प्रेमिका के घर के सामने ही हमेशा पंक्चर हो जाती जगजीत सिंह की साइकिल
महान गजल गायक जगजीत सिंह के जन्मदिन पर विशेष.
82 साल पहले आज ही के दिन राजस्थान के गंगानगर में एक निम्नमध्यवर्गीय परिवार में उनका जन्म हुआ. पिता सरकारी कर्मचारी थे, लेकिन संगीत उनकी धमनियों में बहता था. वही खून बेटे को पिता से विरासत में मिला और इस तरह संगीत की यह परंपरा कायम रही. पिता संगीत से प्यार करते हुए भी ताउम्र सरकारी बाबू बने रहे. लेकिन बेटा 24 साल की उम्र में संगीत की दुनिया में नाम रौशन करने की हसरत लिए बंबई चला आया.
मुंबई शहर जितना दिलदार है, उतना ही सितमगर भी. उन्होंने बहुत मुश्किल भरे दिन देखे. ऐसे भी दिन गुजरे कि न जेब में कौड़ी होती, न सिर पर छत. फिर भी उम्मीद पर दुनिया कायम थी. वह आया तो था इस शहर में फिल्मों में अपनी किस्मत आजमाने, लेकिन पेट भरने के लिए पार्टियों और महफिलों में गाने लगा.
उसने बहुत मुश्किलों भरे दिन देखे. लेकिन उन अंधेरे दिनों के बाद बहुत रौशनी भरे दिन भी आए.
एक दिन ऐसा भी आया, जब पूरी दुनिया में उसका नाम हुआ. वह शख्स गजलों की दुनिया का बेताज बादशाह बन गया.
हम बात कर रहे हैं गजल गायक जगजीत सिंह की.
जगजीत सिंह का शुरुआती जीवन
जगजीत जी का जन्म 8 फरवरी, 1941 को राजस्थान के गंगानगर में हुआ था. परिवार यूं तो पंजाब के रोपड़ से ताल्लुक रखता था, लेकिन रोजी-रोटी की तलाश उन्हें राजस्थान ले आई थी. पिता सरकारी कर्मचारी थे. माता-पिता ने अपने बच्चे का नाम यूं तो जीत रखा था, लेकिन बाद में उन्होंने अपना नाम बदलकर जगजीत कर लिया.
उनकी शुरुआती स्कूली शिक्षा गंगानगर से ही हुई थी. उसके बाद कॉलेज की पढ़ाई उन्होंने जालंधर और फिर कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से की.
रगों में बहती संगीत की परंपरा
मौसिकी तो जगजीत सिंह को विरासत में मिली थी. गंगानगर में ही पंडित छगन लाल शर्मा के पास उन्होंने दो साल तक शास्त्रीय संगीत सीखा. फिर सैनिया घराने के उस्ताद जमाल ख़ान साहब के पास जा पहुंचे. वहां ख्याल, ठुमरी और ध्रुपद की बारीकियां समझीं.
देश के सभी पारंपरिक पिताओं की तरह उनके पिता भी चाहते थे कि बेटा आईएएस बने. संगीत से उन्हें प्रेम तो था, लेकिन ये यकीन नहीं था कि संगीत किसी का कॅरियर भी हो सकता है. इसलिए जब जगजीत ने पहली बार घर में ऐलान किया कि वो प्लेबैक सिंगर बनने बंबई जाना चाहते हैं तो घर में मानो तूफान ही फट पड़ा था.
पिता की मर्जी के खिलाफ वे बंबई पहुंच तो गए लेकिन यहां जिस सपने के साथ आए थे, उसे हासिल करने में एक अरसा लग गया. शुरू-शुरू में शादी, ब्याह, पार्टियों में गाना गाकर, विज्ञापनों के जिंगल गाकर उन्होंने अपना खर्च चलाया.
दास्तान मुहब्बतों की
जिसकी आवाज में इतनी मुहब्बत और दर्द हो, उसकी अपनी जिंदगी भी मुहब्बत की दास्तानों से खाली नहीं था. जालंधर में कॉलेज के समय ही एक लड़की बड़ी अच्छी लगती थी, लेकिन कभी कहने की हिम्मत नहीं हुई. साइकिल से कॉलेज जाते हुए हर बार उस लड़की के घर के सामने ही साइकिल की चेन उतर जाती या टायर की हवा निकल जाती. इस उम्मीद में कि क्या पता उसकी एक झलक देखने को मिल जाए. ये मुहब्बत बस यूं ही दूर-दूर से देखा-देखी तक ही सिमटकर रह गई.
फिर वक्त का पहिया घूमा और जगजीत बंबई आ गए. यहां उनकी मुलाकात चित्रा से हुई. चित्रा ब्रिटानिया कंपनी के बड़े अधिकारी देबू प्रसाद दत्ता की बीवी थीं और उनकी एक बेटी भी थी. वह जगजीत के संघर्ष के दिन थे. एक रिकॉर्डिंग स्टूडियो में दोनों की पहली मुलाकात हुई. चित्रा की शादी पहले ही मुश्किल दौर से गुजर रही थी. दोनों एक दूसरे के करीब आ गए और उन्होंने शादी कर ली.
दुख की ऐसी गाज किसी दुश्मन पर भी न गिरे
जगजीत सिंह की जिंदगी का सबसे मुश्किल दौर वह था, जब उनके बेटे की अचानक एक कार एक्सीडेंट में मौत हो गई. उसकी उम्र सिर्फ 20 बरस थी. इस हादसे का पति-पत्नी दोनों पर बहुत गहरा असर हुआ. पत्नी चित्रा ने तो उस हादसे के बाद गाना ही छोड़ दिया. जगजीत सिंह की भी बाकी की बची उम्र उस सदमे से बाहर निकलने में ही गुजर गई.
एक साल तक संगीत से दूर रहे. एक साल बाद धीरे-धीरे संगीत की ओर वापसी की शुरुआत हुई भी तो एक और हादसे न उनकी बची-खुची उम्मीद भी छीन ली. उनकी बेटी ने आत्महत्या कर ली. उसके बाद तो वह आध्यात्म की ओर मुड़ गए. ईश्वर में अपने दुखों से निजात की राह ढूंढने लगे. उससे अपने अनसुलझे सवालों के जवाब मांगने लगे. लेकिन जवाब मिलता तो तब जब कोई जवाब होता.
जीवन के अंतिम दिनों में इतने सारे मुश्किलात का सामना करने वाले जगजीत सिंह काफी बीमार रहने लगे थे. आखिरकार 10 अक्तूबर, 2011 को वह इस फानी दुनिया को विदा कह गए. ये संगीत की दुनिया की ऐसी क्षति थी, जिसकी भरपाई मुमकिन नहीं थी.
लेकिन जैसेकि वो गीत है न, “नाम गुम जाएगा, चेहरा भी बदल जाएगा, मेरी आवाज ही पहचान है, गर याद रहे.” तो जगजीत सिंह की पहचान उनकी आवाज ही थी और वो आवाज आज भी हमारे जेहन में, हमारी स्मृतियों में जिंदा है.
उनकी आवाज में मिर्जा गालिब को सुनते हुए लगता है कि वक्त जितना गुजरता है, उतना ही शायद नहीं भी गुजरते. न गालिब कहीं गए, न जगजीत सिंह. एक अपने शब्दों और दूसरा अपनी आवाज में आज भी हमारे साथ, हमारे बीच मौजूद है.
Edited by Manisha Pandey