Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Yourstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

वरप्रसाद रेड्डी ने बच्चों की जान बचाने वाला टीका बनाकर लिया था देश के अपमान का बदला,"टीका-पुरुष" ने साबित कर दिखाया कि भारत भिखारी नहीं दाता है

व्यवस्था से तंग आकर दो बार छोड़ी सरकारी नौकरी ... पसीना बहाकर जिस कंपनी को खड़ा किया वहीं से निकाले गए ... अपमान की घूँट पी और बदले की आग में जलते हुए हासिल की बड़ी कामयाबियां ... अपनी पहली कंपनी को माँ शांता का नाम दिया ... माँ और मामा के बताये सिद्धांतों से नहीं किया कभी कोई समझौता ... शांता बॉयोटेक्निक्स के ज़रिये आम आदमी की पहुँच में लाये जानलेवा बीमारियों से बचाने वाले टीके ... भारत में बॉयो-टेक्नोलॉजी और जेनेटिक इंजीनियरिंग के क्षेत्र में लाई नयी क्रांति 

वरप्रसाद रेड्डी ने बच्चों की जान बचाने वाला टीका बनाकर लिया था देश के अपमान का बदला,"टीका-पुरुष" ने साबित कर दिखाया कि भारत भिखारी नहीं दाता है

Wednesday May 25, 2016 , 22 min Read

एक इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर, वैज्ञानिक बना । वो बेहद ईमानदार था । देश और समाज के प्रति समर्पित। भ्रष्टाचार, बेईमानी, नाइंसाफी, धोखाधड़ी से उसे सख्त नफरत थी। करदाताओं और आम जनता के पैसों की लूट से परेशान होकर, भ्रष्टाचार से घिरती-जकड़ती व्यवस्था से तंग आकर उसने दो बार सरकारी नौकरी छोड़ दी थी। पहली केंद्र सरकार की तो दूसरी राज्य सरकार की। दुबारा फिर कभी नौकरी न करने और उद्यमी बनने की उसने ठान ली थी। वो उद्यमी बना भी। ख़त्म होने की कगार पर पहुँच चुकी एक कंपनी में उसने निवेश किया। खूब मेहनत कर घाटे में चल रही उस कंपनी को पुनर्जीवित किया। नए-नए उत्पाद बनाकर दुनिया-भर में बेचे। कंपनी ने उत्पादों की शानदार क्वालिटी की वजह से बाज़ार में अपनी अलग जगह बनाई। कई पुरस्कार जीते। लेकिन, जब यहाँ पर भी उसने अनियमितताओं और हेरा-फेरी के खिलाफ आवाज़ उठाई तो उसे कंपनी से ही बेदख़ल कर दिया गया। जिस कंपनी के विकास के लिए उसने दिन-रात एक किये थे, खूब पसीना बहाया था, अपनी पूंजी लगाई थी, सुनहरे सपने देखे थे, उसी कंपनी से बुरे अंदाज़ से हटाए जाने पर वो वैज्ञानिक तिलमिला गया। परेशान हो गया । क्या करूँ?, क्या ना करूँ? इन सवालों के जवाब ढूंढने में वो उलझा हुआ था। कभी नौकरी तलाशने का मन करता तो कभी फिर से उद्यमी बनकर स्टार्टअप शुरू करने के लिए जी ललचाता । मन इतना उल्टी-पलटी खा रहा था कि कभी-कभी तो उस वैज्ञानिक के मन में गाँव जाकर खेती-बाड़ी करने का भी ख्याल आता-जाता रहता। इसी बीच वो वैज्ञानिक जिनेवा गया। वहां उसने अपने एक रिश्तेदार के साथ वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाईजेशन के सम्मलेन में हिस्सा लिया। इस सम्मलेन के दौरान एक विदेशी ने भारत की जनता के बारे में अपशब्द कहे, भारतीय वैज्ञानिकों का अपमान किया। उस विदेशी ने कहा कि भारतीय भिखारी हैं और भीख का कटोरा लेकर पश्चिमी लोगों के पास भीख मांगने आ खड़े होते हैं। उस विदेशी की इन अपमानजनक बातों ने उस वैज्ञानिक और इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर को गहरी चोट पहुंचाई। बातें दिल को झकघोर कर गयीं। वैज्ञानिक ने ठान ली कि वो इस अपमान का बदला लगा। विदेशी को सबक सिखाएगा और दुनिया को दिखलाएगा कि भारत की ताक़त क्या है। भारत आकर इस वैज्ञानिक ने जो काम किया उससे ना सिर्फ भारत में एक बड़ी सकारात्मक क्रांति आयी बल्कि वैज्ञानिक की उपलब्धि से दुनिया-भर के लोगों को फायदा हुआ। इस वैज्ञानिक ने जो कंपनी खड़ी की उसने जो टीके बनाए उससे दुनिया-भर में करोड़ों बच्चे एक बड़ी खतरनाक और जानलेवा बीमारी का शिकार होने से बच गए। कई पश्चिमी देशों ने भारत से ये टीके मंगवाकर अपने बच्चों को दिलवाए ताकि वे चुस्त, दुरुस्त और तन्दुरुस्त रह सकें। इस वैज्ञानिक ने आखिर साबित कर ही दिया कि भारत भिखारी नहीं दाता है। 

image


जिस वैज्ञानिक की यहाँ हमने ये बातें कही हैं उन्हें लोग वरप्रसाद रेड्डी के नाम से जानते हैं। वही वरप्रसाद रेड्डी जिन्होंने शांता बॉयोटेक्निक्स की स्थापना की और दुनिया-भर के लोगों को हेपटाइटिस-बी और दूसरी जानलेवा बीमारियों के बचने के लिए टीके वाजिब कीमत पर उपलब्ध करवाए । शांता बॉयोटेक्निक्स की स्थापना से पहले यही टीके इतने महंगे बिकते थे कि बेहद अमीर लोग ही अपने बच्चों को ये टीके दिलवा पाते थे। लेकिन, शांता बॉयोटेक्निक्स ने भारत में ये टीके बनवाए भी और उन्हें लोगों को ऐसी कम कीमत पर उपलब्ध करवाए कि आम आदमी भी उसे खरीदकर इस्तेमाल कर सकें। वरप्रसाद रेड्डी को अपनी इन्हीं नायाब कामयाबियों और जन-सेवा के लिए कई पुरस्कार और सम्मान मिले। भारत सरकार ने उन्हें विज्ञान और अभियांत्रिकी के क्षेत्र में अमूल्य योगदान के लिए देश के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'पद्म भूषण' से अलंकृत किया।

हैदराबाद में उनके निवास पर हुई एक बेहद ख़ास मुलाकात में वरप्रसाद रेड्डी ने अपने जीवन की कई महत्वपूर्ण घटनाओं के बारे में बताया। जिनेवा की उस ऐतिहासिक घटना के बार में बताते हुए उन्होंने कहा, " मैं अपने एक कजिन के साथ जिनेवा गया था। मेरे कजिन को वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाईजेशन के एक सम्मलेन में एक शोध-पत्र प्रस्तुत करना था। सम्मलेन "टीकाकरण का महत्त्व" विषय पर आधारित था। उस सम्मलेन में मुझे कई नए विषयों के बारे में जानकारी मिली। मैंने पहली बार उस सम्मलेन में हेपेटाइटिस-बी के बारे में सुना। मैं इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर था और मेरे लिए ये बीमारियां और उनसे बचने के टीके बिलकुल नए विषय थे। हकीकत तो ये थी कि मैंने पहली बार उसी सम्मलेन में हेपेटाइटिस-बी का नाम सुना था। जिनेवा में मुझे पता चला कि भारत में उस समय 50 मिलियन लोग जिगर की इस बीमारी का शिकार हैं। चाइना में हेपेटाइटिस- बी के शिकार मरीजों की संख्या 55 मिलियन थी। सभी देशों में इस खतरनाक बीमारी से कई सारे लोग परेशान थे । उन दिनों, यानी 90 दशक की शुरुआत, में दो देशों में ही हेपेटाइटिस-बी के टीके बनाए जाते थे। इन टीकों की कीमत बेहद ज्यादा थी। इसी वजह से बहुत अमीर और रसूकदार लोग ही इस टीके को लगवा पाते थे। भारत में भी ये टीके आते थे लेकिन सिर्फ और सिर्फ अमीर लोगों की पहुँच में ही थे। चूँकि उस समय मेरे पास ना नौकरी थी और ना ही कोई काम, मैंने फैसला कर लिया कि मैं हेपेटाइटिस-बी का टीका भारत में बनवाऊंगा और ये सुनिश्चित करूंगा कि ये टीका भारत-भर में उपलब्ध हो और आम आदमी भी इसे खरीदकर इसका इस्तेमाल कर सके। मैंने तय कर लिया था कि मेरा अगला लक्ष्य क्या है। "

वरप्रसाद रेड्डी ने अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए तैयारियां शुरू कर दीं। लेकिन, उन्हें हर कदम पर परेशानी मिली। हर कदम पर नयी चुनौती उनका स्वागत करती। जब वरप्रसाद रेड्डी विदेश जाकर हेपेटाइटिस-बी निरोधक टीका का फार्मूला जानने और उसकी टेक्नोलॉजी खरीदकर भारत लाने विदेश गए तब उन्हें घोर अपमान का सामना करना पड़ा। एक विदेशी ने तीन ऐसी बातें कहीं जिससे उन्हें गहरा झटका लगा। दिल और दिमाग और गहरा असर पड़ा। बर्दाश्त के बाहर थे वे अपमान-भरे शब्द। वरप्रसाद रेड्डी ने बताया," तीन बातें कही थी उसने मुझसे। पहले उसने कहा था कि भारतीय लोग भिखारी हैं और कटोरा लेकर टेक्नोलॉजी की भीख मांगने पश्चिम चले आते हैं। कितने साल तक हम तुम भारतीयों का बोझ ढोएंगे । दूसरी बात जो उसने कही थी उसने मेरा दिमाग और गर्म कर दिया था। उसने कहा था कि अगर हम तुम्हें टेक्नोलॉजी दे भी दें तो तुम्हारे वैज्ञानिकों को उसे समझकर इस्तेमाल करने में सालों-साल लग जाएंगे। उस विदेशी ने ये बात कहकर भारतीय वैज्ञानिकों को नीचे दिखाने की कोशिश की थी। तीसरी बात उसने ये कही कि भारत बहुत ही बड़ा देश। वहां कई सारे लोग हैं। हर दिन हज़ारों बच्चे पैदा होते हैं, फिर तुम्हें क्यों टीकों की ज़रुरत हैं ?वो विदेशी ये कहना चाहता कि अगर बच्चे मर भी जाएँ तो क्या फर्क पड़ेगा । यही वो बातें थी जिसने मुझे हिलाकर रख दिया था। एक कंपनी से अन्सेरमोनीअस्ली निकाल दिए जाने से मैं बहुत डिस्टर्ब्ड था, ऊपर से इन अपमानजनक बातों के मुझे और भी विचलित कर दिया।"

इसके बाद वरप्रसाद रेड्डी भारत आये और उन्होंने शांता बॉयोटेक्निक्स की नींव रखी। नींव तो पड़ गयी लेकिन सामने चुनौतियों के पहाड़ खड़े थे। उस समय जब शांता बॉयोटेक्निक्स की नींव पड़ी थी, तब भारत में एक भी बॉयो-फार्मा कंपनी नहीं थी। वैसे तो कई कालेजों के सिलेबस में बॉयो-टेक्नोलॉजी के कुछ 'लेसन', लेकिन इस क्षेत्र में काम न के बराबर था।

इसी वजह से वरप्रसाद रेड्डी को पहली दिक्कत अपनी कम्पनी ले लिए सही लोग जुटाने में आयी। इस चुनौती को पार लगाने के लिए उन्होंने एक तरकीब अपनायी। उन्होंने ऐसे लोगों को अपनी कंपनी के लिए चुना जिनमें देश-भक्ति की भावना थी, जिनमें मेहनत करने का जस्बा था। वरप्रसाद रेड्डी मानते थे कि अगर लोगों का ऐटिटूड सही है तो उन्हें कोई भी काम सिखाया जा सकता है। अच्छे विचारों वाले और बड़े से बड़ा काम सीखने और मेहनत से काम करने का माद्दा रखने वालों को कंपनी के लिए चुना गया।

वरप्रसाद रेड्डी ने बताया कि शरुआती दिनों में निवेश की भी समस्या नज़र आयी थी। किसी तरह से वे एक करोड़ नब्बे लाख रुपये रूपये जुटा पाने में कामयाब हुए थे।इस रकम में उनके खुदके अड़सठ लाख रुपये थे। लेकिन ये रकम बड़े शोध और अनुसंधान के लिए कम जान पड़ रही थी। वरप्रसाद रेड्डी ने कहा," हमारे इरादे नेक थे शायद इसी वजह से हमारे लिए भगवान ने ओमान से मदद भेजी। ओमान के विदेश मंत्री को उनकी परियोजना पसंद आयी और उन्होंने करीब दो करोड़ रुपये का निवेश कंपनी में किया। इतना ही नहीं खुद गारंटी देकर कंपनी के लिए ओमान से लोन दिलवाया। चूँकि पैसों की समस्या दूर हो गयी थी काम ने रफ़्तार पकड़ा।"

वरप्रसाद रेड्डी को इस बात का गुस्सा है कि उन दिनों भारतीय बैंकों ने उनकी मदद नहीं की थी। वे कई बैंक अधिकारियों से मिले थे। किसी ने भी लोन देने या दिलवाने में उनकी मदद नहीं की। उनकी ज्यादा नाराज़गी इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट बैंक ऑफ़ इंडिया और इंडियन फाइनेंस कारपोरेशन से है। वरप्रसाद रेड्डी के मुताबिक इन दोनों संस्थाओं की ज़िम्मेदारी ही यही है कि वो भारत में नए उद्योग को प्रोत्साहन दे। शोध और अनुसंधान करने वाली कंपनियों की वित्तीय सहायता करें। लेकिन, दोनों ने शांता बॉयोटेक्निक्स के लिए कुछ नहीं किया। वरप्रसाद रेड्डी बताते है कि बैंक के अधिकारी उनसे अजीब-अजीब सवाल पूछते थे। कोई ये कहकर लोन नहीं देता था कि वे इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनयर है तो फिर बॉयो- टेक्नोलॉजी में कैसे काम कर पाएंगे। कोई अधिकारी ये कहता था कि भारत में बॉयो-टेक्नोलॉजी और जेनेटिक इंजीनियरिंग जैसी चीज़ें ही नहीं हैं फिर आप काम कैसे करेंगे। कुछ बैंक अधिकारी टीका की मार्किट में मांग के बारे में सवाल करते थे। इस सवाल के जवाब में वरप्रसाद रेड्डी उन्हें बताते थे कि भारत में हर साल 25 मिलियन बच्चे पैदा होते हैं और हर एक बच्चे को हेपेटाइटिस-बी से बचाने के लिए तीन बार टीका देना होता है , यानी भारतीय बाजार में हर साल 75 मिलियन टीकों की ज़रुरत है। इतना ही नहीं विदेशी कंपनियां इसी टीके को 840 रुपये प्रति टीका के हिसाब से बेच रही हैं और शांता बॉयोटेक्निक्स उसे सिर्फ 50 रुपये प्रति टीका के हिसाब से बेचेगी। लेकिन अफ़सोस कि कोई भी बैंक अधिकारी लोन देने को राज़ी नहीं हुआ। शांता बॉयोटेक्निक्स का काम ओमान के विदेश मंत्री की पहल से आगे बढ़ता गया। चौंकाने वाली बात ये भी है कि शांता बॉयोटेक्निक्स के शोध और अनुसंधान में भारत की सरकार ने भी कोई मदद नहीं की।

हर उलझन को पार लगते हुए ,हर चुनौती का बुलंद हौसलों के साथ सामना करते हुए वरप्रसाद रेड्डी आगे बढ़ते चले गए। शांता बॉयोटेक्निक्स को आखिरकार कामयाबी मिल ही गयी। शोध कामयाब हुआ और अनुसंधान ने भी अच्छे नतीजे दिए। भारत में हेपेटाइटिस-बी का निरोधक टीका बनकर तैयार हो गया।

इस बाद वरप्रसाद रेड्डी को खूब मेहनत कर इस टीका की बिक्री का लाइसेंस लेना पड़ा था। उस समय इस टीके के लिए न तो कोई प्रोटोकॉल था और नहीं दवाईओं की सूची में शामिल था। रेड्डी को ये काम भी खुद ही करवाने पड़े थे। 

image


हेपेटाइटिस-बी की रोकथाम के लिए शांता बॉयोटेक्निक्स ने अपना पहला निरोधक टीका अगस्त, 1997 में लांच किया। यही साल भारत की आज़ादी की स्वर्ण जयंती भी थी। ऐसे ऐतिहासिक मौके पर शांता बॉयोटेक्निक्स ने इतिहास रचा था। बॉयो-टेक्नोलॉजी और जेनेटिक इंजीनियरिंग के क्षेत्र में नयी क्रांति लाई थी।

अब भारत में हेपेटाइटिस-बी की रोकथाम के लिए ज़रूरी निरोधक टीका आम आदमी की पहुँच में था। इसके बाद शांता बॉयोटेक्निक्स ने कई टीके बाजार में लाये और लोगों को वाजिब दाम पार ये टीके उपलब्ध करवाए। शांता बॉयोटेक्निक्स की वजह से ही दुनिया-भर में टीकों के दाम कम करने पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मजबूर होना पड़ा था। चौंकाने वाली बात ये भी है कि भारत में ही ये टीका बनकर तैयार होने के बावजूद सरकार ने इसे अपने टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल नहीं किया। जबकि पाकिस्तान सहित भारत के सारे पड़ोसी देश और दुनिया के बाकी देश भी इस टीके को शांता बॉयोटेक्निक्स से खरीबकर अपने बच्चों को दिलवा रहे थे। 14 साल की जद्दोजहद के बाद हेपेटाइटिस-बी की रोकथाम वाले इस टीके को राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल किया।

बड़ी पीड़ा और दुःख के साथ वरप्रसाद रेड्डी बताते है कि भारत के कुछ स्वास्थ मंत्रियों ने उनके इस टीके को राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल करवाने के लिए रिश्वत माँगी थी। चूँकि वरप्रसाद रेड्डी सिद्धांतों के पक्के थे उन्होंने कभी भी रिश्वत नहीं दी।

सिद्धांतों पर अडिग रहने की वजह बचपन में उनकी माँ और मामा द्वारा दिए गए संस्कार थे। वरप्रसाद रेड्डी अपनी माँ से इतना प्रभावित थे उन्होंने अपनी पहली कंपनी का नाम अपनी माँ के नाम पर ही रखा था। माँ शांता गृहणी थी। पिता वेंकटरमणा रेड्डी किसान थे और उनके पास अच्छी-खासी ज़मीन-जायदाद थी। वरप्रसाद रेड्डी का जन्म 17 नवम्बर, 1948 को आँध्रप्रदेश के नेल्लूर जिले के पापिरेड्डीपालेम गॉव में हुआ था । पिता छठी कक्षा था पढ़े थे, लेकिन माँ आठवीं पास थी। उन दिनों आठवीं के लिए भी पब्लिक एग्जाम होता था। वरप्रसाद रेड्डी ने बताया कि उनकी माँ आध्यात्मिक विचारों से सराबोर थीं और भक्ति-भाव में मग्न रहती थी। चूँकि संयुक्त परिवार था, माँ ने सोचा कि वरप्रसाद की पढ़ाई-लिखाई के लिए उनके भाई का घर ही उपयुक्त रहेगा। माँ ने वरप्रसाद को उनके मामा के यहाँ भेज दिया। मामा नेल्लूर शहर में रहते थे।वरप्रसाद के मामा सच्चे, समर्पित और निष्ठावान वामपंथी थे। वे उस ज़माने के मशहूर वामपंथी नेता पुचल्लपल्ली सुंदरय्या से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने अपनी ज़मीन-जायजात भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नाम कर दी थी। उनका सारा जीवन समाज की सेवा को समर्पित था। समाज सेवा में कोई बाधा ना आये इस उद्देश्य से उन्होंने शादी भी नहीं की थी। अपना तन-मन-धन सब कुछ समर्पित कर वे गरीबों के उत्थान के लिए काम करते थे। बालक वरप्रसाद के मन-मस्तिष्क पर उनके मामा के विचारों और सेवा-भाव का गहरा प्रभाव पड़ा। बचपन से ही वरप्रसाद भी अपने मामा के साथ समाज-सेवा से जुड़े कार्यों में शामिल होने लगे थे।

लेकिन, बचपन में ही वरप्रसाद रेड्डी एक बड़ी दुविधा में घिर गए थे। एक तरफ उनकी माँ ईश्वर में विश्वास करती थीं, वहीं मामा ईश्वर को नहीं मानते थे। माँ धार्मिक थीं और पूजा-पाठ करती थीं, लेकिन मामा इस सब के खिलाफ थे और लोगों की सच्चे मन से सेवा को ही अपना धर्म मानते थे। चूँकि वरप्रसाद पर दोनों का सामान प्रभाव था उन्हें ये फैसला करने में मुश्किल हो रही थी कि आखिर किसकी जीवन-शैली को अपनाया जाय। बहुत सोच विचार करने के बाद वरप्रसाद ने एक फैसला लिया। फैसला था - मध्य मार्ग अपनाने का। उन्होंने माना कि उनकी माँ जिस अदृश्य शक्ति में विश्वास करती है उसे नाकारा नहीं जा सकता। इसी वजह से उन्होंने ईश्वरीय शक्ति को स्वीकार किया। साथ की वरप्रसाद ने अपने मामा की तरह ही सच्चे मन से समाज-सेवा को अपना धर्म भी बना लिया। महत्वपूर्ण बात ये है कि माँ से विरासत में मिले भक्ति-भाव और मामा के प्रभाव से मन में घर कर गए सेवा-धर्म को वरप्रसाद रेड्डी आज भी पहले की तरह ही सच्चे मन और पूरी निष्ठा से निभा रहे है।

एक ख़ास बात ये भी है कि वरप्रसाद रेड्डी बचपन अपने तेलुगु टीचर से भी बहुत ज्यादा प्रभावित थे। जिस शानदार तरीके से टीचर उन्हें तेलुगु के पाठ सिखाते थे उसी वजह से वरप्रसाद रेड्डी की दिलचस्पी तेलुगु भाषा और तेलुगु साहित्य में लगातार बढ़ती चली गयी। तेलुगु भाषा और साहित्य का जादू वरप्रसाद रेड्डी पर कुछ इस तरह से सवार था कि वे अपनी डिग्री तेलुगु भाषा और साहित्य में ही हासिल करना थे। उन्होंने अपनी इस इच्छा को अपने मामा के सामने भी रखा। लेकिन, मामा ने अपने भांजे का प्रस्ताव सिरे से खारिज कर दिया। वरप्रसाद रेड्डी ने बताया कि वो दौर भारत में "निर्माण का दौर" था। देश-भर में हर क्षेत्र में बड़ी-बड़ी परियोजनाएँ बन रही थी। देश को अच्छे और प्रभावी इंजीनियरों की ज़रुरत थी। इसी वजह से उनके मामा ने उन्हें इंजीनियर बनकर देश के निर्माण और विकास में बड़ी भूमिका अदा करने की शख्त हिदायत दी थी। वरप्रसाद रेड्डी कहते हैं, "मुझे ज़बरदस्ती साइंस पढ़वाई गयी। मैं कॉलेज में कभी फर्स्ट या सेकंड नहीं आया। मैं कोई एक्स्ट्रा-आर्डिनरी स्टूडेंट नहीं था। मैं सिर्फ और सिर्फ एक स्टूडेंट था। मेरा रैंक सातवाँ या आठवाँ होता। "

image


वरप्रसाद रेड्डी ने तिरुपति के श्री वेंकटेश्वरा विष्वविद्यालय से 1967 में बीएससी की डिग्री हासिल की। बीएससी के बाद उन्होंने काकीनाड़ा के इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला लिया। यहाँ से उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक्स और कम्युनिकेशन्स में उच्च स्तरीय पढ़ाई की। 1970 में वरप्रसाद रेड्डी इंजीनियरिंग ग्रेजुएट बने। इसके बाद वे कंप्यूटर साइंसेज की पढ़ाई के लिए जर्मनी चले गए। जर्मनी से उन्होंने ने कंप्यूटर साइंसेज में पीजी डिप्लोमा किया। कंप्यूटर साइंसेज की पढ़ाई के दौरान वरप्रसाद रेड्डी जर्मनी के लोगों, उनके अनुशासन, उनकी संस्कृति से बहुत प्रभावित हुए। इसी दौरान कुछ दिनों के लिए वे अमेरिका भी गए। लेकिन उन्हें अमेरिका पसंद नहीं आया। वरप्रसाद रेड्डी कहते हैं, "मुझे लगा कि घूमने-फिरने के लिए अमेरिका अच्छी जगह है लेकिन रहने और नौकरी करने के लिए सही जगह नहीं है।" विदेश-यात्रा पूरी कर वरप्रसाद रेड्डी 1971 -72 में भारत लौट आये। चूँकि वे इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर थे उन्हें जल्द ही हैदराबाद की डिफेन्स इलेक्ट्रॉनिक्स रिसर्च लैबोरेट्रीज में बतौर वैज्ञानिक नौकरी मिल गयी। केंद्र सरकार की इस प्रतिष्ठित संस्थान में शोध और अनुसंधान का काम होता है। ऐसा शोध और अनुसंधान जिससे भारत रक्षा के क्षेत्र में पूर्ण रूप से आत्म-निर्भर बन सके। भारत को इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पाद विदेशों से न मंगवाने पड़ें और सारे ज़रूरी उत्पाद भारत में ही बनाए जाएँ। लेकिन वरप्रसाद रेड्डी को इस सरकारी संस्थान में काम करने के तौर तरीक़े पसंद नहीं आये। उनके शब्दों में, " डीईआरएल में उन दिनों शोध कम और विकास ज्यादा होता था। मुझे लगता था कि देश के करदाताओं का पैसे फ़िज़ूल में खर्च किया जा रहा है। मैं वहां के हालात से बहुत आंदोलित हुआ। वहां पांच साल काम करने के बाद मैंने नौकरी छोड़ दी। मुझसे वो व्यवस्था सही नहीं गयी।"

वरप्रसाद रेड्डी के शब्दों के ये मायने हैं कि डीईआरएल के कुछ अधिकारी अपने निजी विकास पर ज्यादा ध्यान देते थे और उन्हें देश के लिए लाभकारी और सार्थक शोध में कम दिलचस्पी थी। वरप्रसाद रेड्डी को डीईआरएल के कड़े नियमों से भी शख्त नाराज़गी थी। सैन्य अधिकारियों की दखलंदाज़ी, उनके सख्त प्रोटोकॉल भी वरप्रसाद रेड्डी को पसंद नहीं आये। वे खुलकर और पूरी आज़ादी से काम करना चाहते थे। डीईआरएल में लालफीताशाही और सैन्य-नियमों से वे इतना परेशान हो गए थे कि नौकरी छोड़ने के बाद उन्होंने वापस अपने गाँव जाकर खेती-बाड़ी करने की सोच ली थी। उन्हें लगा कि शहर से दूर रहूँगा तो डीईआरएल की बुरी यादें शायद उनका पीछा छोड़ देंगी।

लेकिन इसी बीच 1977 में वरप्रसाद रेड्डी को आंध्रप्रदेश औद्योगिक विकास निगम में काम करने का प्रस्ताव मिला। प्रस्ताव किसी और ने नहीं बल्कि निगम के प्रबंध निदेशक डॉ राम के. वेपा दे दिया था। डॉ राम के. वेपा की शख्शियत और काबिलियत को देखते हुए वरप्रसाद रेड्डी ने नौकरी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। चूँकि वरप्रसाद रेड्डी इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर थे , उन्हें निगम की मदद से संचालित इलेक्ट्रॉनिक उद्यमों की निगरानी और विकास की ज़िम्मेदारी दी गयी।वरप्रसाद रेड्डी को इन उद्यमों और औद्योगिक इकाइयों में निगम का मनोनीत डायरेक्टर बनाया गया। कुछ दिनों के कामकाज के बाद ही वरप्रसाद रेड्डी को समझ में आ गया कि निगम में गोरखधंधा चल रहा है। उन्हें ये अहसास हुआ कि उस समय के रसूकदार लोग ख़ास तौर पर राजनेता और आला अधिकारी अपने रिश्तेदार को उद्यमी यानी आन्ट्रप्रनर बताकर निगम से कर्ज़ा ले रहे थे। निगम के साथ मिलकर प्राइवेट-गवर्नमेंट पार्टनरशिप यानी जॉइंट वेंचर प्रोजेक्ट के तहत उद्यम और उद्योग स्थापित कर रहे थे। इन उद्यमों में करोड़ों रुपये की हेरा-फेरी की जा रही थी। वरप्रसाद रेड्डी बताते हैं," कोई भी असली उद्यमी नहीं था। सब सरकारी दौलत लूटने के मकसद से उद्यमी बनाए गए थे। अधिकारियों और राजनेताओं की मिलीभगत थी। अपने गोरखधंधे को छिपाने के मकसद से ये तथाकथित उद्यमी एक नहीं बल्कि चार-चार बैलेंस शीट मेन्टेन करते थे। असली बैलेंस शीट उनके पास होती थी। एक बैलेंस-शीट सरकार के लिए बनाई जाती। दूसरी अपने बिज़नेस पार्टनर्स के लिए और तीसरी इंडस्ट्री के लिए। और जब मैंने इस गोरखधंधे के बारे में सवाल किये तो पहले टालमटोल किया गया। जब मैंने लिखित तौर पर अपनी आपत्तियां जतानी शुरू कीं और दस्तावेज़ों पर टिप्पणियाँ लिखीं तब जाकर कहीं हरकत हुई। "

लेकिन, हरकत जनता और करदाताओं के पैसों को लूटने वाले लोगों को बचाने के लिए ही हुईं। एक दिन निगम के आला अधिकारी ने वरप्रसाद रेड्डी को चुनौती देते हुए कहा था कि उद्यमी बनना आसान नहीं है। उद्यम शुरू करने के लिए हेर-फेर और गड़बड़ियां करनी ही पड़ती हैं। एक बार तुम उद्यमी बन कर देखो तब तुम्हे सब समझ आ जाएगा और तुम भी ऐसा ही करोगे। ये बातें वरप्रसाद रेड्डी के मन में गहराई से उतर गयी थीं। उन्होंने उसी वक्त ठान लिया कि वे उद्यमी बनेंगे और ये साबित करेंगे कि बिना हेर-फेर किये, गोरखधंधे किये, सारे नियमों का पालन करते हुए भी, ईमानदारी से भी उद्यमी बना जा सकता है। यही वो पल था जिसने वरप्रसाद रेड्डी के जीवन में एक नया मोड़ लाया और वे उद्यमी बनने की ओर बढ़ने लगे।

नीयत साफ़ थी, इरादे नेक थे, मेहनत करना वे जानते थे, जूनून भी सवार था शायद इसी वजह से उद्यमी बनने का मौका भी जलह ही मिल गया।

वरप्रसाद रेड्डी को उस समय हैदराबाद बैटरीज नाम की एक कंपनी के बार में पता चला। ये कंपनी घाटे में चल रही थी और बंद होने के कगार पर थी। लेकिन, इस कंपनी के प्रोमोटर बहुत बड़े विद्वान थे। वे न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के विजिटिंग प्रोफेसर थे। एडमिनिस्ट्रेटिव स्टाफ कॉलेज में भी पढ़ाते थे। बैटरियों के बारे में भी उन्हें बहुत जानकारियाँ हासिल थीं। वरप्रसाद रेड्डी ने मौके का पूरा फायदा उठाया। हैदराबाद बैटरीज में निवेश किया और पार्टनर बन गए। खूब मेहनत की, पूरा दिमाग लगाया। दिन-रात एक किये। कुछ ही महीनों में उनकी मेहनत रंग लाई। कंपनी घाटे से उभरी। कंपनी ने बड़े-बड़े हवाई जहाज़ों , मिसाइलों के लिए ज़रूरी बैटरी बनने शुरू किये। कंपनी को एक के बाद एक बड़े ऑफर मिले। कंपनी दौड़ पडी। खूब मुनाफा भी होने लगा। इसी बीच प्रमोटर ने मुनाफा बढ़ाने के लिए सरकार को दिए जाने वाले टैक्स को जमा न करने की सलाह दी। इस सलाह पर प्रमोटर और वरप्रसाद रेड्डी में अनबन हो गयी।

वरप्रसाद रेड्डी संस्कारी थे। नियमों और कायदों के पक्के थे। माँ और मामा के बताये मार्ग से कभी अलग नहीं हुए थे। ईमानदार थे और हमेशा अनियमिततओं का विरोध किया। नैतिकता उनका सबसे बड़ा आभूषण थी। स्वाभाविक था उन्होंने कंपनी में गैर-कानूनी कामों को होने से रोका। इसी से नाराज़ प्रमोटर ने उन्हें अचानक ही और बड़े ही अटपटे और बुरे तरीके से कंपनी से बाहर कर दिया। 

image


अपने जीवन के उस दौर को याद करते हुए वरप्रसाद रेड्डी कहते हैं, " वे दिन मेरे लिए बहुत पीड़ा और दुःख-भरे थे। मुझे गहरा सदमा पहुंचा था । मैं जल्द ही जान गया था कि मुझे एक साज़िश के तहत कंपनी से निकाला गया है । मैंने कंपनी को पुनर्जीवित करने में कोई कोशिश बाकी नहीं छोड़ी थी। इसी कंपनी के ज़रिये मैं उद्यमी बना था। मेरी ईमानदारी कुछ लोगों को नहीं भायी। "

दिलचस्प बात ये भी है कि कंपनी से निकाल दिए जाने के बाद भी वरप्रसाद रेड्डी उस प्रमोटर की तारीफ़ करने ने नहीं रुकते। लेकिन बातों में थोड़ा कटाक्ष ज़रूर होता है। वरप्रसाद रेड्डी कहते हैं, " वो शख्स मुझसे से भी ज्यादा काबिलियत रखते हैं। कंपनी को चलाने में उन्होंने मेरा मार्ग-दर्शन किया। एक छोटी-सी कंपनी को हमने बहुत बड़ा बना दिया था। हमने कई अवार्ड भी जीते। दुनिया-भर में हमारी चर्चा भी होने लगी। मैंने हमेशा से क्वालिटी पर ध्यान दिया। और अव्वल दर्ज़े की क्वालिटी की वजह से ही बाज़ार में हमारी बैटरीज की बहुत डिमांड थी। मैंने उस कंपनी में बहुत कुछ सीखा था। "

अपने कटाक्ष को चरम पर ले जाकर वरप्रसाद रेड्डी ने कहा, " मैंने उस प्रमोटर से दो बड़ी बातें सीखीं ... क्या करना चाहिए और क्या नहीं ?"

वरप्रसाद रेड्डी से इस बातचीत के दौरान हमने ये जाना कि जब कभी वे उदास, निराश या परेशान होते, नौकरी छोड़ दी होती या हटाए गए होते तो वे गाँव लौटने की बात करते। हमने उनसे पूछा, "आपने कई बार गाँव वापस लौटने की सोची, लेकिन आप गए फिर वापस आ गए। वहां बसे क्यों नहीं ?

खेती-बाड़ी क्यों नहीं की ? इस सवाल के जवाब में मंद-मंद मुस्काते हुए उन्होंने कहा," पता नहीं मुझे कि मेरे पिताजी की सिक्स्थ सेंस कैसे काम कर गयी। उन्हें लगता था कि एक दिन मैं गाँव आकर यहीं बस जाऊंगा। मैं गाँव से दूर ही रहूँ इस मसकद से उन्होंने सारे खेत बेच दिए थे।"

ये पूछे जाने पर कि शांता बॉयोटेक्निक्स की ऐतिहासिक यात्रा के दौरान उनके लिए सबसे सुखद घटना कौन-सी थी ? वरप्रसाद रेड्डी के बताया कि शांता बॉयोटेक्निक्स के हर कर्मचारी, ड्राइवर से लेकर साइंटिस्ट तक को कंपनी में स्टेक्स दिए गए थे। जब विदेशी कंपनी सनोफी ने ये शेयर खरीदे तो सभी कर्मचारी मालामाल हो गए। सभी खुश हुए। बड़ी और तज्जुबब वाली बात ये थी कि सनोफी ने बहुत बड़ी रकम देकर कर्मचारियों से शेयर खरीदे थे। एक शेयर के लिए कायदे से हर एक को करीब पांच सौ रुपये मिलने चाहिए थे लेकिन विदेशी कंपनी ने दो हज़ार तीन सौ पैंतालीस रुपये दिए थे।वरप्रसाद रेड्डी के मुताबिक शांता बॉयोटेक्निक्स को खरीदने में सनोफी ने कर्मचारियों के प्रति काफी उदारता दिखाई थी। शांता बॉयोटेक्निक्स को एक विदेशी कंपनी के टेकओवर करने के बावजूद अपने अनुभव, अपनी काबिलियत और कामयाबियों के आधार पर अब भी वरप्रसाद रेड्डी कंपनी के चेयरमैन और ब्रांड ऐम्बैसडर बने हुए है।

एक सवाल के जवाब में वरप्रसाद रेड्डी ने कहा कि एक तरह से मैंने उस विदेशी के अपमान का बदला ले लिया। भारत में बने टीके यूनीसेफ जैसी नामी और अंतर्राष्ट्रीय संस्था ने खरीदे और दुनिया-भर में करोड़ों बच्चों को दिए। गर्व का आभास दिलाते हुए वरप्रसाद रेड्डी ने कहा,"हमने कई टीके मुफ्त में भी दिए। ये टीके पश्चिम में भी मुफ्त में बांटे गए। भारत ने साबित कर दिया कि वो लेने वाला नहीं बल्कि देने वाला देश है। "

काफी तोल -मोलकर अपनी बातें कहने वाले वरप्रसाद रेड्डी ने कहा,"मैंने मुनाफा कमाने या फिर एक सोची-समझी कारोबारी योजना के तहत शांता बॉयोटेक्निक्स की शुरुआत नहीं की थी। मुझे प्रवोक किया गया था। प्रावकेशन की वजह से मैंने कंपनी खोली और अपना जवाब उस विदेशी को दिया जिसने अपमानजनक शब्द कहे थे। "