कैंसर से लड़ने के लिए सिर्फ़ इलाज नहीं, साथ और प्रेरणा की होती है ज़रूरतः मनीषा कोइराला
योर स्टोरी के साथ एक इंटरव्यू में अभिनेत्री मनीषा कोइराला ने स्पष्ट तौर पर यह बताया कि उन्होंने कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी के साथ अपने अनुभवों को ज़ाहिर करने का फ़ैसला क्यों लिया। उन्होंने बताया कि इस रोग की जानकारी मिलने के बाद मरीज़ को बेहद सकारात्मक माहौल और जीवन जीने की एक ख़ास वजह की ज़रूरत होती है।
मनीषा ने दिसंबर, 2018 में 'हील्डः हाउ कैंसर गेव मी अ न्यू लाइफ़' नाम से एक पुस्तक लॉन्च की, जो कैंसर के साथ उनके निजी अनुभवों पर आधारित थी। कैंसर का नाम सुनते ही आमतौर पर लोगों में दया, डर और असहाय होने का भाव सा पैदा होने लगता है, लेकिन जैसे-जैसे कैंसर से लड़कर उबरने वाले लोगों की कहानियां सामने आने लगी हैं, इस बीमारी से हारने वालों की संख्या में भी कमी देखने को मिली है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, भारत में कैंसर के ख़िलाफ़ सर्वाइवल रेट 50 प्रतिशत है और देश में हर मिनट 17 लोग कैंसर की वजह से जान गंवा रहे हैं।
48 वर्षीय मनीषा ने योर स्टोरी के साथ हुई बातचीत में बताया, "2012 के आख़िरी महीनों में मुझे कैंसर के बारे में पता चला। इस समय मुझे नहीं पता था कि मैं इस बीमारी से जीत पाउंगी या नहीं। मैं लगातार सकारात्मक उदाहरणों को देखती रहती थी ताकि मुझे आशा बंधी रहे। इस बीमारी के अनुभव इतने डरावने होते हैं कि लोग इन्हें साझा करने से डरते हैं और इसलिए ही उस वक़्त कैंसर से लड़कर जीतने वालों के बेहद सीमित उदाहरण थे। मैंने तय कर लिया था कि मैं ठीक होकर रहूंगी और बाक़ी लोगों के एक मिसाल क़ायम करूंगी।" वर्ल्ड कैंसर डे, 2019 के मौक़े पर मनीषा ने बेंगलुरु स्थित मनीपाल अस्पताल में कैंसर के बेहतर इलाज के लिए बने सेंटर ऑफ़ एक्सीलेंस फ़ॉर इम्युनोथेरपी का अनावरण किया था।
अपनी किताब में मनीषा ने एक ख़ास तरह की जीवनशैली अपनाने और कैंसर का शुरुआती चरण में लगने जैसी कई अहम बातों का ज़िक्र किया है। रिकवरी के बाद उनका उद्देश्य था कि कैंसर के विभिन्न प्रकारों के बारे में लोगों को जागरूक किया जाए और ख़ासतौर वह जिस कैंसर (ओवरियन कैंसर) से पीड़ित थीं। उन्होंने ज़िक्र किया है कि कैंसर का इलाज काफ़ी महंगा होता है और इसलिए वह चाहती हैं कि ऐसे तरीक़े खोजे जाएं, जिनके माध्यम से ग्रामीण और सुदूर इलाकों के लोग भी किफ़ायती तौर पर कैंसर का इलाज करा सकें।
मनीषा कहती हैं, "सरकार अकेले ही यह काम नहीं कर सकती, इसलिए सभी को साथ मिलकर आगे आना होगा और जिम्मेदारी उठानी होगी। कुछ ख़ास तरह की कीमोथेरपीज़ होती हैं, जिनका खर्च बेहद अधिक होता है, इसलिए फ़ार्मा कंपनियों के साथ मिलकर ऐसे तरीक़े खोजने चाहिए, जिनसे कैंसर का इलाज लोगों को आर्थिक रूप से कम से कम प्रभावित करे। पिछले इलाकों में स्क्रीनिंग सेंटर्स होने चाहिए और इलाज की अच्छी सुविधाएं छोटे-बड़े हर शहर में मौजूद होनी चाहिए।"
योर स्टोरी के साथ हुई मनीषा कोइराला की बातचीत के कुछ अंशः
योर स्टोरीः आपको कैंसर की जांच कराने का ख़्याल कैसे आया?
मनीषा कोइरालाः मुझे सबकुछ समझने में काफ़ी वक़्त लगा। मुझे भी नहीं पता था कि कैंसर के लक्षणों का पता कैसे लगता है। मेरे पेट में पानी भर चुका था और मुझे इस बात का ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि मुझे कैंसर हो चुका है। शुरुआत में मैं जांच से बचती रही क्योंकि मुझे लगा कि शायद यह गैस या फिर ऐसिडिटी की समस्या हो। हमारा शरीर लगातार आगाह करता है, लेकिन आदतन हम उन्हें नज़रअंदाज़ करते रहते हैं और इसका ख़ामियाज़ा हमें बाद में भुगतना पड़ता है।
मनीषा बताती हैं कि इस मुश्क़िल वक़्त में उनकी मां हमेशा उनके लिए ताकत बनकर खड़ी रहीं। उनकी मां ने उन्हें हमेशा समझाया कि परस्थिति जितनी भी विपरीत क्यों न हो, उन्हें हमेशा आत्मविश्वास के साथ उसका सामना करना है।
मनीषा कहती हैं, "मैं शुरुआती समय में ही रोग का पता लग जाने का समर्थन करती हूं। आप अपने शरीर द्वारा दिए जाने वाले किसी भी संकेत को नज़रअंदाज़ मत करिए। अगर आपके शरीर में कुछ भी ऐसा होता है, जो रोज़ाना नहीं होता तो आपको जांच करा लेनी चाहिए।"
पश्चिमी देशों में जागरूकता के चलते लोग समय-समय पर जांच कराते ही रहते हैं और इसलिए ही वहां पर रोग के देर से पता चलने की वजह से होने वाली मौतों की संख्या काफ़ी कम है। हमारे यहां आमतौर पर कैंसर दूसरी, तीसरी या चौथी स्टेज में पता चल पाता है और इसके बाद इलाज महंगा और दर्दनाक होने की वजह से स्थिति और भी अधिक चिंताजनक हो जाती है।
योर स्टोरीः आप एक लोकप्रिय शख़्सियत हैं तो क्या आपके मन में अपनी बीमारी के विषय में बात करने के संदर्भ में झिझक थी?
मनीषा कोइरालाः मैं मानती हूं कि अगर कोई अपनी कहानी साझा नहीं करना चाहता तो हमें उसके फ़ैसले का सम्मान करना चाहिए। लेकिन मैं हमेशा से ही अपनी कहानी को साझा करना चाहती थी क्योंकि मुझे लगता था कि इससे मुझे ज़्यादा से ज़्यादा लोगों का साथ मिल सकेगा।
योर स्टोरीः रिकवरी के बाद आपको किन मानसिक बदलावों औ चुनौतियों से गुज़रना पड़ा? आपने हाल ही में फ़िल्म संजु में नरगिस दत्त का किरदार निभाते हुए एक कैंसर पीड़िता की भूमिका भी अदा की है।
मनीषा कोइरालाः कैंसर से लड़ते-लड़ते आपको मानसिक तनाव होने लगता है। जीवन में अस्थिरता आ जाती है। यहां तक कि रिकवरी के बाद भी, डॉक्टर आपसे कहता है कि कैंसर तीन सालों के भीतर लौट भी सकता है। कुल मिलाकर यह बहुत कठिन यात्रा होती है, यहां तक कि सफल इलाज होने के बाद भी।
नरगिस दत्त और एक कैंसर पीड़िता का किरदार निभाने से पहले मुझे डर था कि मेरी ख़ुद की तकलीफ़े भी बाहर आ जाएंगी। मैं बहुत चिंतित थी कि मैं ये सबकुछ बर्दाश्त भी कर पाऊंगी या नहीं। हालांकि, फ़िल्म में मेरा काम बहुत कम देर का था और इसलिए मुझे अधिक समय तक किसी परेशानी का अनुभव नहीं करना पड़ा।
सबसे मुश्किल यात्रा थी अपने अनुभवों को एक किताब का स्वरूप देना। मुझे हर एक छोटी से छोटी जानकारी पर गौर करना था और यादों में दर्द के बुरे दौर से एक बार फिर से गुज़रना था।
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