अव्यवस्था और दुर्व्यवस्था के दरम्यान प्राथमिक शिक्षा की कदमताल
लगातार कम होती शिक्षार्थियों की संख्या इस बात की तस्दीक करती है कि परिषदीय स्कूलों में वजीफा, मिड-डे मील के साथ फल और पौष्टिक आहार देने के नुस्खे भी कारगर नहीं साबित हो रहे हैं।
आखिर जब यूनिफार्म से लेकर भोजन तक, वजीफे से लेकर किताबों की सुविधा सरकार देती है तो फिर पिछले चार साल में छात्रों की संख्या में करीब सात लाख की कमी दर्ज होना क्या संकेत देता है?
उत्तर प्रदेश में लड़कों की प्राथमिक शिक्षा पूरी करने की दर जहां 50 प्रतिशत है वहीं लड़कियों की दर सिर्फ 27 फीसदी ही है, जिसमे वंचित समूह की केवल 10.4 प्रतिशत बालिकाएं ही अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी कर पाती हैं।
हालात तो यहां तक खराब हैं कि 2978 विद्यालयों में पेयजल की सुविधा ही नहीं पायी गयी और 1734 ऐसे विद्यालय पाये गये जिनमें बालक और बालिकाओं के लिए एक ही शौचालय था।
किसी भी समाज और सूबे की तरक्की की बुनियाद में उसकी शिक्षा व्यवस्था की मजबूत ईंटों की महती भूमिका होती है। विश्व के विकसित-विकासशील और पिछड़े सभी प्रकार के मुल्कों की मौजूदा तरक्की में वहां के शिक्षा स्तर का योगदान परिलक्षित होता है। कई मुल्कों के बराबर जनसंख्या और क्षेत्रफल रखने वाले और भारत के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश के उत्तम प्रदेश बनने की राह में भी सबसे बड़ी चुनौती और कसौटी यहां के सरकारी विद्यालयों और महाविद्यालयों की स्थिति ही है।
सबसे पहले बात प्राथमिक और उच्च प्राथमिक शिक्षा के संदर्भ में। उत्तर प्रदेश सरकार के तमाम दावों के परे सरकारी विद्यालयों में पिछले चार साल में छात्रों की संख्या में करीब सात लाख की कमी दर्ज की गयी है। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में लगातार कम होती शिक्षार्थियों की संख्या इस बात की तस्दीक करती है कि परिषदीय स्कूलों में वजीफा, मिड-डे मील के साथ फल और पौष्टिक आहार देने के नुस्खे भी कारगर नहीं साबित हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश में लड़कों की प्राथमिक शिक्षा पूरी करने की दर जहां 50 प्रतिशत है वहीं लड़कियों की दर सिर्फ 27 फीसदी ही है जिसमे वंचित समूह की केवल 10.4 प्रतिशत बालिकाएं ही अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी कर पाती हैं। आखिर जब यूनिफार्म से लेकर भोजन तक, वजीफे से लेकर किताबों की सुविधा सरकार देती है तो फिर पिछले चार साल में छात्रों की संख्या में करीब सात लाख की कमी दर्ज होना क्या संकेत देता है?
उ.प्र. विधान सभा में प्रस्तुत कैग की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2012-13 में इन विद्यालयों में छात्रों की संख्या तीन करोड़ 71 लाख थी जो 2015-16 में घटकर 3.64 करोड़ रह गई। रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2012 से 2016 तक करीब छह लाख 22 हजार बच्चों को पुस्तकें ही उपलब्ध नहीं करायी गयीं। 32.21 प्रतिशत बच्चों को स्कूल खुलने के पांच महीने बाद पुस्तकें उपलब्ध करायी गयीं। कैग ने छात्र शिक्षक अनुपात पर भी सवाल खड़ा किया। रिपोर्ट में कहा गया है कि कई विद्यालयों में यह अनुपात चौंकाने वाला रहा। छात्रों की संख्या की अनुपात में अध्यापक काफी कम पाये गये। राज्य के 1.6 लाख विद्यालयों में से 50 हजार 849 में खेल के मैदान ही नहीं थे जबकि 57 हजार 107 में चारदीवारी नहीं थी।
हालात तो यहां तक खराब हैं कि 2978 विद्यालयों में पेयजल की सुविधा ही नहीं पायी गयी और 1734 ऐसे विद्यालय पाये गये जिनमें बालक और बालिकाओं के लिए एक ही शौचालय था। दिव्यांग बच्चों को दी जाने वाली सुविधाओं में भी घालमेल साफ नजर आता है। रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2010 से 2016 के बीच में विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों के रुप में नामांकित 18.76 लाख छात्र/छात्राओं में से मात्र 2.09 लाख बच्चों के पास विकलांगता प्रमाणपत्र था। फिर भी सभी बच्चों को अर्ह मानते हुए 287.88 करोड़ रुपये खर्च कर दिये गए।
एक आंकड़े के अनुसार उत्तर प्रदेश में एक लाख 40 हजार प्राथमिक व अपर प्राथमिक विद्यालय हैं तथा कागज पर 1.75 करोड़ विद्यार्थी हैं अर्थात औसतन एक विद्यालय में 125 बच्चे होने चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं है।
यह तो व्यवस्था के झोल की आंकड़ाबद्ध रपट थी जो चीख-चीख कर कह रही है कि इन प्राथमिक स्कूलों की सीलन भरी, बदरंग, दीवारों का जिंदा बना रहना इसलिये जरूरी है क्योंकि हर साल इन्ही बेसुध दीवारों के कारण बजट के करोड़ों रूपये की बारिश होती है। कैग की उपरोक्त रपट कह भी बयान करती है कि छात्रों की संख्या के अनुपात में अध्यापक काफी कम पाये गये। आखिर कब यह अनुपात मानक (30 बच्चों पर एक शिक्षक) के अनुरूप होगा? एक आंकड़े के अनुसार उत्तर प्रदेश में एक लाख 40 हजार प्राथमिक व अपर प्राथमिक विद्यालय हैं तथा कागज पर 1.75 करोड़ विद्यार्थी हैं अर्थात् औसतन एक विद्यालय में 125 बच्चे होने चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं है।
कागज पर यह भी दर्शाया जाता है कि उत्तर प्रदेश के इन विद्यालयों में 3.79 लाख अध्यापक हैं तथा 2.07 लाख अध्यापकों की और जरूरत है। शायद सच्चाई इससे इतर है। किसी-किसी स्कूल में तो 10-15 बच्चे हैं और 04-05 अध्यापक हैं। जबकि ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यालयों में अध्यापकों की भारी किल्लत है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र में कोई अध्यापक जाना नहीं चाहता। जहां बच्चे हैं वहां अध्यापक नहीं हैं और जहां अध्यापक हैं वहां बच्चे नहीं हैं! प्राथमिक शिक्षा की गिरती साख का ही परिणाम है कि शिक्षा का निजीकरण हो रहा है। इसका परिणाम है कि ग्रामीण क्षेत्रों में जो असहाय एवं वंचित-गरीब वर्ग है वह इससे बेदखल होने को मजबूर है और यह अमीर और गरीब के मध्य की विभाजक रेखा बन गई है।
सर्वेक्षण से मालूम हुआ कि केवल 44 प्रतिशत स्कूलों में छात्राओं के लिए अलग दुरुस्त शौचालय की व्यवस्था है। अन्य स्थानों पर लड़कियों को या तो सामान्य शौचालयों में जाना पड़ता है या नजदीकी खेतों में अथवा घर जाना पड़ता है।
फिलहाल संख्या के बुनियादी सवाल से कान्वेंट या प्राइवेट स्कूलों को नहीं जूझना पड़ रहा लेकिन गुणवत्ता के स्तर पर वह भी अभिभावकों को सन्तुष्ट नहीं कर पा रहे हैं। उ.प्र. में निम्न मध्य वर्ग के नागरिक की आमदनी के बराबर फीस वसूलने वाले प्राइवेट स्कूलों का व्यवहार सुपर मार्केट जैसा हो गया है। समाजसेवी राधिका तिवारी कहती हैं कि शिक्षण कार्य की गुणवत्ता भी एक बड़ा विषय है किंतु जब शिक्षा के अधिकार के तहत किसी भी छात्र को परीक्षा में अनुत्तीर्ण नहीं किया जा सकता है तो विद्यार्थी को पढऩे की प्रेरणा भी नहीं प्राप्त होती है।
यहां एक सवाल और भी मौंजू है कि अनेक कोशिशों के बावजूद बालिका शिक्षा का प्रतिनिधित्व इतना कम क्यों हैं? उ.प्र. के पांच मण्डलों (लखनऊ, कानपुर, देवीपाटन, फैजाबाद, गोरखपुर) में न्यूज टाइम्स पोस्ट के सर्वेक्षण के अनुसार अभिभावकों ने स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से शौचालय के न होने या उसके दुरुस्त न होने को एक बड़ी चिन्ता बताया। सर्वेक्षण से मालूम हुआ कि केवल 44 प्रतिशत स्कूलों में छात्राओं के लिए अलग दुरुस्त शौचालय की व्यवस्था है। अन्य स्थानों पर लड़कियों को या तो सामान्य शौचालयों में जाना पड़ता है या नजदीकी खेतों में अथवा घर जाना पड़ता है। लड़कियों की शिक्षा के मार्ग में उनके साथ होने वाला दुर्व्यवहार भी एक बड़ा कारण है।
सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत सिंह के अनुसार लड़कों की तुलना में लड़कियों का जल्दी विवाह, घर से स्कूल की दूरी व उचित परिवहन का अभाव, घरेलू कामकाज में हाथ बंटाना, अलग शौचालय का अभाव, शिक्षिकाओं का न होना, सुरक्षा का अभाव, छोटे-भाई-बहनों की देखभाल कुछ ऐसे कारण हैं, जो उनकी पढ़ाई जारी रखने में बाधक बनते हैं। यहां एक काबिले फक्र बात भी सामने आई कि पूर्व के विपरीत अब नये अभिभावकों में बालिका शिक्षा की तरफ सकारात्मक रुझान दिखाई पडऩे लगा है। यद्यपि यह अनुपात अत्यन्त न्यून है किन्तु फिर भी यह बदलाव बालिका शिक्षा के क्षेत्र में बड़े बदलाव की आधारभूमि तैयार कर रहा है। यह जानना भी दिलचस्प होगा कि निम्न मध्य वर्ग के ऐसे जागरूक अभिभावक गुणवत्ताविहीन सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की अपेक्षा स्थानीय मॉन्टेसरी या प्राइवेट स्कूलों को प्राथमिकता दे रहे हैं।
अनेक स्कूलों में यह भी देखने में आया है कि नियुक्त शिक्षक दलित बालिकाओं के साथ दोहरा व्यवहार करते हैं। वे इन बालिकाओं से स्कूल की सफाई आदि का काम कराते हैं। उन्हें कक्षा में सबसे पीछे बिठाया जाता है और छुआछूत का व्यवहार किया जाता है। अत: ऐसे में अगर कोई परिवार अपने बच्चे को स्कूल भेजता भी है तो उसके ठहराव की सम्भावना काफी कम हो जाती है। लेकिन यह व्यवहार अत्यन्त न्यून प्रतिशत में ही परिलक्षित हुआ। यहां यह भी गौरतलब है कि ग्रामीण क्षेत्रों में दलित बस्तियों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। दलित बालिकाओं के परिवारों के पास पूंजी एवं परिसम्पत्तियों के अभाव के चलते दलित बालिकाएं बाल श्रम करने को मजबूर हैं।
शैक्षिक विकास के लिए सर्वाधिक उपयुक्त बाल्य अवस्था एवं किशोर वय श्रम के बोझ के नीचे दब कर रह जाती है। अनेक अभिभावकों और जागरूक लोगों से बात करने पर बालिका शिक्षा में अपेक्षित सुधार के लिए अनेक सुझाव प्रकाश में आये। जैसे कई लोगों ने इस बात पर भी बल दिया कि ग्राम सभा और विद्यालय में ऐसा माहौल बनाया जाए जहां लड़कियां डॉक्टर या इंजीनियर बनने का सपना देख सकें।
एक अन्य सरल समाधान यह था कि एकल विद्यालय खोला जाए जहां शिक्षित ग्रामीण अपने घरों के आसपास के क्षेत्र में छात्राओं को शिक्षा प्रदान कर सकें। एक बहुत ही नवाचारी समाधान यह निकाला गया कि प्रत्येक ग्राम सभा स्तर पर ग्राम पंचायत, विद्यालय प्रशासन और अभिभावकों की संयुक्त समिति का निर्माण किया जाए, जिसे स्कूल जाने वाली लड़कियों की संख्या और उनकी परेशानियों से सम्बन्धित सभी विवरण रखने के लिए जिम्मेदार बनाया जाए। यह संयुक्त समिति छात्राओं की परेशानियों को भी हल करेगी एवं यह भी सुनिश्चित करेगी कि बीच में विद्यालय छोडऩे वाले छात्रों की दर में कमी लाई जाए।
कैसे बदलेगी स्कूली शिक्षा की स्थिति
हर बच्चे पर होने वाले खर्च के हिसाब से उत्तर प्रदेश का नंबर पूरे देश में पहले स्थान पर है। मगर शिक्षा की स्थिति पूरे देश के सबसे निचले पायदान के ठीक एक कदम ऊपर है। यह स्थिति एक 'संकट की तरफ संकेत करती है। राजधानी लखनऊ में पत्रकारों के साथ एक अनौपचारिक मुलाकात में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने शिक्षा के क्षेत्र पर विशेष ध्यान देने और इसे बेहतर बनाने की बात कही थी। किंतु यह बेहतर कैसे होगा? सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत सिंह कहते हैं कि सरकार को ट्रांसफर पॉलिसी को ज्यादा पारदर्शी बनाने की आवश्यकता है, जिसके लिये प्रक्रिया का ऑनलाइन होना जरूरी है। जिन स्कूलों में ज्यादा शिक्षक हैं, वहां से उनका स्थानांतरण एकल विद्यालयों (सिंगल टीचर स्कूल) किया जाये ताकि एकल विद्यालयों की संख्या को कम किया जा सके।
इसके साथ विद्यालयों में विषयवार शिक्षकों की उपलब्धता सुनिश्चित करने पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। इसके साथ ही जिला शिक्षा एवम प्रशिक्षण संस्थान (डायट) की भूमिका को फिर से परिभाषित करने की जरूरत है ताकि सेवा-कालीन प्रशिक्षण के ऊपर ज्यादा ध्यान दिया जा सके। शैक्षिक मानकों पर सबसे निचले स्तर पर रहने वाले 25 प्रतिशत जिलों पर ध्यान दिया जाए, ताकि वहां के शिक्षा स्तर में भी सुधार किया जा सके। ऐसे प्रयासों की वर्तमान में सबसे ज्यादा जरूरत भी है ताकि उत्तर प्रदेश को शिक्षा के गिरते स्तर के इस संकट से उबारा जा सके।
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