हरिवंश राय बच्चन पुण्यतिथि: जब बच्चन जी के मुंह से मधुशाला सुनकर बूढ़े-जवान सब झूमने लगे
आज हिंदी कवि हरिवंशराय बच्चन की स्मृति में उनकी कृति मधुशाला से जुड़ी कुछ स्मृतियां.
आज हरिवंशराय बच्चन जी की पुण्यतिथि है. 27 नवम्बर 1907 को इलाहाबाद में एक कायस्थ परिवार में जन्मे बच्चन जी किसी परिचय और बायोग्राफिकल स्केच के मोहताज नहीं हैं. उन्होंने खुद चार भागों में अपनी लंबी आत्मकथा और संस्मरण लिखे हैं.
ये बात दीगर है कि उनके पुत्र अमिताभ बच्चन एक दिन बॉलीवुड के इतने बड़े स्टार बन गए कि उन्हें महानायक कहकर बुलाया जाने लगा और उनका कद अपने पिता से भी बड़ा हो गया. लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि जब अपनी काव्यकृति मधुशाला के लिए हरिवंशराय बच्चन पूरे देश में ख्यात हो चुके थे, तब तक अमिताभ बच्चन क जन्म भी नहीं हुआ था. उनकी अपनी पहचान हमेशा उनके बेटे की पहचान से बड़ी ही रही.
आज उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर हम उनकी कृति मधुशाला के बारे में दो लोगों के लिखे उनके छोटे-छोटे संस्मरण यहां प्रकाशित कर रहे हैं.
1. 'मधुशाला' का युगारम्भ
स्थान- लालकिले का मैदान
वर्ष- 1934
अवसर-हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन
पंडाल खचाखच भरा था. कवि सम्मेलन हो रहा था. महादेवीजी अध्यक्षा थीं. उन दिनों कवि गाया नहीं करते थे, कविता सुनाया करते थे और लाउडस्पीकर सुलभ नहीं थे.
जो कवि मंच पर आता, एक नए हुल्लड़ को जन्म देता और खिसियाकर बैठ जाता. और तो और वयोवृद्ध श्री अयोध्यासिंह उपाध्याय के 'चुभते चौपदे' भी लोगों को चुप न कर सके. कवि सम्मेलन होली का हुड़दंग बना हुआ था पर दोष किसका था? लोग वहाँ कविता सुनने आए थे, कवि लोग कविता सुनाने आए थे. वे सुना भी रहे थे कविता, पर सुनी कहाँ जा रही थी? और जब कानों में कुछ न पड़े, तो जीभ उनकी मदद करेगी ही. बस, कान पुकार रहे थे, जीभ फुंकार रही थी.
मंच पर सलाह-मशविरा जारी था. कवि जल्दी-जल्दी बदले जा रहे थे पर समस्या तो थी, समाधान न था. एक तरुण उठकर स्वयं मंच पर आया और गहरे आत्म-विश्वास से उसने जनता को निहारा, दोनों हाथ फैलाकर उसने जनता को आश्वासन दिया और दोनों हाथों को दोनों तरफ फैलाए-फैलाए, जैसे वह चील के उड़ने का अभिनय कर रहा हो, उसने अपनी कविता पढ़नी आरम्भ की.
भाव रसीले, शब्द सीधे-सादे और पढ़ने का ढंग यह कि स्वर में भावना के अनुसार उतार-चढ़ाव और छन्द की पंक्ति के अन्तिम शब्द में हल्का-सा तरन्नुम ! लोग शान्त हो गए थे, कविता जम गई, काफ़ी समय उस तरुण ने लिया, काफ़ी रस उसने श्रोताओं
को दिया. ये बच्चनजी ही थे, यह मेरे लिए उनका प्रथम दर्शन था. यह उनकी 'मधुशाला' का युगारम्भ था.
-कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर
2. जब बच्चन जी की कविता सुनकर बड़े-बूढ़े सब झूम उठे
मुझे धुँधली-सी स्मृति है उस कवि सम्मेलन की, जिसमें पहली बार बच्चन ने अपनी 'मधुशाला' सुनाई थी. दिसम्बर, सन् 1933 शिवाजी हाल, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय कवि सम्मेलन के सभापति थे हमारे गुरुवर हरिऔध जी, किन्तु उनके न आने के कारण अथवा आकर चले जाने के कारण (ठीक याद नहीं) मुझे ही सभापति का आसन ग्रहण करना पड़ा था. उन दिनों में अंग्रेजी विभाग में वहीं प्राध्यापक था किन्तु हिन्दी में रुचि होने के कारण पाँच सवारों में मेरी भी गिनती हुआ करती थी. और कई कवियों ने उस सम्मेलन में अपनी रचनाएँ सुनाई थीं, किन्तु दो नवयुवक कवियों की रचनाएं लोगों ने विशेष रुचि के साथ सुनीं. एक थे नरेन्द्र शर्मा जो उन दिनों प्रयाग विश्वविद्यालय में एम. ए. के विद्यार्थी थे और दूसरे थे बच्चन जो उन दिनों प्रयाग के ही किसी विद्यालय में अध्यापन करते थे.
दिन बच्चन का ही था. मस्ती के साथ झूम-झूमकर जब उसने अपने सुललित कण्ठ से 'मधुशाला' को सस्वर सुनाना शुरू किया तो सभी श्रोता झूम उठे. नवयुवक विद्यार्थी ही नहीं बड़े-बूढ़े भी झूम उठे. स्वयं मेरे ऊपर भी उसका नशा छा गया था. तब यह सुध कहाँ थी कि उसके दूसरे पहलू की ओर देखता अथवा उसकी पैरोडी करता. बस, स्वर लहरी में लहराना, मद की मस्ती में झूमना और जब हर चौथी पंक्ति के अन्त में मधुशाला का उच्चारण हो तो बरबस गायक के साथ स्वयं भी उसकी आवृत्ति करना; और यह बात प्रायः प्रत्येक श्रोता के साथ थी.
उस शाम बच्चन को सुनकर नवयुवक पागल हो रहे थे. पागल में भी हो रहा था किन्तु वह पागलपन उसी प्रकार का न रहा. यह गिलहरी कुछ दूसरा ही रंग लाई; और वह रंग प्रकट हुआ दूसरे दिन के कवि सम्मेलन में जो केवल 'मधुशाला' का सम्मेलन था- बच्चन का और मेरा सम्मेलन था- 'मधुशाला' का सर्वप्रथम कवि-सम्मेलन-केवल 'मधुशाला' का. बच्चन ने अपनी अनेकानेक रुबाइयाँ सुनाई थीं और मैंने केवल आठ . बच्चन आदि और अन्त में थे और मैं था मध्य में, इंटरवल में, जब सुनते-सुनाते वे थक से गए थे और शीशे के गिलास में सादे पानी से गले की खुश्की मिटा रहे थे.
बात ऐसी हुई कि पहले दिन जब बच्चन ने 'मधुशाला' सुनाई थी तब सम्मेलन में उतने विद्यार्थी न थे जब उनकी शोहरत फैली और अनेकानेक कण्ठों से छात्रावासों में तथा इधर-उधर 'मधुशाला' की मादक पंक्तियाँ निकलने लगीं-हवा में थिरकने लगीं तो जिन लोगों ने न सुना था वे भी पागल हो गए. जिन लोगों ने सुना था वे तो पागल थे ही. बस सभी का आग्रह हुआ कि एक बार फिर बच्चन जी का कविता-पाठ हो केवल बच्चन जी का केवल 'मधुशाला' का .
आर्टस् कॉलेज के उस हाल में, जो कॉलेज भवन की दूसरी मंजिल पर ठीक जीने के पास अवस्थित है जमकर सभा हुई. कहीं तिल भर जगह न थी. कमरे का कोना-कोना तो भरा ही हुआ था, बाहर दरवाज़ों के सामने भी अनेकानेक विद्यार्थी थे ...बच्चन जी ने कविता-पाठ शुरू किया. लड़के झूमने लगे. सभी आत्म-विभोर से थे, किन्तु आखिर इंटरवल की आवश्यकता हुई ही और तब मैंने अपनी चीज़ पेश की, जो शराब के साथ के चखने के समान थी-महज़ जायका बदलने के लिए. लोगों का काफी मनोरंजन हुआ.'
- मनोरंजनप्रसाद
Edited by Manisha Pandey