भारत में किन लोगों को मौत की सजा नहीं दी जा सकती और क्यों
"राज्य को प्रतिशोध के साथ दंडित नहीं करना चाहिए." सम्राट अशोक
"राज्य को प्रतिशोध के साथ दंडित नहीं करना चाहिए." सम्राट अशोक
मृत्युदंड अनादि काल से सजा का एक तरीका रहा है. राज्य कानून और सार्वजनिक व्यवस्था के नाम पर जीने के अधिकार को छीन या कम तो कर सकता है, लेकिन इंसान के जीवन को छीनने वाली प्रक्रिया न्यायपूर्ण और उचित हो इसकी गारंटी करने को बाध्य है.
इसलिए अपराध और साथ ही अपराध से निपटने के लिए सजा का तरीका किसी भी संस्कृति और सभ्यता का परिचायक होते हैं. इसलिए ही, सभ्यता की प्रगति के साथ, मृत्युदंड के अमानवीय और बर्बर तरीके से थोड़े मानवीय सोच की तरफ तरक्की करते दिखते हैं. हालांकि, मृत्यदंड के पक्ष और विपक्ष को लेकर तर्क ज्यादा नहीं बदले हैं. खासकर, भारत में इस पर ज्यादा बहस नहीं हुई है.
क्या होता है मृत्युदंड
मृत्युदंड, कैपिटल पनिशमेंट, डेथ पेनाल्टी जो मौत की सजा होती है, किसी अपराधी को उसके आपराधिक अपराध के लिए कानून की अदालत द्वारा दोषी ठहराए जाने के बाद दी जाती है.
भारत में मृत्युदंड का प्रावधान
भारत के आज़ाद होने के बाद उसकी कानूनी प्रक्रिया में हत्या के लिए मौत की सजा का प्रावधान था. हालांकि, 1947 और 1949 के बीच भारतीय संविधान के ड्राफ्टिंग के दौरान संविधान सभा के कई सदस्यों द्वारा मृत्युदंड को समाप्त करने का विचार व्यक्त किया गया था, लेकिन यह बरकरार रखा गया.
अगले दो दशकों में, मृत्युदंड को खत्म करने के लिए, निजी सदस्यों के बिल लोकसभा और राज्यसभा दोनों में पेश किए गए, लेकिन उनमें से कोई भी पास नहीं हुआ.
1980 के बचन सिंह के लैंडमार्क फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि मौत की सजा का इस्तेमाल केवल “दुर्लभतम” मामलों (rarest of the rare cases) में ही किया जाना चाहिए. हालांकि, ऐसे मामलों में दुर्लभतम को डीफाइन करना एक पेंचीदा और कठिन काम है.
मृत्युदंड किन-किन के लिए माफ़?
इसके अलावा एक और महत्त्वपूर्ण बहस यह रही कि क्या जघन्य अपराध के लिए 18 वर्ष से कम की आयु के अपराधी को मृत्युदंड देना उचित है? इस सोच के पीछे का तर्क है कि बच्चे अपने कार्यों के लिए वयस्कों की तरह दोषी नहीं हैं.
अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून ने अपराध के समय 18 वर्ष से कम उम्र के लोगों के खिलाफ मृत्युदंड के उपयोग पर लंबे समय से प्रतिबंध लगा दिया है. भारत में, सुप्रीम कोर्ट ने साल 2005 में किशोरों के लिए मौत की सजा के प्रावधान को असंवैधानिक करार देते हुए अपराध करने के समय 18 वर्ष से कम आयु के नाबालिग को मृत्युदंड नहीं दिए जाने का फैसला सुनाया. क्योंकि उनका मानना था कि जो कोई वयस्कता तक नहीं पहुंचा है उसमें सुधार की गुंजाइश है और वह सही वातावरण और शिक्षा के बदौलत अपनी गलतियों से सीखने में सक्षम हो सकता है.
किशोर न्याय अधिनियम (2015) (Juvenile Justice Act) के रूप में एक ऐसा क़ानून है, जो केवल नाबालिगों से जुड़ी स्थितियों में लागू किया जाता है.
इसके अलावा, भारतीय क़ानून में गर्भवती महिलाओं को उन अपराधियों की सूची में जोड़ा गया जिन्हें मृत्युदंड से बाहर रखा गया है. सुनवाई के दौरान अगर उच्च न्यायालय को पता चलता है कि मौत की सजा पाने वाली महिला गर्भवती है तो ऐसी सजा को स्थगित किया जा सकता है या आजीवन कारावास में बदला जा सकता है. इसके पीछे तर्क यह है कि प्रेग्नेंट महिला की अपराध की सजा की वजह से उसके गर्भ में पल रहे बच्चे की ज़िन्दगी भी ख़त्म हो जाती है.
कानून के अनुसार, बौद्धिक रूप से अक्षम व्यक्तियों को भी मृत्यदंड की सजा से बाहर रखा गया है. तर्क है कि ऐसे लोग अपने अपराध की गंभीरता या उसके परिणामों को समझाने में असमर्थ होते हैं इसलिए उन्हें इतनी कड़ी सजा नहीं दी जा सकती.
Edited by Prerna Bhardwaj