टिंडर पर 'मैच' नहीं मिला तो वजह आपकी शकल नहीं, डेटिंग साइट का ये गणित है
लड़कों को क्यों नहीं मिलता 'राइट स्वाइप'?
"मैं साल 2017 से टिंडर इस्तेमाल कर रहा हूं. इतने साल से मुंबई में हूं और एक भी मैच नहीं मिला. जबकि मैं सभी प्रोफाइल्स पर राइट स्वाइप करता हूं. मैं बीच में बेंगलुरु और पुणे भी गया. वहां भी सफलता हाथ नहीं लगी. यही हाल बंबल का भी है.
मेरे सोशल सर्कल में बेहद हॉट, सेक्सी और खूबसूरत लड़कियां हैं लेकिन टिंडर पर एक भी नहीं मिलतीं. अब मैं 29 का हो रहा हूं, टिंडर के भरोसे नहीं रह सकता. घरवाले चाहते हैं अब शादी कर लूं."
ये शब्द किसके हैं, ये जानना उतना ज़रूरी नहीं है, जितना ये समझना कि यहां शहरों के नाम इधर-उधर भर कर दिए जाएं तो ये देश के किसी भी शहरी युवा पुरुष की कहानी हो सकते हैं, जो डेटिंग में रुचि रखता हो और जिसके फ़ोन में टिंडर या अन्य डेटिंग ऐप हों. फिलहाल ये जान लें कि साल 2021 में 'कोरा' पर पूछे गए एक सवाल के जवाब में एक शख्स ने अपनी पहचान को गुप्त रखते हुए ऐसा लिखा था.
ये दिलजला, या यूं कहें कि टिंडर का जला अपने दिल में इतनी नफरत पाल चुका है कि हर लड़की जो उसे प्रेम के लायक लगती है, अपनी दुश्मन भी लगती है.
"लड़कियां गोरे और लंबे लड़कों से फंसती हैं."
"लड़कियां पैसे वाले लड़कों से फंसती हैं."
"लड़कियां चरित्र के बुरे लड़कों से फंसती हैं."
लड़कियों का 'फंसना' अपने आप में एक ऐसी छवि गढ़ता है जैसे वे कोई मूर्ख, अबोध प्राणी हों जिनका भक्षण किया जाना चाहिए. जैसे खाने के लिए फंसाई गई मछली. इसपर तमाम पूर्वाग्रहों का होना, जैसे कि वो लड़कों की सादगी के बजाय उनका रूप, पैसे या ग्रोथ प्रॉस्पेक्ट्स देखकर मोहब्बत करती हैं, एक अन्य कहानी है.
कोरा पर हज़ारों शब्द का जवाब लिखने वाला ये शख्स आगे लिखता है, "भारतीय लड़कियां ऐसी ही होती हैं. मेरी एक लेडी मैनेजर इंडियन लड़कों की तरफ नहीं देखती थी लेकिन विदेश से आए एक सहकर्मी को खुद को कैसे भी छूने का मौका देती थी. वैसे मैं उसे छूता तो मेरे ऊपर यौन शोषण के आरोप लग जाते.”
यौनिकता को ज़ाहिर करने के अधिकारों और साधनों की कमी के बीच भारतीय पुरुष अपने स्त्रीविरोध का हाथ थामे डेटिंग साइट्स पर आकर ज़रा और जल जाता है, कुंठा से भर जाता है.
ये एक माना हुआ सत्य है कि टिंडर पर लड़कों को उतने स्वाइप नहीं मिलते जितने लड़कियों को मिलते हैं. इसकी एक मानी हुई वजह भी ये है कि लड़कों की दुनिया में प्रेम और सेक्स के हिस्से की धरती सूखी पड़ी है जबकि लड़कियों के पास इसकी उपलब्धता ऐसी है कि वे जिसे चाहें उसे ही अपने वश में कर सकती है
लड़की का चक्कर बाबू भैया. अनामिका तू भी तरसे. आज रुसवा तेरी गलियों में मोहब्बत होगी. बेवफाई के 101 गीत की प्लेलिस्ट भी इस आग को नहीं बुझा सकती. बुझा सकता है तो बस किसी की कोमल उंगलियों का एक राइट स्वाइप.
क्यों नहीं मिलता मुझे राइट स्वाइप?
अगर आप ये सवाल गूगल पर सर्च करेंगे तो हज़ारों आर्टिकल्स मिलेंगे जो इसका जवाब दे रहे होंगे. ऐसे कई आर्टिकल्स को पढ़कर पता लगता है कि एक्सपर्ट्स का जोर मुख्यतः तस्वीरों पर है. "सेल्फी के बदले लड़कों को अच्छी लाइट में किसी और से खिंचवाकर फोटो डालनी चाहिए", एक स्वघोषित टिंडर एक्सपर्ट लिखते हैं. वे आगे कहते हैं, "चेहरे पर नहीं, पर्सनालिटी पर काम करें. ओवरऑल हॉट लगना ज़रूरी है."
27 साल की संजना (बदला हुआ नाम), जो दिल्ली में रहती हैं और पेशे से एक मीडियाकर्मी हैं, से मैंने पूछा कि राइट स्वाइप करते हुए वो क्या देखती हैं. उनका जवाब था, "बायो देखकर ही आधे से ज्यादा को रिजेक्ट कर देने की इच्छा करती है. अक्सर वे बेहद घटिया पिकअप लाइन्स इस्तेमाल करते हैं. बॉडी-वॉडी, फोटो, सब ठीक होता है. लेकिन कुछ स्टुपिड लिखा हुआ देखकर उनका भेद खुल जाता है."
वो आगे बताती हैं, "सबको लगता है एक ही फ़ॉर्मूला काम करेगा. DSLR कैमरा के साथ अपनी फोटो डाल दो, जिम से एक फोटो डाल दो, एक फोटो क्यूट से कुत्ते के साथ डाल दो और 'वॉन्डरलस्ट' जैसे दो-चार कीवर्ड ठूंस दो तो लड़की राइट स्वाइप कर देगी. लेकिन ऐसा नहीं होता."
इंटरनेट पर एकाधिक लड़कियां ये बताती हैं कि लड़के अपने 'बायो' पर ध्यान देना ज़रूरी नहीं समझते. चूंकि वे एफर्ट नहीं डालना चाहते, लड़कियों को आश्वस्त महसूस नहीं होता.
29 साल की प्रतिज्ञा (बदला हुआ नाम) बताती हैं, "जब बायो देखकर ठीक फील नहीं होता तो डर बना रहता है. कि बातचीत कैसी जाएगी. मैंने देखा है लड़के अक्सर पुशी हो जाते हैं. कि मिल लो, मिल लो, एक बार मिल लो! इसलिए लगता है कि प्राइमरी लेवल पर ही फ़िल्टर कर दिया जाए."
टिंडर का उपयोग करने वाली अधिकतर लड़कियां बड़े ही सपाट शब्दों में कहती पाई जाती हैं कि टिंडर पर एक 'अच्छा' लड़का मिलना कचरे में हीरा ढूंढने जैसा है. वहीं लड़कों के लिए मामला ऐसा है कि सैकड़ों स्वाइप के बीच मैच मिलना ही अपने आप में बड़ी बात है. ये कहा जा सकता है कि टिंडर जैसी डेटिंग साइट्स पर लड़के और लड़कियों के मिनिमम बेसिक ही अलग हैं.
मिनिमम बेसिक अलग होने की वजह समझने के पहले हमें ये समझना ज़रूरी है कि लड़के और लड़कियां कैसे, या यूं कहें कि कितने अलग-अलग माइंडसेट के साथ टिंडर पर आते हैं. जब टिंडर पर एक लड़का अकाउंट बनाता है तो उसे इस बात का डर नहीं होता कि टिंडर की दुनिया के बाहर किसी को पता चला कि वो 'डेटिंग' के लिए उपलब्ध है तो उसके लिए किस तरह की बातें कही जाएंगी. एक भारतीय लड़की का टिंडर पर होना ही अपने आप में उसे भारतीय समाज में 'लूज़' और 'अवेलेबल' बना देता है. इसलिए ये आश्चर्यजनक नहीं है कि भारत में टिंडर के लॉन्च के बाद कुल यूजर्स में तीन-चौथाई पुरुष रहे.
पुरुष बनाम महिला
समय के साथ ये रेशियो बेहतर हुआ है. स्टेटिस्टा द्वारा जारी किए गए डेटा के मुताबिक़ साल 2021 में टिंडर के 62% यूजर्स पुरुष थे और 38% महिलाएं. लेकिन आज भी ये 50-50 के आदर्श रेशियो से बहुत पीछे है. नील्सन की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, साल 2021 में इंडिया के कुल इंटरनेट यूजर्स में 33% ही महिलाएं हैं. सिर्फ शहरों का रुख करें ये तो संख्या बढ़कर 38% हो जाती है. सोशल मीडिया साइट्स और डेटिंग साइट्स इसी कहानी का एक चैप्टर हैं.
टिंडर ने कभी आधिकारिक तौर पर अपना यूजर डेटा रिलीज नहीं किया है. लेकिन 2014 में न्यू यॉर्क टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में टिंडर सीईओ शॉन रैड कहते हैं, "टिंडर पर मौजूद पुरुष अपने सामने मौजूद ऑप्शन्स में 46% को राइट स्वाइप करते हैं. जबकि महिलाएं केवल 14% को करती हैं."
कुछ रिपोर्ट्स की मानें तो वैश्विक स्तर पर भी टिंडर के 60% यूजर पुरुष ही हैं.
रिजेक्शन एंग्जायटी बनाम साइबर अब्यूज
इस आर्टिकल की शुरुआत में जिस अनाम शख्स की बात साझा की गई है, उसके भीतर के स्त्री-विरोध और कुंठा शायद इसी बात से जन्मते है कि टिंडर पर कई साल गुज़ारने के बावजूद उसे कोई राइट स्वाइप नहीं मिले. उसे लगता है कि इसकी वजह उसकी शक्ल-ओ-सूरत है.
टिंडर के आधिकारिक डेटा के मुताबिक़ प्लेटफ़ॉर्म का मैच रेट 1.8% है. यानी हर 100 स्वाइप पर 2 से भी कम मैच बनते हैं.
30 साल के एक मार्बल व्यवसायी, जो पुणे में रहते हैं, कहते हैं, "मैच मिल भी गया तो एक बार में भरोसा नहीं किया जा सकता. कई बार डर और हिचक के चलते गे पुरुष लड़कियों के नाम से आईडी बनाते हैं. उनकी गलती नहीं है, लेकिन इस मैच के एक हेट्रोसेक्शुअल लड़के के लिए मायने नहीं रह जाते हैं. कई बार मैच हुए अकाउंट सेक्स वर्कर्स के निकलते हैं और आपको ठगा हुआ महसूस होता है.”
सी-नेट से हुई एक बातचीत में यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया में सोशियोलॉजी के असिस्टेंट प्रफेसर केविन लुइस टिंडर के इस ट्रेंड के बारे में कहते हैं, "ऑनलाइन डेटिंग प्लेटफ़ॉर्म एक कम्पटीशन को जन्म देते हैं. कि जो सबसे ज्यादा खूबसूरत दिखेगा उसके पीछे बाक़ी दीवाने हो जाएंगे. इस तरह सामाजिक परिभाषाओं के मुताबिक़ 'आकर्षक' दिखने वाले लोगों का टिंडर जैसे प्लेटफ़ॉर्म पर दबदबा हो जाता है. प्लेटफ़ॉर्म के टॉप परसेंटाइल के पास बल्क मैचेस होते हैं."
लुइस आगे कहते हैं, "कई पुरुषों के लिए ये कॉन्फिडेंस इशूज, कुंठाएं और निराशा लेकर आता है."
मगर पुरुषों की हताशा के बरक्स महिलाओं के मसलों पर नज़र डालना भी ज़रूरी है.
प्लान इंटरनेशनल की साल 2020 की रिपोर्ट कहती है कि पूरी दुनिया में 60 फीसदी लड़कियां और महिलाएं ऑनलाइन अब्यूज का शिकार होती हैं. इस रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में हर पांचवी लड़की पुरुषों की गालियों, अश्लील टिप्पणियों और अभद्र व्यवहार की वजह से सोशल मीडिया से दूरी बना लेती है.
जेसिका रुआन अपनी किताब 'विनिंग लव ऑनलाइन' में लिखती हैं कि ऑनलाइन डेटिंग प्लेटफ़ॉर्म्स पर रजिस्टर करने वाली महिलाओं में कुल 42% ऐसी हैं जिन्होंने कभी न कभी अब्यूज की शिकायत की है. जो लड़की समाज के तय नियमों को पारकर डेटिंग ऐप तक पहुंच भी गई है, उसे भी इस बात का डर लगा रहता है कि अगला उसे मैसेज पर अब्यूज कर सकता है, नग्न तस्वीरें भेज सकता है.
टिंडर की एक्स फाउंडर विटनी वुल्फ़ ने जब टिंडर से अलग होकर ‘बंबल’ शुरू किया, तो इसी विचार के साथ किया कि लड़कियों को इतना तो अधिकार मिलना ही चाहिए कि वे जब किसी डेटिंग ऐप पर जाएं तो कम से कम उन्हें डरना न पड़े. बंबल औरतों को इस मामले में सशक्त करता है कि पुरुष और महिला के बीच मैच हो जाने के बाद पहला मैसेज महिला ही भेज सकती है.
'द प्रिंट' से हुई एक बातचीत में दो अलग-अलग लड़कियों ने अपने डेटिंग अनुभव साझा किए. जहां एक रेप का शिकार हुई मगर डर के चलते किसी से शिकायत न कर पाई, वहीं दूसरी को बार-बार रिक्वेस्ट करने के बावजूद अनप्रोटेक्टेड सेक्स का हिस्सा बनना पड़ा.
देश-दुनिया से ऐसी ख़बरें आने के बाद किसी भी महिला के लिए राइट स्वाइप के साथ सहज होना आसान नहीं है.
एल्गॉरिदम
आधिकारिक तौर पर टिंडर ने कभी अपने एल्गॉरिदम के बारे में कोई भी जानकारी साझा नहीं की है. लेकिन कुछ अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारों की रीसर्च से पता लगता है कि ये असल में कैसे काम करता है. 'फ़ास्ट कंपनी' के पत्रकार ऑस्टिन कार के एक आर्टिकल के बाद ये बात चर्चा में आई कि टिंडर एक 'ईलो स्कोर' (elo) पर काम करता है. ईलो एक सिस्टम है जो चेस के खेल में रैंकिंग के लिए इस्तेमाल होता है. टिंडर का एल्गो दो आधार पर आपकी रैंकिंग ऊपर करता है. एक, आपको कितने लोगों ने राइट स्वाइप किया. दूसरा, जिन लोगों ने आपको राइट स्वाइप किया है, उसके पास खुद कितने राइट स्वाइप हैं. ऑस्टिन कार लिखते हैं कि टिंडर एक तरह के स्कोर वालों को एक दूसरे की रेकमेंडेशन भेजता है. कुल मिलाकर, ये टिंडर पर ज्यादा 'आकर्षक' दिखने वाली प्रोफाइल्स को मिलाता रहता है.
हालांकि 2019 में टिंडर ने अपने आधिकारिक ब्लॉग में छापा कि 'ईलो' का इस्तेमाल नहीं होता है और टिंडर आधुनिक टेक्नोलॉजी पर काम करता है. कुल मिलाकर, टिंडर ने खुद को इस आरोप से अलग कर लिया कि वहां 'औसत' दिखने वाले लोग अपने लिए डेट नहीं खोज सकते.
लेकिन एक ऐसा प्लेटफ़ॉर्म जहां किताब को उसके कवर से ही जज किया जाना है, लुक्स एक प्राइमरी फ़िल्टर की तरह काम करते ही रहेंगे.
संजना कहती हैं, "भले ही लुक्स देखकर स्वाइप करूं, लेकिन किसी को जज तो बातचीत के बाद ही कर सकते हैं. बंदे से सही फीलिंग भी आना ज़रूरी है. यू डोंट वॉन्ट टू एंड अप ऑन अ डेट विद अ क्रीप!"
लोगों की रैंकिंग करती एक मशीन और तमाम फ़ेक आईडीज़ के बीच लड़कियों के पास फूंक-फूंककर कदम रखने के आलावा कोई चारा नहीं बचता है.
पुरुषों को कम राइट स्वाइप मिलना असल में उनकी शक्ल-ओ-सूरत का दोष नहीं बल्कि एक गंभीर मामला है जिसकी जड़ें हमारी सामजिक बुनियाद में हैं.