ट्रांसजेंडर अधिकार: सियासत में अप्सरा के संघर्ष को मिला नया मुकाम
यह किसी एक ट्रांसजेंडर की दास्तान नहीं, उस समूचे समुदाय का दर्द है, जिसको अप्सरा रेड्डी, लक्ष्मी त्रिपाठी आदि सांगठनिक और राजनीतिक हैसियत से मुखर कर रही हैं।
'ट्रांसजेंडर' उदाहरण के साथ मुगलसराय (उत्तर प्रदेश) से भाजपा विधायक साधना सिंह ने बसपा प्रमुख मायावती पर एक अप्रिय टिप्पणी की है- 'हमको पूर्व मुख्यमंत्री न तो महिला लगती हैं और न ही पुरुष। इनको अपना सम्मान ही समझ में नहीं आता। एक चीरहरण हुआ था द्रौपदी का, तो उन्होंने दुःशासन से बदला लेने की प्रतिज्ञा ली। वो एक स्वाभिमानी महिला थीं। और एक आज की महिला है, सबकुछ लुट गया और फिर भी कुर्सी पाने के लिए अपने सारे सम्मान को बेच दिया। ऐसी महिला मायावती जी का हम इस कार्यक्रम के माध्यम से तिरस्कार करते हैं। जो नारी जात पर कलंक हैं। जिसे भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने लुटने से बचाया, उस महिला ने सुख-सुविधा, अपने वर्चस्व को बचाने के लिए अपमान को पी लिया।'
उनकी इस टिप्पणी का अंश - 'न तो महिला लगती हैं और न ही पुरुष' हर किसी को नागवार गुजरा है। यह ताज़ा वाकया तो प्रसंगवश है। इसका आशय जुड़ा ट्रांसजेंडर्स की पहचान के उस दर्द से, जिसे पढ़े लिखे लोग भी घटिया उपमान की तरह प्रायः इस्तेमाल किया करते हैं। सामाजिक उपेक्षा का यही दंश अप्सरा रेड्डी को भी सालता रहता है। विदेशों में उच्च शिक्षा प्राप्त ट्रांसजेंडर अप्सरा रेड्डी पूर्व पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और सक्रिय राजनेता हैं। इस समय वह अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव बन गई हैं। वह कहती हैं- 'हम ट्रांसजेंडर महिलाएं हर रोज एक महिला बनने और एक महिला के तौर पर ही पहचाने जाने की लड़ाई लड़ रही हैं। वह स्वयं ऐसी किसी जगह काम नहीं करना चाहती हैं, जहां उन पर लोग तरस खाते हों।'
उल्लेखनीय है कि वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, हमारे देश में करीब पांच लाख लोग ट्रांसजेंडर के रूप में पंजीकृत हैं। समाज में अकसर इस समुदाय के लोगों को भेदभाव, झिड़कियां, अपमान झेलना पड़ता है। ज्यादातर लोग भिखारी या सेक्सकर्मी के रूप में अपनी जीविका चलाने को मजबूर हो जाते हैं। बचपन में आर्थिक समस्याओं का सामना करने वाली अप्सरा ने शिक्षा को अपनी ढाल बनाया। पढ़ाई पर खूब ध्यान दिया और मेधावी होने के कारण स्कूल के आगे की पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति पाई। पहले ऑस्ट्रेलिया और फिर लंदन में पढ़ीं। उन्होंने कुछ समय तक मीडिया में पत्रकारिता भी की। फिर उनके जीवन की दिशा राजनीति की ओर मुड़ गई। वह सबसे पहले भाजपा, फिर एआईएडीएमके के साथ जुड़ गईं। उन्हें वहां भी ट्रांसजेंडर के मसलों को लेकर अपेक्षित संभावना नहीं दिखी तो कांग्रेस के साथ चल पड़ी हैं। आज वह देश की सबसे पुरानी पार्टी की राष्ट्रीय सचिव हैं।
उच्च शिक्षा प्राप्त अप्सरा कहती हैं कि समाज के लिए कुछ बड़ा और बेहतर करने के लिए और सामाजिक नीतियों को प्रभावित करने वाले थिंक टैंक में शामिल होने के लिए राजनीतिक मंच पर उतरना बहुत जरूरी है। नए जमाने की सोच को राजनीति में लाकर उससे समाज में असली बदलाव लाने का मौका भी यहीं है। कई बार ऐसा होता है, जैसा कि आज हम देखते हैं कि महिलाओं, ट्रांसजेंडर और एक खास धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ दकियानूसी नीतियां व्याप्त हैं। हमें राजनीति में इसके खिलाफ मुखर लोगों की जरूरत है। उन्होंने सोचा कि क्यों न राजनीति में जाया जाए। वह बताती हैं कि वर्ष 2016 में उनको भाजपा से एक पुरस्कार मिला था। इसी सिलसिले में उनकी मुलाकात भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और कुछ अन्य लोगों से हुई लेकिन भाजपा में जाने के दो हफ्तों के भीतर उन्होंने विचारों में मतभेद के कारण पार्टी को छोड़ने का फैसला किया।
अप्सरा कहती हैं कि उन्हें जयललिता की पार्टी (एआईएडीएमके) से बुलावा मिला। उन्हे पार्टी का आधिकारिक प्रवक्ता बना दिया गया। ऐसे उस पार्टी ने मुझे रास्ता दिखाया और अपनी पार्टी, फिर अपनी सरकार की ओर से नेशनल टेलीविजन पर जाकर अपना पक्ष रखने का मौका मिला। राजनीति में प्रवेश के साथ ही जैसा प्यार उन्हे लोगों ने दिया, उससे उनका संघर्ष थोड़ा आसान हुआ। जयललिता की मौत के बाद एआईएडीएमके में काफी आंतरिक खींचतान होने लगी थी, तभी एक कार्यक्रम के दौरान उनकी मुलाकात अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की अध्यक्ष सुष्मिता देव से हुई। उनसे बढ़िया बातचीत हुई और फिर एक दिन राहुल गांधी से मुलाकात और फिर यह पद संभालने तक वह आ पहुंची हैं।
गौरतलब है कि प्रयागराज (इलाहाबाद) में इन दिनो चल रहे कुंभ मेले में ट्रांसजेंडर समाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी की अगुवाई में किन्नर अखाड़े को शामिल किए जाने से भारी भीड़ आकृष्ट हो रही है। प्रयागराज में प्रसिद्ध भरतनाट्यम नृत्यांगना एवं हिंदी फिल्मों में भी काम कर चुकीं त्रिपाठी की अगुवाई में किन्नर अखाड़े के सदस्य जूना अखाड़े के पुरुष साधुओं के साथ लंबे जुलूस में शामिल होकर पवित्र संगम पहुंचे। इससे पहले यहां अधिकतर पारंपरिक नियमों का पालन किया गया। ट्रांसजेंडर समुदाय के प्रतिनिधियों ने मकर संक्रांति के मौके पर पवित्र डुबकी लगाई और 'हर-हर महादेव' के जयघोष से पूरा क्षेत्र गुंजायमान हो उठा। इस ऐतिहासिक क्षण का गवाह बनने के लिए सैकड़ों श्रद्धालु जमा हुए थे।
लक्ष्मी त्रिपाठी का कहना है कि हमारे धार्मिक ग्रंथ बताते हैं, प्राचीन भारत में ट्रांसजेंडर को कितना महत्व दिया गया था। वह निश्चिंत हैं कि यहां ज्यादा स्वतंत्रता और लोगों के बीच स्वीकार्यता के आह्वान से हमारे समुदाय के लोगों का उत्साह बढ़ा है। पवित्र डुबकी भारत में हमारे समुदाय के लोगों के लिए नए युग की शुरुआत है। हमारे समुदाय के लिए नौकरी एक सबसे बड़ी समस्या है। नियोक्ता अभी भी ट्रांसजेंडरों को नौकरियां देने से कतराते हैं। ऐसे में शैक्षणिक संस्थानों को भी स्कूलों और कॉलेजों में स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए उदारता दिखाने की जरूरत है।
ट्रांसजेंडर पर्सन्स (प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट्स) बिल, 2016 को लेकर भी ट्रांसजेंडर विचलित हैं। उनका कहना है- 'हमें ज़िंदगी भर क्या कम तकलीफ़ और बेइज़्ज़ती झेलनी पड़ती है जो अब स्क्रीनिंग कमेटी के सामने कपड़े उतारकर अपने ट्रांसजेंडर होने का सबूत दें?' संसद में यह विधेयक लाया तो गया 'थर्ड जेंडर' को उनका हक़ और इंसाफ़ दिलाने के लिए, लेकिन इस समुदाय का कहना है कि इसके बुनियादी ढांचे में ही गड़बड़ी है। बिल में 'ट्रांसजेंडर' शब्द की परिभाषा ही ग़लत है। साल 2015 के फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कई अच्छे सुझाव दिए थे लेकिन ट्रांसजेंडर बिल में उनमें से शायद ही कोई सुझाव शामिल किया गया है।
सरकार शायद ये समझ ही नहीं पा रही है कि ट्रांसजेंडर है कौन। उनका सवाल है कि अगर ट्रांसजेंडर की सही पहचान ही नहीं हो पा रही है तो उनके लिए कायदे-क़ानून कैसे बना दिए गए? एलजीबीटी समुदाय के काम करने वाली संस्था हमसफ़र ट्रस्ट की ऐडवोकेसी मैनेजर कोनिनिका रॉय कहती हैं कि ट्रांसजेंडर वो शख़्स है, जो अपने निर्धारित जेंडर के साथ सहज नहीं है। लगता है सरकार ट्रांसजेंडर और इंटरसेक्स में बुरी तरह कंफ्यूज़ है।
अप्सरा कहती हैं कि हमेशा से लोग ट्रांसजेंडर, एलजीबीटी समुदाय के लोगों, और खासकर ट्रांसजेंडर महिलाओं को लेकर टिप्पणियां करते, उल्टे पुल्टे नाम देते और बुरी बुरी बातें बोलते आए हैं। मुझसे भी कई बार पूछा जाता था, क्या आप मेकअप आर्टिस्ट हैं या फिर फैशन डिजाइनर। किसी ने तो यह भी पूछा था कि क्या आप शादियों में डांस करती हैं। मुझे भी हर तरह के अजीब और घिसेपिटे सवालों का सामना करना पड़ा। अब वक्त आ गया है कि यह धारणा टूटे और मेरे जैसे लोग कह सकें कि मैं अंतरिक्षयात्री भी बन सकती हूं, सांसद भी और सबसे बड़े राजनीतिक दल की राष्ट्रीय महासचिव भी।
एक ट्रांजेंडर महिला को मुख्यधारा की महिला पार्टी में इस तरह लेना असल पहचान दिया जाना है। उनका मानना है कि आम जनता से उतनी समस्या नहीं है, जितनी गलत धारणा और भटके हुए मुद्दों वाले नेताओं से है। अब भी बहुत सी जगहें हैं, जो एलजीबीटी या ट्रांस व्यक्तियों के लिए ठीक नहीं हैं। जब कभी इन समुदायों के लोगों को काम करने या रोजगार का मौका दिया भी जाता है तो वह दया और तरस की भावना से ओतप्रोत होता है।
इस स्थिति में होना कोई अच्छी बात नहीं। मैं तो ऐसे किसी ऑफिस में काम नहीं करना चाहूंगी, जहां मुझपर लोग तरस खाते हों। हम चाहते हैं कि सबको बराबरी का दर्जा मिले। यह देखा जाए कि किसी इंसान में क्या गुण हैं, वह क्या कुछ कर सकता है। वो चाहे आदमी हो, औरत हो या कुछ और, जब उसकी लैंगिक पहचान से ऊपर उठ कर उसे देखा जा सकेगा, तभी काम पूरा होगा। इस तरह की बराबरी हासिल करने के लिए अभी बहुत लंबा सफर करना बाकी है।
यह भी पढ़ें: दो साल पहले खोया था मां को, पिता से मिले हौसले से टॉप किया IIT-JEE