एक ऐसा संगठन, जो हर बच्चे की क्षमता को परखकर देता है उन्हें शिक्षा
दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में झुग्गी झोपड़ियों के बच्चों को पढ़ाने का काम कर रहा है AICAPD (ऑल इंडिया सिटिजंस अलायंस फॉर प्रोग्रेस ऐंड डेवलपमेंट)। यह संगठन मोबाइल स्कूल इनोवेशन नाइट स्कूल, इनोवेशन मॉडल स्कूल और इनोवेशन मोबाइल लाइब्रेरी के जरिए उस तबके के बच्चों को पढ़ा रहा है जो समाज की मुख्यधारा से काफी पीछे छूट चुके हैं।
इस एनजीओ के माध्यम से अब तक तकरीबन 2,000 बच्चों को शिक्षित किया जा चुका है। अगर यह संस्था उन्हें पढ़ाने के लिए आगे नहीं आती तो ये शायद ही कभी स्कूल का मुंह देख पाते।
इस स्कूल में बच्चों को तीन तरह के वर्ग में बांट दिया जाता है। ए, बी और सी। ए लेवल में वे बच्चे होते हैं जिन्हें पढ़ाई लिखाई के बारे में कुछ भी नहीं पता होता है, वहीं बी लेवल में कुछ ऐसे बच्चे होते हैं जिन्हें लिखने-पढ़ने की कुछ समझ होती है। सी लेवल उन बच्चों के लिए होता है जो पढ़ने में ठीक होते हैं बस उन्हें सही मार्गदर्शन की जरूरत होती है।
दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में झुग्गी झोपड़ियों के बच्चों को पढ़ाने का काम कर रहा है AICAPD (ऑल इंडिया सिटिजंस अलायंस फॉर प्रोग्रेस ऐंड डेवलपमेंट)। यह संगठन मोबाइल स्कूल इनोवेशन नाइट स्कूल, इनोवेशन मॉडल स्कूल और इनोवेशन मोबाइल लाइब्रेरी के जरिए उस तबके के बच्चों को पढ़ा रहा है जो समाज की मुख्यधारा से काफी पीछे छूट चुके हैं। जिन बच्चों को इस स्कूल के माध्यम से शिक्षा दी जाती है उनमें से अधिकतर मजदूरों के बच्चे होते हैं और ये बच्चे झुग्गी झोपड़ियों में रहते हैं। इस एनजीओ के माध्यम से अब तक तकरीबन 2,000 बच्चों को शिक्षित किया जा चुका है। अगर यह संस्था उन्हें पढ़ाने के लिए आगे नहीं आती तो ये शायद ही कभी स्कूल का मुंह देख पाते।
AICAPF अभी आठ मोबाइल स्कूल चला रहा है। इस संस्था की पूरी जिम्मेदारी से देख रेख का काम संदीप सिंह करते हैं। वैसे तो वह उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के रहने वाले हैं, लेकिन करीब दस साल पहले पढ़ाई और नौकरी की तलाश में वे दिल्ली आ गए थे। इसके बाद वह जेके बिजनेस स्कूल में नौकरी करने लगे। इस नौकरी में उन्हें ठीक-ठाक सैलरी मिल रही थी लेकिन उनका यहां मन नहीं लग रहा था। जब वे गरीब बच्चों को कूड़ा बटोरते या ट्रैफिक सिग्नल पर भीख मांगते हुए देखते थे तो उनका मन मचल जाता था। उनसे इतनी कम उम्र के बच्चों से ऐसे काम करते देखा नहीं जाता था।
यह 2010 का वक्त था। इसी साल संदीप ने इन बच्चों को पढ़ाने के लिए कोई तरकीब निकालने का फैसला किया। संदीप सिंह बताते हैं कि इस काम के लिए उन्होंने अपने दोस्तों से सलाह ली तो उनकी सबने काफी तारीफ की और कई दोस्त तो उनकी मदद करने के लिए भी आगे आए। उन्होंने शुरू में एक वैन खरीदी और उससे इन इलाकों में जा जाकर अपने स्कूल के बारे में बच्चों के अभिभावकों को बताया। कुछ दिनों के बाद जब बच्चे पढ़ने के लिए आने लगे तो उन्हें पढ़ाने के लिए अस्थाई झोपड़ीनुमा स्कूल बनाया गया। जो बच्चे यहां पढ़ने के लिए आते हैं उनमें से लगभग सभी बच्चे आसपास के दिहाड़ी मजदूरों के होते हैं। कई बच्चे तो ऐसे होते हैं जिन्होंने अपनी जिंदगी में कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा होता।
इसीलिए इस स्कूल में बच्चों को तीन तरह के वर्ग में बांट दिया जाता है। ए, बी और सी। ए लेवल में वे बच्चे होते हैं जिन्हें पढ़ाई लिखाई के बारे में कुछ भी नहीं पता होता है, वहीं बी लेवल में कुछ ऐसे बच्चे होते हैं जिन्हें लिखने-पढ़ने की कुछ समझ होती है। सी लेवल उन बच्चों के लिए होता है जो पढ़ने में ठीक होते हैं बस उन्हें सही मार्गदर्शन की जरूरत होती है। यहां बच्चों की तीन तरह की क्लासों में एडमिशन मिलता है। पहली श्रेणी के बच्चों को दूसरी या तीसरी क्लास में, बी क्लास वालों को पांचवी या छठी क्लास में वहीं सी श्रेणी वाले बच्चों को सीधे आठवीं क्लास में एडमिशन मिलता है। इतना ही नहीं इन बच्चों को एनआईओएस के जरिए सर्टिफिकेट भी मिलता है जो कि आगे की पढ़ाई के लिए भी मान्य होता है।
यहां जितने बच्चे पढ़ने के लिए आते हैं उनको नि: शुल्क शिक्षा दी जाती है। उनके लिए कॉपी किताब भी मुफ्त में दी जाती है। एनजीओ इन सबके लिए प्राइवेट कंपनियों से सीएसआर के तहत मदद लेता है। एनजीओ ने इन प्रवासी मजदूरों के लिए उजाला स्कीम भी लॉन्च की है। जिसके तहत गरीब परिवारों को सोलर पैनल वाले लैंप दिए गए। इन लैंपों का मुख्य मकसद यही है कि इन बच्चों को पढ़ने के लिए रात को रोशनी मिल सके। आईआईटी रुड़की की पासआइट और अमेरिकी कंपनी में नौकरी करने वाली डॉ. रूपा गिर ने एनजीओ को 35 सोलर लैंप दान किए थे। उनका कहना है कि यह हमारे देश की विडंबना है कि जो मजदूर अपने खून पसीने से इस शहर का निर्माण करते हैं उन्हीं के बच्चे अंधेरे में जीने को विवश हो जाते हैं।
जब इस मोबाइल स्कूल के बच्चे अपनी शुरुआती शिक्षा पूरी कर लेते हैं तो उन्हें प्रोफेशनल काम दिलाने के लिए ट्रेनिंग दी जाती है। कई बच्चे ऐसे हैं जिन्हें पास की कंपनियों में ट्रेनिंग दिलाई जाती है। इसके एवज में युवाओं को कंपनी की तरफ से स्टाइपेंड भी दिया जाता है। संदीप बताते हैं कि संगठन में पूजा नाम की एक किशोरी पढ़ने आती थी। सालों पहले उसके घर वाले राजस्थान से रोजी-रोटी कमाने दिल्ली की तरफ आए थे। यहां पर वो कंस्ट्रक्शन साइट पर मजदूरी करते हैं। यहां मजदूरी से मिले पैसों से किसी तरह दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो जाया करता था। सारे पैसे तो जरूरत की चीजों में ही निकल जाते थे तो बच्चों की शिक्षा पर वो लोग कहां से खर्च करते। एक दिन संगठन के लोगों ने पूजा के घर वालों से बात की। पूजा वहां पढ़ने आने लगी। पूजा बहुत ही समझदार और तेज दिमाग की बच्ची है। उसने यहां पर लेवल सी यानि कि कक्षा 8 की पढ़ाई पार कर ली है। वो बहुत बहादुर भी है। उसने अपनी कम उम्र में ही शादी कराने की बात को लेकर घर में बगावत कर दी। उसकी इस जिद के आगे घरवाले हार गए। और उसको आगे पढ़ने की इजाजत दे दी। आज पूजा पढ़लिख कर शिक्षक बन गई है।
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