कों के जरिये पानी के स्त्रोतों में माईक्रोप्लास्टिक का पहुँच जाना मछली-पालन के लिए काफी नुकसान देह है. गलियों में कचरे के साथ मिले मास्क को आवारा पशु खा लेते हैं जो उनके लिए खतरनाक होता है. कभी कभी पक्षी भी फेस-मास्क के स्ट्रिंग्स में फंस जाते हैं.
किन देशों में हुआ फेस मास्क का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल?
फेस-मास्क के लापरवाह डिस्पोज़ल और उसके हानिकारक प्रभाव को समझने के लिए उन 36 देशों को स्टडी किया गया जहाँ कोविड के मामले और इन्फेक्शन रेट [प्रति केसेज/मिलियन टेस्ट] सबसे जयादा थे. मामले और इंफ़ेक्शन दोनों ज़्यादा होने की वजह से फेस-मास्क का उपयोग भी इन्हीं देशों में ज़्यादा हुआ. अमेरिका में सबसे ज़्यादा 8 करोड़ से ज्यादा कोविड केस थे, वहीँ ब्राज़ील में सबसे ज़्यादा इन्फेक्शन रेट 36.74% था. चीन की जनसँख्या सबसे ज्यादा है इसीलिए इस अध्ययन के मुताबिक मास्क का सबसे ज़्यादा सालाना इस्तेमाल चीन में हुआ, जहां अध्ययन किए जाने के समय तक 400 अरब मास्क एक साल में इस्तेमाल किये गए. भारत में लगभग 230 अरब फेस-मास्क हर साल इस्तेमाल हुए. सालाना 120 अरब फेस-मास्क के साथ अमेरीक तीसरा सबसे बड़ा यूज़र था. इन्हीं तीन देशों में पूरी दुनिया का एक तिहाई माईक्रोप्लास्टिक और पॉलीप्रॉप्लीन उत्पन्न हुआ और पर्यावरण एवं जीव जंतुओं को सर्वाधिक ख़तरा यहीं पर है.
अध्ययन में दिए गए सुझाव:
- फेस-मास्क पर्यावरण के लिए इसलिए खतरनाक है क्योंकि यह सिंगल यूज प्लास्टिक से जुड़े खतरे और चुनौतियाँ बढाता है जिसे सभी देशों को हर हाल में एड्रेस करना होगा. अध्ययन में सुझाए कुछ हल इस प्रकार सर्जिकल प्रोडक्ट्स को फेंकने से पहले उसे पूरी तरीके से डिस-इंफ़ेक्ट करना चाहिए.
- सर्जिकल किट्स बनाने के लिए री-युजबले प्लास्टिक का उपयोग किया जाना चाहिए.
- बायोडीग्रेडेबल मास्क के निर्माण की तरफ सोचना होगा.
- फेस मास्क से उत्पन्न प्लास्टिक प्रोडक्ट्स को कंस्ट्रक्शन या पेवमेंट का मटीरीयल बनाने के लिए री-यूज किया जा सकता है.
इन सुझावों पर काम धीरे धीरे शुरू हो रहा है. असर भी होगा थोड़ा -बहुत. लेकिन कोविड के बाद पुरानी ज़िंदगी जीने को तत्पर हम लोगों के लिए शायद यह फिर से ठहरने का क्षण है.
कोविड महामारी इसलिये आयी थी कि हमने विकास और मुनाफ़े की राह में जीवन और पर्यावरण पर पड़ने वाले लोंग टर्म असर को नज़र अन्दाज़ किया था. मास्कों की कहानी बताती है कि हम आपदा और उसके प्रबंधन में भी एक बार फिर वही चूक कर बैठे हैं.