ओलंपिक तक का सफर तय करने वाली दिव्यांग पॉवरलिफ्टर शालू की कहानी
अमृतसर (पंजाब) के पिंगलवाड़ा अनाथ आश्रम में पली-बढ़ी 23 वर्षीय दिव्यांग पॉवर लिफ्टर शालू इस समय अगले महीने अबू धाबी के ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीतने के ख़्वाब देख रही हैं। वह ठीक से बोल भी नहीं पाती हैं। अभी तक वह अपने नाम के अलावा सिर्फ़ तीन शब्द उचारती हैं- इंडिया, गोल्ड, माँ। वह आश्रम की स्वयं सेविका पद्मिनी को माँ कहकर बुलाती हैं। पद्मिनी ही बचपन से उनकी देखभाल कर रही हैं।
लगभग उन्नीस साल पहले अमृतसर (पंजाब) की ऑल इंडिया पिंगलवाड़ा चैरिटेबल सोसाइटी में पुलिस के माध्यम से पहुंची अनाथ बच्ची शालू आज 23 साल की होने के साथ ही कुशल पॉवर लिफ्टर बन चुकी हैं। इस समय वह अगले महीने 14 से 21 मार्च तक अबू धाबी में आयोजित ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व करने जा रही हैं। शालू के लालन-पालन में सोसाइटी की अध्यक्ष बीबी डा. इंद्रजीत कौर और पद्मिनी का प्रमुख योगदान रहा है। शालू की जिंदगी और कामयाबी के सपने रूस की 21 वर्षीय जूलिया विन्स जैसे हैं, जो किसी अच्छे-खासे शख्स को मात देने की क्षमता के बावजूद पेशेवर पॉवरलिफ्टर बनना पसंद नहीं करती है।
शालू के बहाने याद करिए कि पिछले साल जकार्ता में किस तरह भारतीय महिला भारोत्तोलक सकीना खातून ने पैरा-एशियाई खेलों में शानदार प्रदर्शन करते हुए पहले ही प्रयास में किस तरह रजत पदक अपने नाम कर लिया था। दुबई में कल 8 फरवरी से 12 फरवरी तक होने जा रही पावर लिफ्टर प्रतियोगिता में भाग लेने जा रहे पंजाब के ही दिव्यांग परमजीत और कुलदीप की तरह ही अबू धाबी में भारत का मान ऊंचा करने वाली हैं।
पिंगलवाड़ा के अनाथ आश्रम की स्वयंसेविका पद्मिनी बताती हैं कि जिस समय शालू को लाया गया था, वह ठीक से कुछ भी नहीं बता-बोल पाती थी। उसके बाद उन्होंने स्वयं उसकी देखभाल की जिम्मेदारी उठा ली। उन दिनो काफी कोशिश के बावजूद शालू के घर वालों की जानकारी नहीं मिल सकी। यहां तक कि वह बच्ची अपना नाम भी नहीं बता पा रही थी। उसके बाद इस आश्रम नुमा ठिकाने पर ही उसका शालू नामकरण किया गया। पद्मिनी को शालू के लालन-पालन में काफ़ी मेहनत करनी पड़ी। जैसे-जैसे दिन गुजरते गए, दिव्यांग शालू लोगों के बीच सक्रिय होने लगी।
दुखद है कि वह आज भी ठीक से बोल नहीं पाती है। पद्मिनी बताती हैं कि उन्होंने ही शालू को एथलिक्टिस में संवारना, सहेजना शुरू किया। बचपन से ही उसकी खेल-कूद में रुचि थी। उसे जिस तरह सहयोग किया जाता रहा, उसी लगन से वह स्वयं अपना लक्ष्य तय करने लगी। अब तो वह पिछले कई सालों से खेल और एथलेटिक्स में अच्छे प्रदर्शन कर रही है। उसने कई मेडल भी जीते हैं। इस समय इस अनाथ आश्रम शालू के अलावा लगभग सवा दो सौ और भी बेसहारा शरण पाए हुए हैं।
जरूरी नहीं है कि हुनर किसी संपन्न, खाते-पीते परिवार के बच्चे में ही दिखे, कामयाबी किसी को भी मिल सकती है। बशर्ते उसमें लगन और मेहनत का जज्बा हो। पद्मिनी की मदद से ऐसे ही जज्बे के साथ शालू अपने नाम के अलावा सिर्फ़ तीन शब्दों का उच्चाण कर पाती है- इंडिया, गोल्ड और माँ। वह पद्मिनी को माँ कहकर बुलाती है। उल्लेखनीय है कि अंतराष्ट्रीय विकलांग पॉवर लिफ्टर अनिल शर्मा अपनी विधवा माँ और बहन का भरण पोषण करने के लिए कनॉट प्लेस (दिल्ली) में हनुमान मंदिर के बाहर कचौड़ी की दुकान चलाते थे। शालू का अनाथ आश्रम में भले ही पालन-पोषण हुआ लेकिन अब वह विश्व मंच पर अपना जलवा दिखाने जा रही है। इस उसके भीतर पहली हवाई यात्रा का रोमांच भी है। उसे यह अवसर उसकी कठिन मेहनत और साधना का ही नतीजा है। अब वह दिव्यांग खेल प्रतिभाओं के कुंभ विश्व ओलिंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व करने जा रही है। शालू ने वर्ष 2012 में पॉवरलिफ्टिंग शुरू की थी। आज उसकी इस खेल-तपस्या के छह वर्ष गुजर चुके हैं।
बताते हैं कि शालू फुटबॉल खेलती थी। महीनों वह फुटबॉल पर अपना सारा समय देती रही। एक दिन जब मैच में उसे फ़ाउल मिला, विचलित हो उठी। उस दिन के बाद तो उसने फुटबॉल खेलना ही छोड़ दिया और पॉवरलिफ्टिंग में उतर पड़ी। इसमें उसे अपने कोच से भरपूर मदद मिली। अब तो पॉवरलिफ्टिंग ही उसकी जिंदगी का पहला और आखिरी मकसद बन चुका है। इस समय उसकी निगाहें अबू धाबी ओलंपिक के गोल्ड मेडल पर हैं। अर्जुन की तरह वह अपने लक्ष्य पर अभी से सटीक निशाना साधे हुए है। अपनी दिनचर्या का वह ज्यादा से ज्यादा वक्त पॉवरलिफ्टिंग पर बिता रही है। अनाथ आश्रम के संचालक और स्वयंसेवक-सेविकाएं भी शालू के सपनों में पंख लगाने में कोई लापरवाही नहीं करना चाहते हैं। इस समय पद्मिनी बारहो घंटे उसके साथ उसकी सबसे आत्मीय मार्गदर्शक बनी हुई हैं।
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