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निदा फ़ाज़ली: अब किसी से भी शिकायत न रही, जाने किस किस से गिला था पहले

निदा फ़ाज़ली: अब किसी से भी शिकायत न रही, जाने किस किस से गिला था पहले

Friday October 12, 2018 , 7 min Read

आज (12 अक्तूबर) के दिन जन्मे निदा फ़ाज़ली वह बेमिसाल शायर रहे, जिन्होंने गज़लों, गीतों के अलावा दोहे और नज़्में भी लिखीं, जिन्हे पूरी दुनिया ने सराहा। उनका हर अंदाज सूफियाना और जिंदगी का हर रंग शायराना रहा।

निदा फाजली

निदा फाजली


प्रतिगतिशील वामपंथी आंदोलन से जुड़े रहे निदा फ़ाज़ली को ताजिंदगी हर तबके से प्यार मिला और उनके गीतों को काफी पसंद भी किया गया। सन् 1964 में नौकरी की तलाश में निदा फ़ाज़ली मुंबई गए और फिर वहीं के होकर रह गए।

निदा फ़ाज़ली को हिंदी-उर्दू के उन चंद अजीम शायरों और गीतकारों में शुमार किया जाता है, जिनकी हर लाइन लफ्जो की जन्नत में अनायास खींच ले जाती है। निदा साहब का असली नाम मुक़्तदा हसन है। निदा फ़ाज़ली उनका परिवार का दिया नाम है। उन्होंने अपना ज्यादातर लेखन इसी नाम से किया। निदा का अर्थ होता है ‘आवाज़’ और फ़ाज़िला क़श्मीर के एक इलाके का नाम है। इन्ही दो लफ्जों ने उनका नाम पा लिया। निदा साहब के पुरखे फ़ाज़िला से ही ग्वालियर (म.प्र.) आए थे, इसलिए उन्होंने अपने नाम में फ़ाज़ली जोड़ लिया था। आज 12 अक्टूबर के दिन ही वर्ष 1938 में दिल्ली में उनकी पैदाइश हुई थी। निदा के गीत भी ग़ज़ल भी लाजवाब माने जाते हैं -

इंसान में हैवान, यहां भी हैं वहां भी।

अल्लाह निगहबान, यहां भी है वहां भी।

खूंखार दरिंदों के फ़क़त नाम अलग हैं

शहरों में बयाबान, यहां भी हैं वहां भी।

रहमान की कुदरत हो या भगवान की मूरत

हर खेल का मैदान, यहां भी हैं वहां भी।

हिंदू भी मजे में है, मुसलमां भी मजे में

इंसान परेशान, यहां भी हैं वहां भी।

प्रतिगतिशील वामपंथी आंदोलन से जुड़े रहे निदा फ़ाज़ली को ताजिंदगी हर तबके से प्यार मिला और उनके गीतों को काफी पसंद भी किया गया। सन् 1964 में नौकरी की तलाश में निदा फ़ाज़ली मुंबई गए और फिर वहीं के होकर रह गए। उन्होंने अपने शुरुआती करियर के दौरान 'धर्मयुग' और 'ब्लिट्ज' के लिए लिखा। तभी उनके लिखने के अंदाज ने फिल्मी दुनिया के दिग्गजों को कायल किया और फिर बॉलीवुड से जो रिश्ता बना, हमेशा कायम रहा। निदा फ़ाज़ली ने गज़ल और गीतों के अलावा दोहा और नज़्में भी लिखीं, जिन्हे पूरी दुनिया ने सराहा। उनकी शायरी की एक खास खूबी ये रही कि उनके अ’शार में फारसी शब्दों के बजाय बड़ी नजाकत से देसी जुबान का इस्तेमाल किया गया -

अपनी मर्जी से कहां अपने सफर के हम हैं।

रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं।

पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है,

अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं।

वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों तक

किसको मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं।

चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब

सोचते रहते हैं कि किस राहगुज़र के हम हैं।

गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम

हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं।

निदा फ़ाज़ली शायरी में डूबे उस शख्स का नाम है, जिसकी शायरी से रसखान, रहीम, तुलसी, गालिब और सूर के पदों की खुशबुएं बरसती हैं। फिरकापरस्ती के आलम में निदा की शायरी मनुष्य की चेतना को इंसानियत की सुगंध से सराबोर कर देती है। दिल्ली में जन्मे और ग्वालियर से पढ़ाई करने के दौरान मुक्तदा हसन के बारे में भला कौन जानता था कि वह शख्स एक दिन निदा बन कर देश-दुनिया की फिजाओं में गूंजेगा। निदा से जुड़ा एक वाकया पाकिस्तान का है। उस वक्त वह एक मुशायरे में पाक गए थे। जब उन्होंने ये लाजवाब ग़ज़ल पढ़ी, एक ओर तो वाह-वाह का शोर उठा, दूसरी तरफ इस पर कट्टरपंथियों ने यह कह कर उनका विरोध किया कि क्या बच्चा अल्लाह से बढ़कर है? तब निदा फ़ाज़ली ने जो उत्तर दिया था वह काबिले गौर था। उन्होंने कहा था- मस्जिद तो इंसान बनाता है पर बच्चों को खुदा खुद अपने हाथों से रचता है। वह ग़ज़ल इस प्रकार है -

अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाए।

घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाए।

जिन चिराग़ों को हवाओं का कोई ख़ौफ़ नहीं

उन चिराग़ों को हवाओं से बचाया जाए।

बाग में जाने के आदाब हुआ करते हैं

किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाए।

ख़ुदकुशी करने की हिम्मत नहीं होती सब में

और कुछ दिन यूँ ही औरों को सताया जाए।

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें

किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए।

निदा छोटी उम्र से ही लिखने लगे थे। कॉलेज के दिनो से ही कविसम्मेलन या मुशायरे के मंचों पर जब वह शायरी करते थे, उनके सामने की पंक्ति में एक लड़की बैठा करती थी जिससे वो एक अनजाना, अनबोला सा रिश्ता अनुभव करने लगे थे। एक दिन कॉलेज के बोर्ड पर एक नोटिस दिखा "Miss Tondon met with an accident and has expired" (कुमारी टंडन का एक्सीडेण्ट हुआ और उनका देहान्त हो गया है)। निदा बहुत दु:खी हुए और उन्होंने पाया कि उनका अभी तक का लिखा कुछ भी उनके इस दुख को व्यक्त नहीं कर पा रहा है, ना ही उनको लिखने का जो तरीका आता था उसमें वो कुछ ऐसा लिख पा रहे थे जिससे उनके अंदर का दुख की गिरहें खुलें। 

एक दिन सुबह वह एक मंदिर के पास से गुजरे, जहाँ पर उन्होंने किसी को सूरदास का भजन मधुबन तुम क्यौं रहत हरे? बिरह बियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौं न जरे? गाते सुना, जिसमें कृष्ण के मथुरा से द्वारका चले जाने पर उनके वियोग में डूबी राधा और गोपियाँ फुलवारी से पूछ रही होती हैं- ऐ फुलवारी, तुम हरी क्यों बनी हुई हो? कृष्ण के वियोग में तुम खड़े-खड़े क्यों नहीं जल गईं? वह सुन कर निदा को लगा कि उनके अंदर दबे हुए दुख की गिरहें खुल रही है। फिर उन्होंने कबीरदास, तुलसीदास, बाबा फ़रीद इत्यादि कई अन्य कवियों को भी पढ़ा और उन्होंने पाया कि इन कवियों की सीधी-सादी, बिना लाग लपेट की, दो-टूक भाषा में लिखी रचनाएँ अधिक प्रभावकारी हैं जैसे- सूरदास की ही उधो, मन न भए दस बीस। एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अराधै ते ईस।

मिर्ज़ा ग़ालिब की एब्सट्रैक्ट भाषा में "दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है?"। तब से वैसी ही सरल भाषा सदैव के लिए उनकी अपनी शैली बन गई। कुछ लोग सबके जैसे होते हैं, सबके लिए होते हैं, सबकी बात कहते हैं, सबके लिए रोते हैं; सबके जख्मों से जिनका सीना छलनी होता है, ऐसा कोई कबीर होता है, कोई अमीर खुसरो या फिर इनकी परंपरा को अपनी सांसों में जीने वाला कोई निदा फ़ाज़ली. वे अवाम के शायर थे इसलिए उन्होंने वह रास्ता नहीं चुना, जो उनसे पहले दाग, ग़ालिब और मीर जैसे नामचीन शायर बनाकर छोड़ गए थे. उन्हें बनी राह पर चलना मंजूर भी नहीं था -

अब खुशी है न कोई दर्द रुलाने वाला।

हम ने अपना लिया हर रंग जमाने वाला।

हर बे-चेहरा सी उम्मीद है चेहरा चेहरा

जिस तरफ़ देखिए आने को है आने वाला।

उसको रुखसत तो किया था मुझे मालूम न था

सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला।

दूर के चांद को ढूंढ़ो न किसी आँचल में

ये उजाला नहीं आंगन में समाने वाला।

इक मुसाफ़िर के सफ़र जैसी है सबकी दुनिया

कोई जल्दी में कोई देर में जाने वाला।

दोहा की लोकविधा जब लगभग खत्म हो चुकी थी, उसे उन्होंने नए शब्द दिए, नई आत्मा दी और नए अर्थ। आम से शब्दों में इतने सारे अर्थ भरना, इतने सारे भाव पिरोना, उन्हें इतने सलीके से कहना कोई निदा ही कर सकता था। जिंदगी के अनमोल फलसफे उनकी कलम से निकल पाए तो शायद इसीलिए कि वे जैसे थे, वैसा ही लिखते थे। वह बशीर बद्र नहीं, न ही गुलजार थे, वह खुद के जैसे थे, किसी से कम नहीं। उनका हर अंदाज सूफियाना और जिंदगी का हर रंग कुछ तरह शायराना -

दिन सलीक़े से उगा रात ठिकाने से रही।

दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही।

चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसव्विर आँखें

ज़िन्दगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही।

इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी

रात जंगल में कोई शम्मा जलाने से रही।

फ़ासला चाँद बना देता है हर पत्थर को

दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही।

शहर में सब को कहाँ मिलती है रोने की फ़ुरसत

अपनी इज़्ज़त भी यहाँ हँसने-हँसाने से रही।

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