वो चार गुरु जिन्होंने योग को दुनिया भर में लोकप्रिय बनाया; टी. कृष्णमाचारी और उनकी विरासत
आज से सौ साल पहले तक आधुनिक दुनिया योग की महिमा से अनजान थी. उसके बाद टी. कृष्णमाचारी [1888-1989] का पदार्पण हुआ. उन्होंने और उनके तीन सुयोग्य शिष्यों इंद्रा देवी, बी. के. एस. अयंगर और के. पट्टाभि जोइस ने योग को संसार भर में पहुँचा दिया.
योग एक प्राचीन शास्त्र है और इसका इतिहास सिन्धु घाटी सभ्यता जितना पुराना है. लेकिन वक़्त के साथ-साथ योग ने अपने को बहुत बदला है. आज हम जिस रूप में योग को जानते हैं उसका श्रेय टी. कृष्णमाचार्य को जाता है जिन्हें मॉडर्न योग का आविष्कारक भी कहा जाता है. आज हम योग को जिस रूप में, जिन मुद्राओं, जिन आसनों के लिए जानते हैं उसमे शायद ही ऐसा कुछ हो जिस पर कृष्णमाचार्य की छाप न हो.
बात है 20वीं सदी के शुरुआती दशकों की जब योग न इतना पॉपुलर था न ही इसमें दिलचस्पी रखने वाले बहुत लोग थे. ब्रिटिश साम्राज्यवाद का दौर था. भारत में राज कर रहे अंग्रेजों में जिम्नास्टिक, खासकर सर के बल खड़े होने वाले आसन ‘शीर्षासन’ का बहुत जोर था और भारतीयों में कुश्ती का. इसी दौरान तिरुमलई कृष्णमाचार्य नामक एक युवक को योग में बहुत रुचि हो गयी थी. उसने अपने योग के ज्ञान को परिपूर्ण करने के लिए संस्कृत, लॉजिक, लॉ, मेडिसिन आदि विषयों की भी पढ़ाई की.
क्यूँकि उस दौर में योग में दिलचस्पी रखने वाले नाम मात्र के लोग थे. स्टूडेंट्स नहीं मिलने के कारण कृष्णमाचार्य ने एक कॉफ़ी बाग़ान में फोरमैन की नौकरी ली. पर छुट्टियों के दिन वह गाँव-गाँव घूमकर लोगों से योग के बारे में बात करते थे और योग आसन करके दिखाते थे. लोगों की योग के प्रति उदासीनता को आकर्षण में बदलने के लिए कृष्णमाचार्य अपनी योग यात्रा के दौरान आश्चर्य कर देने वाले करतब दिखाने लगे. अपनी साँस रोक देते थे, भारी चीज़ों को दांतों से उठा लेते थे, अपने हाथ से कार रोक देते थे. लोगों में जिज्ञासाएं बढ़ी. वक़्त बदला, 2 साल के बाद उन्हें मैसूर के संस्कृत कॉलेज में पढ़ाने की नौकरी मिली और साथ में योग के प्रति अपने पैशन को बढाने का भी अवसर भी. मैसूर के महाराजा को भारत की परम्पराओं में बहुत रूचि होने के कारण कृष्णमाचार्य को राजसदन में आकर योग-शाला शुरू करने का मौका मिला. एक वजह महाराजा के खुद मधुमेह से पीड़ित होने की रही कि उनके उपचार के प्रयोजन से कृष्णमाचार्य को योग का प्रचार प्रसार करने का और स्कूल चलाने का मौका मिला.
आने वाले दिन कृष्णमाचार्य की योग-साधना के सबसे सुनहरे दिन थे. योग-शाला में नौजवान लड़के योग सीखने आते थे. अलग-अलग शारीरिक बनावट के लोग, अलग-अलग शारीरिक क्षमताओं के लड़कों को मानक योग सिखाने के बजाय कृष्णमाचार्य ने योग को उनके अनुसार ढाला. यहीं से शुरुआत हुई अष्टांग विन्यास योग की. योग, जिम्नास्टिक्स, और रेसलिंग की देह मुद्राओं से प्रभावित कृष्णमाचार्य योग आसन को परफेक्ट करने पर केन्द्रित करने के साथ-साथ सांस के संग तालमेल बिठाने पर भी जोर देते थे जिसे आज हम मेडीटेटिव या ध्यान योग के रूप में जानते हैं.
कृष्णमाचार्य के योग के मुरीद अलग-अलग धर्म, जात, तबके के लोग हुए. पर महिलाओं के लिए योग अभी भी दूर का स्वप्न था. कृष्णमाचार्य खुद भी इसके तरफदार नहीं थे. अद्भुत संयोग है कि कृष्णमाचार्य के योग को दुनिया के मानचित्र पर पहुंचाने वाली एक महिला ही थी: इंद्रा देवी. दरअसल, कृष्णमचार्य के स्कूल में योग सीखने आने वाले तीन विद्यार्थी आगे चलकर विश्व-प्रसिद्ध योग गुरु बने: इंद्रा देवी, बी. के. एस. अयंगर और के. पट्टाभि जोइस.
इंद्रा देवी
कृष्णमाचार्य के योग से प्रभावित इंद्रा देवी उनसे योग सीखना चाहती थी जिसके लिए कृष्णमाचार्य तैयार नहीं थे. मैसूर के महाराज के अनुरोध पर राज़ी हुए कृष्णमाचार्य ने इंद्रा देवी को हतोत्साहित करने की लिए कठिन आसन और डाइट फॉलो करने का आदेश दिया. इंद्रा वह सब करती गयीं, और आगे चलकर न सिर्फ कृष्णमाचार्य की अच्छी शिष्य बनीं बल्कि अच्छी दोस्त भी बनीं. योग को भारत के बाहर ले जाने का श्रेय इंद्रा देवी को जाता है. उन्होंने चीन के शहर शंघाई में योग का पहला स्कूल खोला. इंद्रा देवी ने हठ योग पर एक बेस्ट-सेलिंग किताब लिखी “फॉरएवर यंग, फॉरएवर हैप्पी.” बाद में अमेरिका शिफ्ट करने के बाद साल 1947 में हॉलीवुड में योग सिखाया जिसमे मडोना, ग्रेटा गरबो, एलिज़ाबेथ हस्तियाँ उनकी योग शिष्य बनीं.
बी के. एस. अयंगर
हठ योग को अमेरिका और यूरोप में सबसे ज्यादा शोहरत अयंगर से मिली. अयंगर का जन्म 14 दिसम्बर 1898 को हुआ था. बचपन में स्वस्थ्य ठीक नहीं रहने के कारण उन्हें उनकी बहन ने मैसूर रहने बुलाया. वहीं अयंगर ने अपनी बहन के पति कृष्णमाचार्य के सानिध्य में योग करना शुरू किया जिससे उन्हें अच्छा स्वास्थ्य लाभ हुआ. अयंगर ने 1936 में योग सिखाना शुरू किया. शुरुआत में आर्थिक तंगी का सामना करने के बाद अयंगर योग में बहुत बड़ा नाम बन गए थे. इनके शिष्यों में जिद्दू कृष्णमूर्ति, प्रसिद्ध वायलिनिस्ट येहुदी मेनुहिन, जयप्रकाश नारायण, सचिन तेंदुलकर जैसी चर्चित हस्तियाँ शामिल थीं. अयंगर ने अपनी पहली विदेश यात्रा साल 1956 में की जब वह अमेरिका गये. 1960 के दशक में अयंगर योग अमेरिकन और यूरोपियन लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय हुआ और अयंगर ने कई यूरोपियन देशों का दौरा किया और वहां पर अपने संस्थान खोले.
आज के मॉडर्न योग को अयंगर का नाम लिए बिना सोचा भी नहीं जा सकता. अयंगर और कृष्णमाचार्य का साथ एक साल के कम वक़्त का ही रहा लेकिन अयंगर योग में योग के थेराप्युटिक/हीलिंग नेचर को कृष्णमाचार्य का ही प्रभाव कहा जाता है. लेकिन अपने गुरु के विन्यास योग को अयंगर के योग में कोई जगह नहीं मिली.
अयंगर के हठ योग की विशिष्टता उनके “बॉडी एलाइनमेंट” और “प्रॉप-योग” के प्रयोग में है. “प्रॉप” को यूज करने की शुरुआत कम उम्र के बच्चों को योग सिखाने से हुई ताकि बच्चे प्रॉप के सहारे कठिन आसन भी कर सकें. बच्चों के जल्द जल्द बीमार पड़ने की ही वजह से अयंगर ने योग को बीमारियों को ठीक करने की दिशा में बढ़ाया.
अयंगर ने अपने जीवन में योग पर कई किताबें लिखी. उनकी लिखी किताबों में “लाइट ऑन योगा” अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सबसे अधिक बिकने वाली किताब बनी. योग में इनके योगदान को सम्मानित करते हुए उन्हें भारत सरकार द्वारा साल 1991 में ‘पद्मश्री’ और साल 2002 में ‘पद्मभूषण’ से नवाज़ा गया.
इनकी मृत्यु 95 साल की उम्र में अपनी कर्मस्थली पुणे में साल 2014 में हुई.
के. पट्टाभि जोइस
12 साल की उम्र से कृष्णमाचार्य से योग सिखने वाले जोइस ने कृष्णमाचार्य की शिक्षाओं को सहेज कर, बिना कोई बदलाव किये एक आदर्श शिष्य की भाँति कृष्णमाचार्य के विन्यास योग को अपने योग के जरिये जीवित रखा. कृष्णमाचार्य की ही तरह जोइस ने भी महाराजा के कहने पर मैसूर के संस्कृत कॉलेज में पढ़ाया. 1948 में लक्ष्मीपुरम में ही अष्टांग योग रिसर्च इंस्टीट्यूट खोला और 1974 में पहली बार साउथ अमेरिका जाने के बाद अगले 20 सालों तक अमेरिका में अलग-अलग जगहों पर योग सिखाया और पढाया.
कृष्णमाचार्य हमारे बीच नहीं हैं, उनके सर्वाधिक सुयोग्य और प्रसिद्ध शिष्यों में से एक उनके बेटे टी.के.वी. देसिकचाड भी अब हमारे बीच नहीं हैं. लेकिन टी.के.वी. द्वारा अपने पिता की परम्पराओं को जीवित रखते हुए चेन्नई में स्थापित “कृष्णमाचार्य योग मंदिर” है जहाँ योग की अलग-अलग प्रैक्टिस के साथ प्रयोग करते हुए, रिफाईन करते हुए नए वक़्त की जरूरतों के हिसाब से उसे सहेजने की कोशिश आज भी जारी है. और शायद यही योग को समझने का सही तरीका भी है कि योग एक जीती-जागती परम्परा है जो वक़्त के साथ चलती है, उसके पीछे नहीं.